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April 1964

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धन नहीं, मानव

पं. मोतीलाल अपने पीछे धन नहीं, एक मानव छोड़ना चाहते थे, और उन्होंने वैसा ही किया भी।

यह सुनने पर कि मोतीलालजी अपने लड़के जवाहरलाल को शिक्षा के लिए विदेश भेजना चाहते हैं, मोतीलाल जी के समकालीन तथा इलाहाबाद के प्रसिद्ध वकील श्री सुन्दरलाल ने उनसे पूछा-विदेश में जवाहरलाल की शिक्षा पर कितना व्यय होगा? मोतीलाल जी ने कहा- अनुमानतः एक लाख रु.।

श्री सुन्दरलाल ने सोचा कि यह धन का अपव्यय है। उन्होंने मोतीलालजी से कहा कि अगर आप यह राशि सुरक्षित रखे दें तो जवाहरलाल के जीवन भर काम आयेगी।

मोतीलालजी ने तुरन्त उत्तर दिया मैं अपने पीछे धन नहीं, एक मानव छोड़ना चाहता हूँ।

यह ईश्वरचंद्र विद्यासागर बहुत ही गरीब घर में जन्में थे। इनके पिता दो रुपया मासिक पर नौकरी करते थे। इतने से पैसों में उनके सारे परिवार को गुजर करनी पड़ती थी। रोशनी के अभाव में उन्हें कई बार सड़क की बत्तियों के नीचे खड़े होकर अपना पाठ याद करना पड़ता था। इतनी कठिन स्थितियों को पार करता हुआ वह बालक आगे बढ़ा और जीवन के अन्त तक जब तक कि उसकी अन्तः स्फूर्ति जागृत रही तब तक बढ़ता ही रहा। औरों के लिए भी वह रास्ता खुला हुआ ही है।

कृपया बहुत झूठ मत बोला कीजिए

गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है “नहिं असत्य सम पातक पुँजा।” असत्य के समान पापों का समूह ओर कोई नहीं है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि समस्त पाप-समूह की जड़ असत्य ही हैं तो कोई अत्युक्ति न होगी। ऋषि, मुनियों, सन्तों, श्रुति, स्मृतिकार सभी ने एक स्वर से असत्य की निन्दा की हैं। सभी धर्मों ने असत्य को पाप माना हैं, और इसे समस्त पापों की जड़ बताया है।

आज के बुद्धिवादी और वैज्ञानिक युग में प्रत्येक बात चाहे वह किसी भी महापुरुष की लिखी या कही क्यों न हो वह जब तक वैज्ञानिक परीक्षा में खरी नहीं उतरती तब तक उसे सही मानने के लिए लोग तैयार नहीं होते। किन्तु विज्ञान ने भी असत्य को मनुष्य के शारीरिक और मानसिक क्षेत्र पर दूषित प्रभाव डालने वाला, असाधारण प्रतिक्रिया पैदा करने वाला सिद्ध कर दिया है। असत्य, या झूठ बोलने से मनुष्य के मन, शरीर पर ही नहीं उसकी समस्त क्रिया, चिन्तन-प्रणाली, भावनाओं पर गहरी प्रति-क्रिया उत्पन्न होती है। इनमें असन्तुलन अव्यवस्था पैदा हो जाती है, जिससे अनेकों दुष्प्रवृत्तियों को पोषण मिलता है, बुरे कहे जाने वाले कार्यों की वृद्धि होती है। तात्पर्य यही है कि अनेकों पाप कर्मों का सूत्रपात हो जाता है और उनसे पैदा होने वाले दुष्परिणाम स्वरूप मनुष्य को नारकीय कष्ट यन्त्रणाओं का पात्र बनना पड़ता है। झूँठ के सम्बन्ध में दूरदर्शी तत्वज्ञ, जीवन विज्ञान विशारद ऋषियों की वाणी, मानव जाति को उनके निर्देश, विज्ञान की कसौटी पर भी खरे उतरे हैं।

