अन्तरात्मा की सच्ची प्रार्थना

April 1964

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प्रार्थना मनुष्य-जीवन का ध्रुव तारा है। उसे नितान्त आवश्यक नित्य कर्मों में भी सबसे आवश्यक समझा जाना चाहिए और शरीर निर्वाह के अन्य कार्यों की उपेक्षा करके भी प्रार्थना को प्रमुखता देनी चाहिए। भोजन न मिलने से शरीर को ही भूखा रहना पड़ेगा पर प्रार्थना का अभाव रहने से तो आत्मा की प्रगति ही रुक जायगी। हम शरीर नहीं आत्मा हैं। इसलिए शरीर की उपेक्षा करके भी आत्मा की आवश्यकताओं को प्रमुखता मिलनी चाहिए। शरीर की शुद्धि के लिए स्नान और वस्त्रों की सफाई के लिए साबुन जितना आवश्यक हैं उससे भी अधिक उपयोगिता आत्मिक शुद्धि के लिए प्रार्थना की है। उसमें ने तो आलस्य करना चाहिए और न प्रमोद। प्रार्थना की उपेक्षा जीवन के सर्वोत्कृष्ट स्वार्थ का तिरस्कार करने जैसी भूल हैं। इस भूल के लिए जितना पश्चाताप करना होता हैं उतना और किसी के लिए नहीं।

नियत निर्धारित समय पर शरीर, वस्त्र और स्थान शुद्धि के साथ, पूजा उपकरणों की सहायता से विधिवत उपासना की जा सके तो सर्वोत्तम है। पर यदि किसी कारणवश वैसा न बन पड़े तो प्रातः नींद खुलने से लेकर शैया त्याग तक का जो समय मिलता है, उसमें पूर्व-संध्या और रात को सोते समय शैया पर जाने से पहले निद्रामग्न होने तक का जो समय मिलता है उसमें उत्तर-संध्या की जा सकती है। यह दोनों समय हर व्यक्ति के पास सुविधा के रहते ही हैं। व्यस्तता का बहाना इन क्षणों के लिए तो बनाया भी नहीं जा सकता। प्रार्थना के लिए यह समय सर्वोत्तम है। नियमित उपासना करने वालों की भाव प्रार्थना तो इस समय भी होनी चाहिए। मानसिक उपासना बिना किसी पूजा उपकरण एवं शुद्धि के भी चारपाई पर पड़े-पड़े भी मनोभाव, श्रद्धा, विश्वास एवं ध्यान धारणा के आधार पर भी हो सकती है। इसे तो अनिवार्य ही मानना चाहिए। विधिवत उपासना जिनसे बन पड़े वे उसे भी किया ही करें।

प्रार्थना में भावना का प्रमुख स्थान है। भावना जितनी सच्ची गहरी और श्रद्धा पूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम भी होगा, इसलिए शब्दों को रटने की चिन्ह पूजा को नहीं वरन् समुचित श्रद्धा के साथ प्रार्थना की भावनाओं को अन्तःकरण में आन्दोलित करना चाहिए। दो निकटवर्ती आत्मीय जन जिस प्रकार हृदय खोल कर परस्पर वार्तालाप करते हैं उसी तरह भगवान को अपने अन्तःकरण में बैठा हुआ अनुभव करते हुए उसके सम्मुख अपने मनोभाव प्रस्तुत करने चाहिए। भगवान अपने रोम-रोम में समाया हुआ है, सांसों के साथ थिरकता हुआ बाहर आता और भीतर जाता रहता है। हृदय में उसी की धड़कन, वीर रक्त में उसी की गर्मी काम कर रही है। प्राण, चेता और भावना के रूप में वही तो अपनी प्रेरक शक्ति बना बैठा है। ऐसे अभिन्न हृदय मित्र से, स्वजन स्नेही से जी खोल कर बातें करने में संकोच ही क्यों होना चाहिए? उसके साथ जी खोलकर बातें करने में भय ही क्या है? प्रार्थना यदि भावनापूर्ण है तो वह बिना पूजा साधनों के भी उतनी ही प्रभावशाली हो सकती है जितनी विधि विधान के साथ किये गये पूजा पाठ की नियमित आराधना।

