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April 1964

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बौद्ध धर्म की नास्तिकवादी विचारधारा का खण्डन करने के लिए कुमारिल भट्ट ने प्रतिज्ञा की और उसे पूरा करने के लिए उन्होंने तक्षशिला के विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन पूरा किया। उन दिनों की प्रथा के अनुसार छात्रों को आजीवन बौद्ध धर्म के प्रति आस्थागत रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी तभी उन्हें विद्यालय में प्रवेश मिलता था। कुमारिल ने झूठी प्रतिज्ञा ली और शिक्षा समाप्त होते ही बौद्ध मत का खण्डन और वैदिक धर्म का प्रसार आरम्भ कर दिया।

अपने प्रयत्न में उन्हें लड़खड़ाती हुई वैदिक मान्यताएं फिर मजबूत बनायीं।

कार्य में सफलता मिली पर कुमारिल का अन्तःकरण विक्षुब्ध ही रहा। गुरु के सामने की हुई प्रतिज्ञा एवं उन्हें दिलाये हुए विश्वास का घात करने के पाप से उनकी आत्मा हर घड़ी दुःखी रहने लगी। अन्त में उन्होंने इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए अग्नि में जीवित जल जाने का निश्चय किया। इस प्रायश्चित्य के करुण दृश्य को देखने देश के अगणित विद्वान पहुँचे उन्हीं में आदि शंकराचार्य भी थे। उन्होंने कुमारिल को प्रायश्चित न करने के लिए समझाते हुए कहा-’आपने तो जन हित के लिए वैसा किया था फिर प्रायश्चित क्यों करें?’ इस पर कुमारिल ने कहा-अच्छा काम भी अच्छे मार्ग से ही किया जाना चाहिए। कुमार्ग पर चलकर श्रेष्ठ काम करने की परम्परा गलत है। मैंने आपत्ति धर्म के रूप में वह छल किया पर उसकी परंपरा आरंभ नहीं करना चाहता दूसरे लोग मेरा अनुकरण करते हुए अनैतिक मार्ग पर चलते हुए अच्छे उद्देश्य के लिए प्रयत्न करने लगेंगे तो इससे धर्म और सदाचार ही नष्ट होगा और तब प्राप्त हुए लाभ का कोई मूल्य न रह जायगा। अतएव सदाचार की सर्वोत्कृष्टता प्रतिपादित करने के लिए मेरा प्रायश्चित करना ही उचित है।

कुमारिल प्रायश्चित की अग्नि में जल गये, उनकी प्रतिपादित आस्था सदा अमर रहेगी।

काम करने का सही तरीका

जीवन की विभिन्न सफलता असफलताएँ मनुष्य के कर्म कौशल पर निर्भर करती हैं। मनुष्य अपने काम को कैसे करता है? इसी में उसका परिणाम छिपा रहता है। प्रयत्नपूर्वक ढूंढ़ने पर सभी को कोई न कोई काम इस संसार में मिल ही जाता है। अच्छा काम मिल जाने पर भी सफल होना मनुष्य की कर्म-साधना पर निर्भर करता है। कई लोग अच्छा काम पाकर भी उसमें कोई लाभ नहीं उठा पाते और असफल ही रहते हैं। इसके साथ ही ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो अपने साधारण से कार्यों से जीवन में असाधारणता प्राप्त कर लेते। सभी छोटे-बड़े काम अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं किन्तु उन्हें करने की कुशलता पर ही उनका महत्व निर्भर करता है। अपने कार्य में की जाने वाली छोटी-छोटी भूलों से मनुष्य बड़े और महत्वपूर्ण कार्यों द्वारा भी जीवन में विशेष लाभ नहीं उठा सकता।

अपने काम को टालने की प्रवृत्ति, काम से बचने, जी चुराने की आदत कार्यकर्त्ता की महत्वपूर्ण बुराई हैं। यह एक तरह की चोरी ही हैं। काम की वर्तमान आवश्यकता को निमन्त्रण देना है। अपने दफ्तर के काम को आगे के लिए टालने वाले आलसी कर्मचारी जब कुछ ही दिन में अपने सामने काम का बहुत बड़ा ढेर इकट्ठा कर लेते है। तो वही उनके लिए सरदर्द बन जाता है। इस पर भी ऑफीसर की फटकार नाराजगी सहन करना यहाँ तक कि अपने काम से भी हाथ धो बैठने की नौबत आ जाती है। अपने वायदे, सौदे, लेन-देन आदि को आगे के लिए टालने वाले व्यापारी का काम-धन्धा चौपट हो जाय तो इसमें कोई सन्देह की बात नहीं है। फसल की सामयिक आवश्यकताओं को तत्काल पूरा न कर आगे के लिए टालने वाले किसान को फसल का चौपट होना स्वभाविक ही है।