प्रसिद्ध मानस रोग विशेषज्ञ डॉक्टर क्रुक्स ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि “अपने काम धन्धे अथवा किसी अन्य कारणवश लगने वाले कर अथवा जुर्माने को झूठ बोलकर बचा लेने वाले, दूसरे के लिए हुए पैसे को हजम कर जाने वाले व्यक्ति अपने लिए मानसिक, स्नायविक रोगों को निमन्त्रण देते हैं। इस तरह झूठ बोलने से मानसिक स्नायविक संस्थान में बड़ी गड़बड़ी और असन्तुलन पैदा हो जाता है जिससे शारीरिक स्थिति पर भी भारी प्रभाव पड़ता हैं।” विशेषज्ञ ने लिखा है कि इस तरह की चालाकी, धोखेबाजी से कुछ पैसा बचाया जा सकता है किन्तु इसके बदले होने वाली शारीरिक और मानसिक गड़बड़ी इससे कहीं अधिक हो जाती है। इन व्यक्तियों की शारीरिक अथवा मानसिक चिकित्सा की जाय तो असत्य के द्वारा कमाये हुए धन की अपेक्षा कहीं अधिक खर्च करना पड़ता है। “पाप की कमाई मूल को भी ले जाती है” “असत्य द्वारा अर्जित धन नष्ट हो जाता है” आदि ऋषि वाक्य, महापुरुषों के उपदेश भी खूब रूप में उक्त तथ्य का ही प्रतिपादन करते हैं।

मिथ्या भाषण, मिथ्याचार से शरीर और मन पर बहुत दूषित प्रभाव पड़ता है। झूठ जितना बड़ा होगा उतने ही बड़े वह दुष्परिणाम भी पैदा करता है। झूठ बोलने से मनुष्य के रक्तचाप, नाड़ी, श्वास क्रिया, पाचन प्रणाली, मस्तिष्क आदि प्रमुख अंगों पर बहुत भारी प्रभाव पड़ता है। इनमें अव्यवस्था और व्यतिक्रम पैदा हो जाता है जिससे कई शारीरिक और मानसिक रोगों को जन्म मिलता है। झूठ बोलने से मनुष्य के मानसिक क्षेत्र में द्वन्द्व पैदा हो जाते हैं। उसकी नैतिक सत्ता जो हर व्यक्ति में मूल रूप से निवास करती है, के साथ असत्य बोलने की अनैतिक क्रिया का द्वन्द्व होने लगता है। इस द्वन्द्वात्मक स्थिति में कई लोग विक्षिप्त और स्थायी मानसिक रोगी बन जाते हैं। कई बार झूठ बोलने पर मनुष्य में स्थायी रूप से असत्य बोलने की आदत बन जाती है और इससे प्रेरित हो वह अपने निकटतम सूत्रों परिवार के सदस्यों मित्रों तक से झूठा व्यवहार करने लगता है, जिससे सभी को सन्देह और विरक्ति हो जाती हैं। झूठे व्यक्ति का कोई सच्चा सहयोगी संगी साथी नहीं रहता फलतः उसका बाह्य जीवन नीरस, शुष्क, कृत्रिमता प्रधान बन जाता है जिससे वह असन्तुष्ट उद्विग्न अशान्त रहता है। इस तरह झूठ बोलने से मनुष्य का आन्तरिक एवं बाह्य जीवन असफल, झूठा प्रपंच मात्र बनकर रह जाता है।