भगवान के निकट भावना का महत्व सर्वोपरि है विस्तृत कर्म काण्ड भी यदि अश्रद्धा के साथ चिन्ह पूजा की तरह भार उतारने के निमित्त किया गया है तो उसका जो फल होगा उससे वह भाव प्रार्थना श्रेष्ठ है, जो सच्चे हृदय से जी खोल कर की गई हो। नियमित उपासना का महत्व कम करने की बात किसी को सोचनी भी न चाहिए। यहाँ ऐसा कुछ नहीं कहा जा रहा है कि नियमित विधिवत् साधना बन्द करके केवल ध्यान प्रार्थना ही करते रहा जाय यह तो घाटे की बात होगी। नियमित साधना का अपने स्थान पर अपना महत्व है। उससे एक प्रकार का योगाभ्यास होता है। सूक्ष्म शरीर के चक्रों और उपत्यकावडडडडडडडडड का जागरण होता है और संस्कारों में दृढ़ता आती है। हमारे घरों में पूजा, आरती, योग प्रसाद जप, तप, और ध्यान का कार्यक्रम चलते ही रहने चाहिए। यह स्थान, जिसका, उल्लेख इन पंक्तियों में किया जा ऐसा है कि उसे प्रातः साँय उठते सोते तो करना ही चाहिए अन्य किसी अवकाश के समय में भी किया जा सकता है।

हम प्रार्थना करें :-

‘हे भगवन् आप सर्वत्र समाये हुए हैं, कोई स्थान आपकी उपस्थिति से रिक्त नहीं, जड़ चेतन में आपकी ही सत्ता प्रकाशवान हो रही है। अन्य प्राणियों की भाँति मेरे कण-कण में भी समाये हुए हैं। संसार भर में जो कुछ हो रहा है उससे आप परिचित हैं। अन्तःकरणों में बैठे हुए सब की भावनाओं को आप जानते हैं। मेरी प्रत्येक गतिविधि और भावना विचारणा का आपको भली भाँति परिचय है। इस विश्व में कुछ भी ऐसा नहीं जो आपसे छिपा हो।”

“आप निष्पक्ष और न्यायकारी हैं। आपको सभी मनुष्य, सभी प्राणी समान रूप से प्रिय हैं। आप सबके पिता हैं इसलिए सभी प्राणी आपको समान रूप से पुत्रवत् प्रिय होने स्वभाविक हैं। आप सब सुव्यवस्था के लिए न्याय तुला को आपने जो पुण्य विधान बनाया है वह सबके हित का होने से सब प्रकार उचित और उपयुक्त हैं। आप न्याय की रक्षा करने में तनिक भी विचलित नहीं होते। किसी के साथ पक्षपात नहीं करते। कर्म फल के अनुसार सबको दुःख सुख का उचित दंड, पुरस्कार देते हैं इसमें आपकी करुणा, न्यायशीलता और निष्पक्षता ही सन्निहित है।”

“सत्कर्म ही आपकी सबसे बड़ी पूजा है। सद्भावनाओं के पुण्य ही आपको प्रिय हैं। सद् विचारों में ही आपको अपनी सच्ची भक्ति की प्रतीत होती है। आपके बनाये हुए नियमों को कर्तव्यनिष्ठ होकर जो दृढ़तापूर्वक पालन करता है, लोभ और भय से विचलित होकर जो अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करता, उसके सदाचार रूपी भजन को ही आप मान देते हैं। ऐसा भजन करने वाला भक्त ही आपकी विशेष कृपा का अधिकारी बनता है।”

“दूसरों को सताने या ठगने वाला वस्तुतः अपने आपको ही सताता और ठगता है, क्योंकि आप ही सबमें विद्यमान होने के कारण उस अनाचार के शिकार होते हैं। प्राणियों के प्रति सद्भाव रखना और सद्व्यवहार करना वस्तुतः आपकी ही अर्चना वन्दना करना है। अपने पुत्रों के साथ सज्जनता का व्यवहार करते देखकर ही आप किसी को अपना भक्त मानते हैं। ठीक भी है पिता उसी से तो विशेष प्रसन्न होगा जो उसके पुत्रों के प्रति कर्तव्य से भी अधिक बढ़कर उदारता की श्रेणी का सद्व्यवहार करने का साहस करेगा। प्राणियों के साथ दुर्व्यवहार करके जिसने नीचता का परिचय देते रहने का क्रम बना लिया हैं वह आपको शूल चुभाने वाला किस मुँह से यह आशा करेगा कि आप उस पर प्रसन्न होंगे।