जो विद्यार्थी वर्ष के अन्त तक अपनी परीक्षा की तैयारी का प्रश्न टालते रहते हैं, सोचते हैं “अभी काफी समय पड़ा हैं फिर पढ़ लेंगे” वे परीक्षा-काल के नजदीक आते ही बड़े भारी क्रम को देखकर घबरा जाते हैं और कुछ भी नहीं कर पाते फलतः उनकी सफलता की आशा दुराशा मात्र बनकर रह जाती है। कुछ भाग दौड़ करके सफल भी हो जाये तो भी वे दूसरों से निम्न श्रेणी में ही रहते हैं। उन्हें सफलता का वास्तविक आनन्द नहीं मिलता। सफलता का सन्तोष आनन्द तो उस काम को पूरी-पूरी दिलचस्पी और लगन के साथ करने में ही मिलता है।

कई लोगों में अच्छी प्रतिभा, बुद्धि होती है शक्ति सामर्थ्य भी होती है, उन्हें जीवन में उचित अवसर भी मिल जाते हैं किन्तु कार्य को टालने की गन्दी आदत से वे अपनी इन विशेषताओं से कोई लाभ नहीं उठा पाते और वे अपनी हीन अवस्था में ही पड़े रहते हैं। जिन्दगी को बोझे की तरह ढोते रहते हैं। व्यापारी कलाकार साहित्यकार, किसान आदि स्वतन्त्र पेशे के लोगों के लिए तो काम को आगे के लिए टालते रहना तत्काल ही दुष्परिणाम पैदा कर देता है। व्यापारी को हानि उठानी पड़ती है। कलाकार का गया हुआ समय जिसमें वह नव रचना, नव सृजन करके जीविका उपार्जन करता, प्रसिद्धि प्राप्त करता, वह लौटकर फिर कभी नहीं आता। किसान को टालने और कामचोरी की आदत से अपनी चौपट फसल को देखकर रोना पड़ता है, जब कि उसके दूसरे साथी पकी फसल को उल्लास के साथ काटते हैं और ‘प्रसन्न हो उठते हैं।

कई काम ऐसे भी होते हैं जिन्हें नहीं भी करना पड़ता। किन्तु उनके लिए भी दूसरे लोगों की तरह कल, परसों करने का बहाना लेना, फिर न कर पाना और आग के लिए टाल देना अपनी तथा दूसरों की बड़ी हानि करता है। जो नहीं करना है उसके लिए स्पष्ट मना ही कर देना चाहिए। टालमटूल, बहाने वाली, अपनी आदत को खराब करना और दूसरों को परेशान करना ही है, जिससे सदैव बचा जाना चाहिए। कार्य की उपयोगिता और महत्ता की दृष्टि से कुछ काम पहले किये जा सकते हैं। कम महत्व के कामों को बाद में भी किया जा सकता है। किन्तु काम को आगे के लिए टालना, जी चुराना, बचना ऐसी बुरी आदत है जिससे प्रभावित होकर मनुष्य जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण क्षणों को भी टालने लगता है। वस्तुतः आलस्य और अकर्मण्यता का ही संशोधित रूप काम को टालना है, जिससे सफलता की आकाँक्षा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बचना ही चाहिए।

काम को टालने की आदत की तरह ही दूसरों के ऊपर अपने काम को छोड़ बैठना भी मनुष्य की असफलता का कारण बन जाता है। जो व्यक्ति अपने छोटे बड़े कामों की पूर्ति की आशा अपने नौकरों तथा सहयोगियों से ही रखते हैं उनके काम कभी अच्छे और सम्पूर्ण नहीं होते। अधिकाँश नौकर काम को एक बोझ-सा समझकर, उसे उल्टा सीधा करके अपना वक्त गुजारने की धुन में रहते हैं। अथवा मालिक को बहकाया करते हैं। नौकरों की ही तरह सच्चे सहयोगियों का मिलना आज के समय में दुर्लभ है। इस तरह नौकरों और सहयोगियों पर छोड़े जाने वाले काम अच्छी तरह सम्पन्न नहीं हो पाते। इसके साथ ही स्वयं मालिक को अपने कामों के बारे में ही जानकारी नहीं होती जिससे मौका पड़ने पर नौकरों का ही मुँह देखना पड़ता है। कुल मिलाकर दूसरों पर छोड़े जाने वाले काम अच्छी तरह सम्पन्न नहीं होते और इसी से उनसे मिलने वाला लाभ भी नहीं मिलता। नौकरों से खेती कराने वाले किसान को अपनी आधी उपज से भी कम ही हाथ लगती है। नौकरों पर सर्वथा काम छोड़ देने वाले व्यापारी का व्यापार एक दिन चौपट हो जाय तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं है। वस्तुतः एक नौकर अथवा दूसरे व्यक्ति में काम के प्रति वह हमदर्दी, आत्मीयता अपनेपन की भावना नहीं होती जो स्वयं मालिक में होती है और अपनेपन की भावना, हमदर्दी से ही काम ठीक-ठीक तरह से सम्पन्न होता है।