यह भी ध्रुव सत्य है कि चाहे कितना ही छिपाकर अन्धेरे में, दीवारों के घेरे के भीतर, या चिकनी चुपड़ी लपेट कर, झूठ बोला जाय, झूठा व्यवहार किया जाय किन्तु वह एक न एक दिन अवश्य प्रकट होकर रहता ही है। विष को कितने ही शहद या गुड़ में मिलाकर दिया जाय किन्तु वह अपना दुष्प्रभाव अवश्य पैदा करता है। समाज राजनीति की बाह्य व्यवस्था से असत्य को बड़े यत्नपूर्वक छिपाया जा सकता है किन्तु विश्व नियामक सर्वव्यापी सूक्ष्म सत्ता से वह कभी नहीं छिपता और एक न एक दिन उसके दुष्परिणाम मनुष्य को स्वयं ही भोगने पड़ते हैं। जिन्होंने झूठ बोलकर दूसरों के घर बरबाद किए, उनके बसे बसाये घर भी कालान्तर में उजड़ते देखे जाते हैं। जिन्होंने झूठ बोलकर दूसरों को जाल में फँसाया वे समय आने पर स्वयं ही किसी षड़यन्त्र के शिकंजे में जकड़ लिए गये। इस तरह के उदाहरण इसी धरती पर अपने आस-पास सहज ही देखे जा सकते हैं। इतिहास इसकी मूक गवाही है।

झूठ बोलना, अपने मित्र, सम्बन्धी, सहयोगियों को अपने से दूर कर लेना है। झूठी बात झूठा व्यवहार अधिक दिनों तक नहीं छिपता वह एक न एक दिन अवश्य प्रकट हो ही जाता है और इसके साथ ही लम्बे समय की मित्रता, आत्मीयता मधुर सम्बन्धों की डोरी एक क्षणमात्र में टूट जाती है। इतना ही नहीं इस तरह की झूठ परस्पर शत्रुता, द्वेष, प्रतिशोध, तिरस्कार का कारण भी बन जाती है।

झूठ बोलने वाले व्यक्तियों का स्वभाव चिड़चिड़ा, उत्तेजित, शंकाशील हो जाता है। जितना बड़ा असत्य होगा उतना ही मानसिक स्नायविक संस्थान में तनाव पैदा हो जाता है और तनाव की स्थिति में ही उत्तेजना, चिड़चिड़ाहट, भय, सन्देह की क्रिया होने लगती है। एक परीक्षण के अनुसार अस्सी प्रतिशत चिड़चिड़े, उत्तेजित ,क्रोधी व्यक्ति वे निकले जो झूठ बोलते थे। धोखादेही करते थे। इनमें भी जिन्हें घबराहट, भय, शंका, उद्विग्नता अधिक थी वे अधिक झूठ बोलने वाले थे, परीक्षण में जो शान्त गम्भीर सन्तुलित व्यक्तित्व वाले लोग निकले वे सत्यानुरागी, निश्छल और सरल हृदय थे।

मनुष्य की सन्तुलित और सुव्यवस्थित स्थिति तभी रहती है जब वह अन्तर और बाह्य जीवन का सामञ्जस्य बनाये रखे। अन्तर में जो स्वीकार करे उसे ही बाह्य जीवन में व्यक्त करना चाहिए। मनुष्य यदि अपनी अन्तरात्मा से असत्य के लिए पूछे तो वह इसे कभी स्वीकार नहीं करेगी। प्रत्युत बार-बार रोकेगी। इस तरह आन्तरिक प्रकृति और बाह्य जीवन की गति में विरोधावस्था पैदा हो जायगी और इसी से मनुष्य अस्वस्थ, असन्तुलित, अशान्त, उद्विग्न बना रहेगा जिससे जीवन की सभी सम्भावना नष्ट हो जायगी और असफलता तथा शारीरिक मानसिक पीड़ाओं में ही अन्ततः जीवन बिताना पड़ेगा।

झूठ बोलने का एक प्रमुख कारण है कि सी सजा, दण्ड अथवा नुकसान से अपने आपको बचाने के लिए असत्य का अवलम्बन लेना। कानून के विरुद्ध चलने पर मिलने वाला दण्ड, असामाजिक कृत्यों के लिए मिलने वाली सामाजिक अथवा राजनैतिक प्रताड़ना, दुराचार, पापाचार से मिलने वाला अपमान, दण्ड, सजा आदि से बचने के लिए मनुष्य झूठ का अवलम्बन लेता है। बच्चों में भी झूठ बोलने की आदत बाप के द्वारा दिए गये दण्ड अथवा सजा से बचने के लिए ही पड़ती है और यही आदत आगे चलकर बड़े-बड़े दुष्परिणाम पैदा कर देती है।