“ख्याति और बड़प्पन या अन्य प्रकार का भौतिक प्रतिफल पाने के लिए किये गये धर्म आडम्बर आपको प्रिय नहीं। आप कर्ता की भावनाओं को परखते हैं। इसलिए परमार्थ केवल उसे ही मानते हैं जो निस्वार्थ एवं उद्दात्त भावनाओं से प्रेरित होकर किया गया है। ऐसे ही सत्कर्मों की आप पुण्य में गणना करते है और उसी आधार पर किसी को पुण्यात्मा मानकर सद्गति प्रदान करते हैं।”

“कर्तव्य पालन में चट्टान की तरह अडिग व्यक्ति आपको परम प्रिय हैं। प्रलोभनों में असंयम में पड़कर भी जो अपने शील को सुरक्षित रखता है उस आत्म विजेता से आप प्रसन्न रहते हैं। जो पाप के अतिरिक्त और किसी से नहीं डरता उस निर्भय को आप प्यार करते हैं। आपत्तियों से जो भयभीत नहीं होता, चिन्ता, निराशा और क्षोभ जिसे सताते नहीं, उस सज्जन और संतुलित व्यक्ति पर आपकी अनुकम्पा सहज ही होती है।”

“आप सत्य हैं आप शिव हैं, आप सुन्दर हैं। जो आपको अन्तरात्मा में धारण करता है उसकी प्रवृत्तियाँ सत्य से प्रेरित होती हैं, वह शिव, कल्याणकारक कार्य करता है और उसकी समस्त चेष्टाएं सुन्दर दीखती हैं। आप दिव्य हैं, आपको प्रेम करने वाला दिव्य गुणों वाला देवता बनता है। आप प्रेम हैं। आपकी किरण जिसके भीतर प्रतिभासित होंगी, वह सबको प्रेम की, मैत्री की, आत्मीयता एवं उदारता की ही दृष्टि से देखेगा। दूसरों के सुख-दुःख में उसे अपने ही सुख-दुख जैसी भली बुरी अनुभूति होगी।”

“आप जिस पर प्रसन्न होते हैं उसे सद्बुद्धि और सन्मार्ग पर चलने की साहसपूर्ण प्रेरणा प्रदान करते हैं। अपना स्वरूप गौरव और वर्चस्व समझ लेने पर मनुष्य विश्व विजयी बनता है। समस्त कठिनाइयों को पार कर लेना उसके लिए सरल हो जाता है। आपका प्रकाश पुरुषार्थ के रूप में जब प्रकट होता है तो मनुष्य आलस्य और प्रमाद को परास्त कर समय, धन, आहार व्यवहार, विचार आदि को नियमित एवं व्यवस्थित बना लेता है। आपका वरदान किसी के जीवन को नियमित व्यवस्था बनी हुई देखकर ही जाना जा सकता है।

“आप मानव शरीर देकर सृष्टि के समस्त प्राणियों की अपेक्षा अत्यधिक श्रेष्ठ उपहार हमें दे चुके, अब एक वस्तु विशेष उपहार हमें देने के लिए शेष है। उसे पाने का अधिकारी हमें बनाइये। ऐसी कृपा कीजिए कि हम मानव अन्तःकरण प्राप्त कर सकें। नर-पशु से ऊँचे उठकर गुण कर्ण स्वभाव की दृष्टि से सच्चे मनुष्य बन सकें। जिस दिन हम सच्चे मनुष्य बन सकेंगे उसी दिन आपकी कृपा मिलेगी और हम इसी जीवन में शरीरधारी रहते हुए भी जीवन-मुक्ति का आनन्द लेते हुए लक्ष्य की पूर्णता और इस जन्म की सार्थकता अनुभव करेंगे।”

“प्रभो। हमें सन्मति दीजिए साहस दीजिए, और सज्जनता के पथ पर ले चलिए। आप के पास यही सर्वश्रेष्ठ उपकार वरदान हमारे लिए हो सकता है, तो हमें इस योग्य बनने की शक्ति दीजिए कि अपने आचरणों से आप को प्रसन्न करके यह अनुग्रह प्राप्त कर सकें। भगवन्! हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलिए, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलिए, मृत्यु से अमृत की ओर ले चलिए। हमारा कल्याण कीजिए और इस समस्त संसार का कल्याण कीजिए।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः


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