महत्वाकांक्षाओं का पागलपन

April 1964

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वित्तेषणा, पुत्रेषणा और लोकेषणा की तृष्णा, वासना अहंता से विक्षुब्ध हुए मनुष्य उन उत्पाती पागलों का रूप धारण कर लेते हैं जो न स्वयं चैन से रहते हैं और न दूसरों को चैन से रहने देते हैं। महत्वाकाँक्षी व्यक्ति अपने लिए विशेष लाभ भले ही प्राप्त कर लेते हों, पर जन समाज के लिए वे संकट रूप हो बने रहते हैं। असंतुष्ट जीवन में जीने का कोई आनंद नहीं। जो कुछ हमें मिला है उस पर सन्तोष गर्व और उल्लास करते हुए यदि आज आनंद नहीं मना सकते हैं तो कल यदि आज से अधिक मिल जाय तो सुखी बन सकेंगे इसका क्या भरोसा? तृष्णा तो हर सफलता के बाद आग में घी डालने की तरह बढ़ती ही जाती है। इसलिए जिन्हें निरन्तर लालसाओं, कामनाओं की आग में झुलसना हो, उन्हीं को अपनी मनोभूमि में असन्तोष रूपी जीवित चिता सँजो लेनी चाहिए।

समाज सेवा, परमार्थ, आत्म-विकास, विद्याध्ययन, भौतिक उन्नति का प्रत्येक कार्य देर तक कर सकना उन्हीं के लिए संभव होता है जो धैर्यवान और स्थिर चित्त हैं और यह दोनों गुण केवल उन्हें प्राप्त हो सकते हैं जो अपनी आज की उपलब्धियों पर सन्तोष अनुभव करते हुए कल अधिक उन्नतिशील बनने का अपना एक सरल स्वाभाविक कर्तव्य मानते हैं। संसार में अनेक धन है पर सन्तोष का धन सबसे बड़ा धन है। कबीर की वह उक्ति बड़ी सार गर्भित हैं जिसमें कहा गया है,-”जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समान।” यह धन जहाँ भी होगा वहाँ आनंद की निर्झरिणी बहेगी। पति-पत्नी यदि आपस में संतुष्ट हैं तो उन्हें स्वर्गीय जीवन का रस इसी जीवन में उपलब्ध होगा। गाँव के लड़के पढ़-लिखकर शहरों को भागते हैं यदि उन्हें ग्राम्य जीवन में सन्तोष रख सकने का साहस हो तो वे शहरी तड़क-भड़क में अपने स्वास्थ्य की बर्बादी करने की अपेक्षा ग्रामीण समाज को और अधिक अच्छा बनाने के लिए उसी क्षेत्र में रहकर अपनी और अपने देहाती भाइयों की बहुत बड़ी सेवा कर सकते हैं।

हर व्यक्ति अपने गुण, कर्म, स्वभाव का अधिकाधिक विकास करे यह उचित है। अधिक विद्वान बनना, अधिक सेवा भावी होना अधिक चरित्रवान रहना, अधिक सभ्य सुसंस्कृत एवं आदर्शवादी होना किसी भी व्यक्ति के लिए कम गौरव की बात नहीं है। यही महत्वाकाँक्षाएँ उचित है और उपयोगी भी। उन्हीं की छूट हर आदमी को रहनी चाहिए। पर अधिक धन जमा करने की, अधिक ऐश करने की अधिक, वाहवाही लूटने के लिए उद्धत काम करने की छूट किसी व्यक्ति को न हो। इसके लिए कानूनी या नैतिक नियंत्रण रहे तो यह सर्वथा उचित ही होगा।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण, सन्तोष का दृष्टिकोण है। उसमें हर व्यक्ति को धैर्य और औचित्य के साथ साथ प्रगति करते चलने की छूट है पर जन साधारण के मध्यम स्तर से बहुत अधिक ऊँचा बढ़ने का निषेध है। जिनमें जो योग्यताएं हों वे उन्हें अपने से छोटे या पिछड़े हुए साथियों को उन्नतिशील बनाने में खर्च करें। और जिस प्रकार फौजी सिपाही साथ-साथ कदम से कदम मिलाते हुए एक-सी पोशाक और वर्दी धारण करते हुए मार्च करते चलते हैं उसी प्रकार हमें भी अपने सारे समाज को एक समान विकसित करते हुए साथ-साथ आगे बढ़ने की बात सोचनी चाहिए।