अपने पैरों पर चलकर ही सफलता की मञ्जिल मिलती है और उसी से सफलता का आनन्द सन्तोष लाभ उठाया जा सकता है। स्वयं काम करने की आदत से विभिन्न विषयों का ज्ञान होता है। क्रियाशक्ति जाग्रत होती है। श्रम का प्रफुल्लता प्रदायक गौरव, महत्व मनुष्य में नव-उत्साह नव-शक्ति का संचार कर देता है। छोटे बड़े सभी कामों का महत्व मालूम पड़ता है। काम में लगे रहने पर शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का विकास होता है जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व पुष्ट होता है। मनुष्य की विभिन्न प्रवृत्तियाँ भी कर्म के द्वारा निरोधित होकर उनका संशोधन होता है। मनुष्य की शक्तियाँ रचनात्मक कार्यों में लगने की अभ्यस्त हो जाती है।

शारीरिक और मानसिक क्षमता के ऊपर भी कार्यभार निर्भर करता है। असाधारण क्षमता शक्ति सम्पन्न व्यक्ति अनेकों कार्यों में उलझे हुए रहकर भी उन्हें ठीक-ठीक तरह से सम्पन्न कर सकते हैं। सामान्य क्षमता वालों को जहाँ तक बने एक समय में एक ही काम पूरा करना चाहिए। इसी तरह एक काम के करते हुए दूसरे काम की चिन्ता फिक्र भी नहीं करनी चाहिए। इससे वर्तमान काम ठीक-ठीक तरह नहीं किया जा सकता साथ ही चिन्ता आदि से मनुष्य की क्षमतायें नष्ट हो जाती हैं। इस तरह कोई भी काम भली-भाँति सम्पन्न नहीं होता। इस तरह कामों के बिगड़ने से झुँझलाहट, घबराहट, चिड़चिड़ापन पैदा हो जाते हैं। एक समय एक ही काम किया जाय और वह भी पूर्ण एकाग्रता तथा उत्तमता के साथ।

दैनिक-जीवन में जहाँ तक बने एक ही काम को बहुत देर तक न किया जाय। एक ही काम लगातार काफी समय तक करते रहने पर उसमें दिलचस्पी कम होने लगती है। थकावट भी पैदा होती है। जिससे काम का भली-भाँति सम्पादन रुक जाता है। काम में गड़बड़ी पैदा होने लगती है। अतः दिनभर के कामों का एक क्रम-अन्तर रखना चाहिए। जैसे लिखने पढ़ने के बाद बाजार से सामान आदि लाना, कोई हल्के श्रम का काम चुन लेना चाहिए या सफाई व्यवस्था आदि। इस तरह दिनभर के कामों का एक क्रम और व्यवस्था बनाकर काम करने वाला सोते समय तक ताजा और तन्दुरुस्त, स्वरूप रहता है। जो उठते ही बिना सोचे समझे अन्धाधुन्ध अपने सामने आये उसी श्रम में पिल पड़ते हैं उनके कई महत्वपूर्ण कार्य अधूरे ही पड़े रह जाते हैं और बहुत से किये ही नहीं जाते। जल्दी ही थकावट, उकताहट, मानसिक क्लेश घबराहट आदि पैदा हो जाते हैं।

