मधु संचय (Kavita)

April 1964

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मेघ-सा झर-झर बरस जो नेह से जग सिक्त कर दे, फूल-सा खिल, सुरभि बिखरा जो स्वयं को रिक्त कर दे,

देवता पत्थर नहीं हैं, मनुज में ही देवता है,

आंसुओं के अर्घ्य से जो मनुज को अभिषिक्त कर दे, चीर कर चट्टान जो आगे बढ़ा निर्झर वही है।

जो हिमालय-सा उठे जीवन-धरा पर नर वही॥

-नर्मदा प्रसाद खरे

श्रेय होगा मनुज का समता-विधायक ज्ञान,

स्नेह सिंचित न्याय पर नव-विश्व का निर्माण।

एक नर में अन्य का निःशंक, दृढ़ विश्वास,

धर्मदीप्त मनुष्य का उज्ज्वल नया इतिहास।

साम्य की वह रश्मि, स्निग्ध, उदार,

कब खिलेगी,कब खिलेगी विश्व में भगवान?

कब सुकोमल ज्योति से अभिषिक्त-

हो, सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण?

-रामधारी सिंह दिनकर

क्यों न बुझे दीप रात भर का जो स्नेह सजाए।

नश्वर है वह दीप स्नेह के बल पर जो लहराए। बंधता है कब लीक विभा की बाती के बन्धन में,

अग्नि-शिक्षा कब बंधती कर रहती अँगारों के तन में। दीपक बढ़ते हैं, प्रकाश केवल फैला करता है।

बुझ जाते हैं दीप, कभी आलोक नहीं मरता है॥

-अञ्चल

युगनायक, प्रतिभा-विभूतिनय,

तुम न कठिन पथ अपना छोड़ो,

सस्ती तृप्ति करने की,

दुर्बलता से तुम मुख मोड़ों।

तोड़ो मोह-शृंखला, छोड़ो,

मिथ्या, स्वप्न-सृष्टि का चित्रण,

जग मन की जागरण-ज्योति में,

करो सत्य का उज्ज्वल दर्शन। -जगन्नाथ प्रसाद ‘मिलिन्द’

-जगन्नाथ प्रसाद ‘मिलिन्द’

कौन कहता है कि अपना पाव कर सकते नहीं हो,

बल थका, अब विश्व का कल्याण कर सकते नहीं हो, हम उन्हें देते चुनौती भ्रम जिन्हें यह हो गया है,

और जो कहते कि ‘युग-निर्माण’ कर सकते नहीं है।

यदि किया साहस दनुजता-

- के घरौंदे तोड़ डाले-

तो असुरता का सभी श्रम दूर होकर ही रहेगा।

पाँव पाये है, चलो, जब तक न मंजिल पास आये, हाथ पाये हैं सृजन के हेतु, जो जग को हँसाये,

क्या मिला यदि चार दिन के सौख्य के साथी बने तो, व्यर्थ ही जीवन गया जिसने न गति के गीत गाये।

हो अकेले तो हुआ क्या-

दो अगर दस को उजाला-

तो अँधेरी रात का तुम दूर होकर ही रहेगा,

-बलरामसिंह सरदार

मिली राह में मुझे सफलता, बोली-कवि रुक जाओ। पहिना कर जयमाल तुम्हें-वर लूँ, यदि कुछ झुक जाओ।

सुमन समर्पित करने चरणों में वह झुकी, लजाई। पूजा-थाल उठा कर उसने फिर आरती सजाई॥ यौवन ने बचपन को पाया, थी ऐसी निधि पाई।

भरना चाहा जब बाहों में सहसा यह ध्वनि आई॥ साथ नहीं झुक सकता चाहे तुम मंजिल बन आओ। असफलता है मेरी सहचरी, बन पाओ तो आओ॥

-रामस्वरूप खरे

आँधियाँ चाहे उठाओ, बिजलियां चाहे गिराओ,

जल गया है दीप तो अंधियार ढलकर ही रहेगा।

रोशनी पूँजी नहीं है जो तिजोरी में समाये,

वह खिलौना भी न जिसका दाम हर ग्राहक लगाये,

वह पसीने की हँसी है वह शहीदों की उमर है,

जो नया सूरज उगाए, जब तड़प कर तिलमिलाए,

उग रही लौ को न टोको, ज्योति के रथ को न रोको,

यह सुबह, का दूत हर तम को निगल कर ही रहेगा।

-नीरज

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना


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