भगवान बुद्ध जब मरने लगे और उनसे पूछा गया कि क्या आपको इस मृत्यु के बाद स्वर्ग या मुक्ति की प्राप्ति होगी तो उन्होंने हँसकर कहा-”जब तक एक भी व्यक्ति इस संसार के बंधन में बँधा हुआ है तब तक में अपनी व्यक्तिगत सुख आकाँक्षा की कामना नहीं कर सकता। मैं बार-बार जन्मूँगा और मनुष्य और हर प्राणी को अपने स्तर का बनाने के लिए सृष्टि के अन्त तक प्रयत्न करता रहूँगा।” यही है आध्यात्मिक साम्यवाद। सभ्य व्यक्ति का, सभ्य समाज का यही आदर्श होना चाहिए। व्यक्ति को क्षमता एवं प्रतिभा ईश्वर ने इसी उद्देश्य के लिए दिए हैं कि वह अपने से पिछड़े लोगों को कम से कम अपने स्तर तक ऊपर उठाने में उसका उपयोग करे। गुजर-बसर के बारे में जो जितना संयमी रहता है और स्वेच्छा से गरीबी का जीवन स्वीकार करता है वह उतना ही बड़ा माना जाता है। भारतीय संस्कृति का यही सनातन आदर्श रहा है। ऋषि, मुनि स्वेच्छा से गरीबी का जीवन व्यतीत करते रहे हैं। जन समाज में भी वहीं प्रशंसनीय है जो अपनी व्यक्तिगत भौतिक सुख सुविधाएँ इकट्ठी करने में नहीं, अपनी सामर्थ्य से दूसरों को सुखी बनाने में एक श्रेष्ठ सत्पुरुष की तरह संलग्न है। भारत की आत्मा एक ही स्वर में पुकारती रही है-

मत्वहं कामये राज्ये न सौख्यं न पुनर्भयम।

कामये दुःख तप्तानाँ प्राणिनामार्तनाशनम्॥

मैं अपने लिए राज्य की, सुख की, स्वर्ग की कामना नहीं करता मेरी एक मात्र आकाँक्षा यही है कि दुखियों के दुख दूर करने में अपने को घुला और गला सकूँ।

यह आदर्श जिन्होंने जीवन में धारण किया हुआ वे ही विश्व शान्ति के स्तम्भ बन सकते हैं। उन्हीं की संख्या बढ़ने से यह वसुधा अपने को धन्य मान सकती है। ऐसे ही नर रत्नों से यह संसार गुलाब के महकते फूलों से भरे बगीचे की तरह सुरक्षित हो सकता है। उन्हीं की परमार्थ बुद्धि का लाभ उठाकर छोटे-छोटे अनेकों को आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। चंदन का वृक्ष अपनी सुगन्धि से अपने समीपवर्ती अनेक पौधों को सुवासित कर देता हैं। यही जीवन यापन की सर्वश्रेष्ठ नीति है। पर वह संभव उसी के लिए हो सकती है जो व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं की दृष्टि में अंधा और पागल नहीं हो रहा है।

जिसे दौलत ! दौलत!! दौलत!!! की निरन्तर रट लगी रहती है और इसी गोरख धंधे में मकड़ी के जाले की तरह दिन-रात उलझा हुआ ताना-बाना बुनता रहता हैं, उसे इतनी फुरसत नहीं मिलेगी जो अपने से गिरे हुओं की बात सोचे, जो अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं के सम्बन्ध में विचार करें जो आदर्शवादी जीवन-यापन करने के लिए अपने को संयमी और सीमित रखकर दूसरों को सुखी संतुष्ट बनाने के लिए कोई कदम बढ़ाने का साहस करें?

असंतोष भी सराहनीय हो सकता है पर यह होगा तभी, जब उसका उपयोग जाति-कल्याण, साधना, संयम, सेवा ज्ञानवृद्धि, परमार्थ जैसी दैवी सम्पदाओं को बढ़ाने के लिए, ज्ञानवृद्धि, परमार्थ जैसी दैवी सम्पदाओं को बढ़ाने के लिए हो। आसुरी सम्पदाएं बढ़ाने का असंतोष तो जितना ही बढ़ेगा उतनी ही अशान्ति उत्पन्न करेगा। संघर्षों की जड़ यही है। अधिकारों के लिए सब जागरुक हैं, कर्त्तव्यों की किसी को चिन्ता नहीं। हर व्यक्ति के मुँह से यही शिकायत सुनी जाती हैं कि मुझे यह नहीं मिला, यह नहीं दिया गया, इससे मैं वंचित हूँ। किसी फूटे मुँह में से यह शब्द सुनाई नहीं पड़ते कि मुझे दुनिया से इतना मिला, लोगों ने इतना दिया। हमें जो उपलब्ध है क्या वह लाखों करोड़ों की अपेक्षा कहीं अधिक नहीं है? ईश्वर ने, समाज ने, जितना हमें दिया है उसके प्रति क्या हम उपयुक्त कृतज्ञता के भाव धारण किये हुए हैं? मन में ऐसी भावना नहीं आती कि क्षणभर के लिए अपनी उपलब्धियों पर हर्ष मनाने, सन्तोष अवगत करने, कृतज्ञता प्रकट करने और धन्यवाद देने के लिए की गुंजाइश रहे। ऐसी श्मशान जैसी शुष्क मनोभूमि जिनकी बनी हुई हैं उन्हें अपने जीवन में भला कहाँ रस आ सकता है? जिन्हें हर घड़ी तृष्णा सताती रहती हैं वे उद्विग्न प्रेत, पिशाच की तरह इस मरघट से उस मरघट में भटकते रहते हैं। यह अभागे अपनी ही हीनता के मारे हुए हैं, अपनी ही अतृप्ति से दुःखी बने हुए हैं, भला इनके द्वारा किसी दूसरे का क्या हित साधन हो सकता है?