इसके बाद झूठ बोलने का दूसरा कारण है अनुचित लाभ की आकाँक्षा का होना। लोग अपने फायदे के लिए झूठ बोलते हैं धोखाधड़ी, छल, ठगी, चालाकी, बस इसी के अंतर्गत आती है। अपना काम बनाने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए लोग झूठ का आश्रय लेते हैं। व्यापार में अनुचित नफा कमाने, टैक्स बचाने, अधिक उपभोग करने को, समृद्धि की अधिकाधिक वृद्धि करने के लिए लोग झूठ का आश्रय लेते हैं।

कई लोग अपनी प्रशंसा, बड़ाई, कीर्ति, प्रतिष्ठा के लिए झूठ, शेखी खोरी का अवलम्बन लेते हैं। अपने बारे में बड़े-बड़े पुल बाँधते हैं। लोगों में अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिए जो भी कहना, करना, बताना आवश्यक समझते हैं वह सब बिना अपनी स्थिति को ध्यान में रखे ही निस्संकोच कहने में नहीं चूकते।

अपने ऊपर कोई जिम्मेदारी लेने से बचने के लिए अथवा एकाकी वृत्ति के कारण कोई बुराई मोल न लेने, परेशानी से बचने के लिए लोग झूठ का अवलम्बन लेते हैं। कोई मनुष्य बदमाशी करता है कोई समाजिक, नैतिक नियमों की अवहेलना करता है और उसके बारे में कोई जाँच पड़ताल हो तो सरासर देखने वाले भी झूठ बोले देते हैं। लोग सोचते हैं क्यों परेशानी में पड़ें।

स्त्रियों की अपेक्षा मनुष्य अधिक झूठ बोलते हैं। ढलती उम्र और वृद्धता के साथ ही मनुष्य झूठ कम बोलने लगता है। जिन्हें जीवन व्यवहार सीखने का, शिक्षा दीक्षा का अवसर नहीं मिला वे लोग भी अधिक झूठ बोलते है। इनमें से अधिकाँश लोग वे होते हैं जो हानि लाभ का कोई ध्यान नहीं रखते वरन् आदतन स्वभाव से ही वे झूठ बोलते हैं। इतना ही नहीं उन्हें झूठ बोलने में एक तरह का आनंद-सा आता है। ऐसे लोग जितना अधिक झूठ बोलते हैं उतने ही अधिक सन्तुष्ट और प्रसन्न दिखाई देते हैं और यह भी सच है कि उनका झूठ एक तरह का मनोरंजन जैसा होता है, जिससे किसी को विशेष हानि लाभ नहीं होता। फिर भी इतना तो होता ही है कि इस तरह के लोग कोई सुघड़ प्रभावशाली व्यक्तित्व नहीं बना पाते। उनकी जिन्दगी भी एक झूठा मजाक बनकर रह जाती है और जीवन की साँझ में उन्हें खाली हाथ पछताना पड़ता है।

इस तरह के विभिन्न कारणों से झूठ बोलने की दुष्प्रवृत्ति समाज में फैली हुई है। झूठ किसी भी तरह, किसी भी बहाने से, किसी भी कारण क्यों न बोला जाय आखिर वह झूठ ही है और उससे व्यक्ति तथा समाज का जीवन प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। झूठ के दुष्परिणाम व्यक्ति और समाज दोनों को ही भुगतने पड़ते है। जिस समाज में झूठ का बोलबाला जितना अधिक होगा वह उतना ही पतित और अविकसित होता जायगा। असत्य के इस सर्वनाशी घातक मर्ज से हमें पूरी तरह बचने और सत्य का अवलम्बन लेने, भीतर बाहर की एकता पैदा करने का प्रयत्न करना आवश्यक है तभी जीवन का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त किया जा सकेगा।


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