दासी का पुत्र-जार्ज कार्वर

नीग्रो वैज्ञानिक जार्ज वाशिंगटन कार्वर ने कृषि और वनस्पतियों के सम्बन्ध में जो गवेषणाएं की हैं वे विज्ञान-जगत में चिरस्मरणीय रहेंगी। संसार भर में उनकी खोजों को बड़े आदर के साथ देखा गया और कृषि क्षेत्र में भारी लाभ उठाया गया। इंग्लैण्ड की ‘लायल सोसाइटी’ ने उन्हें अपना ‘फैलो’ बनाया और उनकी सेवाओं के उपलक्ष में ‘स्पिगार्न पदक’ प्रदान किया। अमेरिका की सरकार ने उन्हें संयुक्त कृषि अधिकारी नियुक्त किया।

एक नीग्रो बालक को अमेरिका में उन्नति का इतना अवसर मिल जाना आश्चर्यजनक है। जिस प्रकार भारत के सवर्ण हिन्दू अछूतों से घृणा करते हैं उसी प्रकार अमेरिकी गोरों में भी काले नीग्रो लोगों के प्रति घृणा भाव मौजूद है। ये उनकी उन्नति की सहन नहीं कर पाते। मनुष्य के अहंकार का यह कैसा विचित्र रूप है कि वह स्वयं तो अच्छी स्थिति में रहना चाहता है पर दूसरों को उस स्थिति में आने की बात सुनकर कुढ़ता है और केवल इतनी-सी बात पर आग बबूला होकर उन पिछड़े लोगों को तरह-तरह के त्रास देता है। हिन्दू सवर्णों की तरह अमेरिकी गोरे भी इस मानवीय दुर्बलता के शिकार थे। वे सुधर तो रहे हैं पर प्रगति अभी भी बहुत मन्द है।

जार्ज कार्वर अमेरिका के डायमण्ड ग्रोव गाँव में जन्मा। उसकी माता दासी थी। जिस गोरे के यहाँ कार्वर की माता गुलाम थी उसने कार्वर को भी एक घोड़े के बदले खरीदा था। पर इतनी बात अच्छी थी कि मालिक अन्य गोरों की तरह निर्दय न था। वह उनसे काम तो लेता पर उदारता का बर्ताव भी करता। एक टीन के टुकड़े पर बालक कार्वर को अक्षर ज्ञान कराया गया वह कुछ पढ़ने लिखने लायक भी हो गया। उन दिनों दूर-दूर तक नीग्रो बालकों के लिए पाठशाला न थी। बहुत दूर के एक नगर न्योशो में नीग्रो लोगों की एक पाठशाला थी। गोरों के साथ कोई काला बच्चा वहाँ पढ़ नहीं सकता था, अलग नीग्रो लोगों की पाठशालाएं सारे अमेरिका में उँगलियों पर गिनने लायक थी। उन्हें पढ़ने भी कौन देता था? वे पढ़ते भी कैसे? सामाजिक दबाव ने उनके व्यक्तित्व को चूर-चूर कर रखा था।

बालक कार्वर पढ़ना चाहता था। वह अपने मालिक के पास सतृष्ण नेत्रों से यह आशा लेकर गया कि उसे पढ़ने की स्वीकृति मिल जाय। पहले तो उसका मालिक झल्लाया पर पीछे उसका दिल पिघल गया और घर छोड़ कर चले जा सकने की इजाजत दे दी। उनके आनन्द का ठिकाना न रहा। माता का आशीर्वाद लेकर वे न्योशो चल दिये। छोटी-सी पाठशाला थी-सिर्फ एक कमरा। उसमें बन्दरों की तरह लड़के भरे हुए थे, वहाँ भर्ती तो हो गये पर खर्च कहाँ से आता। उनने धोबी का काम शुरू कर दिया। पढ़ाई के बाद बचे हुए समय में लोगों के मैले कपड़े धोने ले जाते और उससे जो मजदूरी मिलती उसी से अपना काम चलाते। उस पाठशाला में थोड़ी-सी पढ़ाई थी। जहाँ अधिक पढ़ाई की कक्षाएं यों दुष्ट गोरों की भी कमी न थी, पर ऐसे सहृदय लोग भी कुछ न कुछ होते ही हैं, जो आगे बढ़ने वालों को देखकर कुढ़ते नहीं, प्रसन्न होते हैं। उनके मार्ग में रोड़ा नहीं बनते वरन् सहायता करते हैं। ऐसे लोग कार्वर को हर जगह मिलते रहे और उसको ज्ञान पिपासा की परितृप्ति का मार्ग मिलता ही रहा।