धन की तरह ही ख्याति और मान प्रतिष्ठा की महत्वाकांक्षा भी संसार में भारी विपत्ति उत्पन्न करने वाली सिद्ध होती है। पद सत्ता और अधिकार के लोभ में उतने ही अनर्थ होते हैं जितने धन लिप्सा से होते हैं। संस्थाओं के पदाधिकारी बनने के लिए, स्वयं श्रेय लाभ करने के लिए कितने ही व्यक्ति बुरी तरह लड़ते हैं, गुटबन्दी करते हैं और संस्था तथा आदर्श को भारी क्षति पहुँचाते हैं। संस्थाओं में भीतरी गुटबन्दी का कारण व्यक्तियों की श्रेय आकाँक्षा ही रहती हैं। सच बात यह है कि बिना पदाधिकारी बने कोई भी व्यक्ति किसी संस्था की अधिक ठोस सेवा कर सकता है। पर लोगों को सेवा की नहीं प्रतिष्ठा की भूख रहती है, फलस्वरूप सार्वजनिक संगठनों को कलह का अखाड़ा बनाते और दुर्गतिग्रस्त होते आये दिन देखा जाता है।

थोड़ा त्याग करके बहुत यश लूटने की लिप्सा बहुत लोगों में देखी जाती है। अखबारों में नाम और फोटो छपाने के लोभ में कई लोग सत्कर्मों का बहाना करते रहते हैं। यश मिलने की शर्त पर ही थोड़ी उदारता दिखाने वाले लोग बहुत होते हैं। कितने हो लोग इसके लिए बड़ी-बड़ी प्रवंचनाएं करते हैं, वे अपने साथी सहयोगियों के साथ विश्वासघात करने में भी नहीं चूकते। ठाठ-बाठ, फैशन, सजावट में भी यही महत्वाकाँक्षा काम करती है कि हमें बड़ा आदमी और अमीर समझा जाय। इसी उद्देश्य से लोग निरर्थक और खर्चीला आडम्बर बनाये रहते और उसके भार से दबे हुए भारी कठिनाई एवं चिन्ता सहन करते रहते हैं। भौतिक महत्वाकाँक्षाएं मनुष्य के लिए सदा ही विपत्ति साबित होती रही हैं। जो उन्हें जिस हद तक छोड़ सके उसे उतना ही बुद्धिमान मानना चाहिए।

महत्वाकाँक्षाएं यदि तृष्णा और वासना के लिए लगी हुई है तो वे व्यक्ति और समाज के लिए अहितकर ही सिद्ध होंगी। कोई व्यक्ति अधिक धनी बनकर अधिक ऐश आराम भोग कर अपनी दुष्प्रवृत्तियों को ही भड़का सकता हैं। उससे अन्ततः उसका पतन ही होगा। प्रगति और सन्तोष का एक ही सच्चा माध्यम है, वह है व्यक्तित्व का विकास। सद्गुणों को अपनाकर, संयम और सदाचार सेवा और सद्भावना की अधिकाधिक मात्रा जब अन्तःकरण में बढ़ती जाती है तो व्यक्तित्व का विकास होता है। दया, करुणा, त्याग और परमार्थ की भावनाओं को चरितार्थ करने की महत्वाकाँक्षाएं ही सच्ची और श्रेयस्कर महत्वाकाँक्षा की जा सकती है। दैवी सम्पदायें, सत्प्रवृत्तियां ही वह आध्यात्मिक विभूतियाँ हैं जिन्हें पाकर मनुष्य स्वयं भी आनंद और संतोष का लाभ करता हैं और अपने समीपवर्ती समाज को भी सुख शान्ति का आनंद देता है।

जीवन का स्तर ऊँचा उठाने का यह अर्थ गलत है कि भौतिक सुख सुविधाओं के ऐश आराम के साधनों को बढ़ाते चलें और मनुष्य जन्म की दुर्लभ विभूति को इसी में बर्बाद कर दें। जीवन जीने का आदर्श एवं दृष्टिकोण और ऊँचा उठे तो ही यह कहा जा सकेगा कि जीवन स्तर सच्चे अर्थों में ऊपर उठा है। व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं के अपने पन ने दुनिया का अनर्थ ही किया है पाप और विनाश को ही बढ़ाया है इन्हें त्याग ही जाना चाहिए। महत्वाकाँक्षाओं का सही अर्थ परमार्थ है। इसमें एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा यदि स्वस्थ रूप से चलती रहे तो इसमें अपना भी हित साधन है और समाज का भी।


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