इस भटकते विद्यार्थी ने स्कूली शिक्षा पूर्ण कर ली, अब उसे कालेज में पढ़ने की आकाँक्षा थी। हाईलेण्ड विश्व-विद्यालय में उसने दाखिला लेने के लिए अर्जी दी। वहाँ प्रवेश अधिकारी के सामने वह उपस्थित हुआ तो उसने काले नीग्रो बालक को भर्ती करने से इन्कार कर दिया। कई जगह टक्कर खाने के बाद इण्डिया बोला के सिम्पशन कालेज में कई शर्तों के साथ असमंजसपूर्ण दाखिला मिला। उनकी शिष्टता, प्रतिभा और लगन से सभी अध्यापक सन्तुष्ट थे। गोरे लड़के जो आरम्भ में उन्हें चिड़ाया करते थे वे भी धीरे-धीरे उदार हो गये और उनके साथ भलमनसाहत का व्यवहार करने लगे।

कार्वर ने अपनी पढ़ाई जारी रखी। सिम्पशन कालेज की शिक्षा पूरी करके वे कृषि विज्ञान के आइओवा स्टेट कालेज में भर्ती हुए और यहाँ की शिक्षा पूरी करने के बाद वे वहीं अध्यापक भी हो गये। अब उन्हें अवकाश भी था। उन्होंने कृषि सम्बन्धी अनेक गवेषणाएं आरम्भ कर दीं। घूम कर किसानों को समझाते। साथ ही उन बातों को कार्यान्वित कराने के लिए स्वयं भी किसानों के खेतों में मजदूर की भाँति जुट जाते। इनकी गवेषणाओं से उस क्षेत्र के किसानों ने बहुत लाभ उठाया। वे कहा करते थे कि यदि किसान वैज्ञानिक जानकारियों से लाभ उठावें तो दो महीने के परिश्रम से साल भर के खर्च लायक अन्न उत्पादन कर सकते हैं।

मूँगफली के सम्बन्ध में उन्होंने विशेष खोज की। उन्हें अपनी खोजों के सम्बन्ध में काँग्रेस को जानकारी देने के लिए बुलाया गया। जब वे अपने बड़े-बड़े थैले बाँधे हुए सदन में उपस्थित हुए तो उनकी वेश-भूषा और रंग-ढंग को देख कर उन्हें कोई झक्की एवं सनकी समझा गया और बोलने के लिए केवल दस मिनट दिये गये। पर जब उनने अपनी बात कहनी शुरू की और उन अद्भुत खोजों का परिचय दिया तो पौने दो घण्टे तक सभी सदस्य उनकी बात को बड़े ध्यानपूर्वक सुनते रहे और बहुत प्रभावित हुए। उनकी खोजों से अमेरिका के कृषि-विभाग ने बहुत लाभ उठाया।

कार्वर एक ऋषि थे-पक्के आदर्शवादी। लोगों ने उनसे कहा- अपनी खोजों को वे पेटेण्ट करालें और उससे लाभ उठावें, तो उन्हें प्रचुर धन मिल सकता है। पर उन्होंने ज्ञान के लाभ को इस प्रकार सीमाबद्ध करना अस्वीकार कर दिया। ऊँचे वेतन के लिए कई जगहों से निमन्त्रण आये पर उन्होंने अपने अनुसन्धान क्षेत्र को छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाने से भी साफ इन्कार कर दिया और जीवन भर नीग्रो जाति की सामाजिक स्थिति सुधारने तथा सर्वसाधारण को कृषि विज्ञान की आर्थिक जानकारी उपलब्ध कराने के अपने मिशन में दत्तचित्त होकर लगे रहे। यही उनकी आकाँक्षा थी और इसी में उन्हें सन्तोष था।

जार्ज कार्वर जब मरे तब उनने अपनी बचत की जीवन भर की कमाई का एक ट्रस्ट बना दिया जिसका नाम था-’कार्वर फाउण्डेशन’ इस संस्था के द्वारा नीग्रो युवकों को विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने में सुविधा तथा सहायता उपलब्ध होती है।

एक दासी पुत्र का जो घोड़े के बदले खरीदा गया था, उस समाज में जहाँ उसकी जाति को अस्पर्श समझा जाता हो, इतनी उन्नति कर सकना साधारणतः आश्चर्यजनक और बहुत कठिन लगता है। पर जो लोग जानते हैं कि अन्तःकरण की प्रबल आकाँक्षा, सच्ची लगन और उसके अनुरूप क्रियाशीलता में कितना बल होता है वे कार्वर के जीवन को एक साधारण घटना मानते हैं। व्यक्ति का अस्तित्व महान है वह अपनी महानता को पहिचाने तो महान कार्य भी कर ही सकता है।


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