मनोमय-कोश - आत्म-शिक्षण की अनिवार्य आवश्यकता

October 1961

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हाड़, माँस के शरीर की दृष्टि से मनुष्य अत्यन्त ही तुच्छ हैं। उसके सुन्दर जो कुछ विशेषता है वह उसकी आन्तरिक चेतना ही है। विचार और विवेक का पूँजी के बल पर ही उसे सृष्टि का सर्वोत्तम जीव कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इस पूँजी को जिसने जितनी अधिक मात्रा में एकत्रित कर लिया वह उतना ही अधिक मात्रा में महानता उपलब्ध करता है । विचारों के अभाव में अविकसित मस्तिष्क के लोग निम्न-स्तर का जीवन-यापन करते हैं। अनेक व्यक्ति पशुओं की तरह दीन-हीन स्थिति में पड़े हुए मौत के दिन पूरे करते रहते हैं। पशुओं जैसा कोई ढर्रा उनके जीवन का भी चल पड़ता है और वे उसी चरखी को चलाते 2 किसी प्रकार जिन्दगी काट लेते हैं। गिरी हुई स्थिति के लोगों को यदि ध्यानपूर्वक विश्लेषण किया जाय तो उनमें प्रगतिशील मनुष्यों की अपेक्षा शारीरिक दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं होता, बहुत बार तो उनकी देह उच्चस्तर के लोगों की अपेक्षा भी अधिक सुदृढ़ और सक्षम होती है। पर वे मानसिक विकास अभाव में उस देह का पशुओं जैसा परिश्रम करते रहने के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं उठा पाते।

विचार-धन का अक्षय कोष

कई लोगों में मानसिक प्रतिभा जन्मजात भी होती है, पर अधिकांश में उसका विकास अपने प्रयत्नों पर ही निर्भर हैं। जो लोग आज उच्च कोटि की शिक्षा प्राप्त करके उच्च स्थानों पर बैठे हुए हैं− निर्माण, शासन, नेतृत्व, अन्वेषण, शिक्षण, चिकित्सा आदि महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं, वे जन्म से ही ऐसे पैदा नहीं हुए वरन् उनने अपनी प्रतिभा का क्रमिक विकास किया है। आरंभ में उनका बौद्धिक-स्तर भी सामान्य बालकों जैसा ही था, पर निरन्तर शिक्षा प्राप्त करने का कार्यक्रम बनाकर वे दिन-दिन अधिक बुद्धिमान बनते गये और आज अपने उस बुद्धि, बल का समुचित लाभ उठा रहे हैं। दूसरी ओर वे लोग हैं जिनने इस दिशा में कुछ भी प्रयत्न नहीं किया जहाँ थे वही बने रहे। बौद्धिक विकास का न उनने महत्व समझा और न उसके लिए प्रयत्न किया। यदि उनकी आकांक्षा इस दिशा में जगती तो निश्चय ही रास्ता भी मिलता, साधन भी जुटते और सहायक भी मिल जाते, पर जब इच्छा ही जागृत नहीं हुई, बुद्धिबल का महात्म्य ही समझ में न आया तो यह सब संभव भी कैसे होता। धनी और अमीरों तक के अनेक बालक उजड्ड हैं पर बौद्धिक विकास का महत्व उनकी समझ में नहीं आता, फलस्वरूप वे शौक-मौज में, क्रीड़ा विनोद में, आलस्य-प्रमाद में लगे रहते हैं। शिक्षा की प्रचुर सुविधा होते हुए भी वे उससे लाभ नहीं उठाते और गँवार के गँवार रह जाते हैं । इसके विपरीत अत्यन्त निर्धन स्थिति में उत्पन्न हुए बालक भी अपनी आकांक्षा को पूरा करने के लिए कुछ प्रयत्न करते हैं तो उन्हें उन्नति के साधन भी मिल जाते हैं और कष्टसाध्य परिस्थितियों को पार करते हुए धीरे-धीरे वे उन्नति के उच्च शिखर तक भी जा पहुँचते हैं।

बौद्धिक पूँजी की श्रेष्ठता

हममें से हर एक को यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि मानव-जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा उसकी बौद्धिक पूँजी ही हैं। रुपया-पैसा सोना-चाँदी जमीन-जायदाद व्यापार-उद्योग आदि सभी बड़े दुर्बल साधन हैं। इनसे रोटी की समस्या भले ही हल हो जाया पर और कोई महत्व इनसे मिलने वाला नहीं हैं। फिर इनका आर्थिक स्थायित्व भी तो बहुत स्वल्प हैं। कोई मूर्ख उत्तराधिकारी अपने पूर्वजों की संचित विशाल सम्पत्ति को भी थोड़े दिन की बेवकूफी यों में ही स्वाहा कर सकता है। फिर कोई दैवी प्रकोप या आकस्मिक दुर्घटना भी उस सबको एक-दो झटकों में ही समाप्त कर सकती हैं। दौलत को चंचलता कहते हैं, आज है तो कल भी बनी ही रहेगी इसका कोई निश्चय नहीं। स्थिर वस्तु को बौद्धिक पूँजी ही है जो इस जन्म में भी उन्नति के उच्च-शिखर तक ले जाती हैं और संस्कार रूप से जीव के साथ अगले जन्म में भी जाती हैं जिसके बल पर वह आसानी से वहाँ भी पर्याप्त बुद्धिबल प्राप्त कर लेता हैं। लौकिक जीवन में सुख-सम्पत्ति उपलब्ध करने के लिए समृद्धि और सफलता प्राप्त करने के लिए शिक्षा का महत्व एक स्वर से स्वीकार किया जाता है। कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य उन्हीं के कन्धों पर आता हैं जो सुशिक्षित हैं। बौद्धिक दृष्टि से पिछड़े हुए, अशिक्षित लोग, शारीरिक श्रम के सहारे ही पेट पालने और अपनी स्थिति बनाये रखने में समर्थ होते हैं इसलिए कोई भी विचारशील व्यक्ति जब लौकिक जीवन को सुसम्पन्न बनाने की बात सोचता है तब उसे शिक्षा की आवश्यकता अनिवार्यतः प्रतीत होती हैं। चाहे स्कूली शिक्षा हो, चाहे शिल्प व्यापार आदि की, उसकी हर हालत में आवश्यकता होती ही है। बिना ज्ञान वृद्धि किये भला कोई किस प्रकार कुछ उन्नति कर सकेगा।

स्वाध्याय और सत्संग

अध्यात्म मार्ग में भी बिलकुल यही समस्या रहती हैं। स्वाध्याय और सत्संग, चिंतन और मनन, इन चार आधारों पर मानसिक दुर्बलता को हटाना और आत्मबल बढ़ाना निर्भर रहता हैं। इसके बिना न मन की जड़ता जाती हैं और न संकीर्णता, गंदगी मूढ़ता, विषयासक्ति आदि से छुटकारा मिलता है। शास्त्रों में सत्संग की बड़ी महिमा गाई गई हैं। उसकी तुलना पारस मणि से हुई है। स्वाध्याय को एक अनिवार्य दैनिक धर्म, कर्तव्य माना गया है और लिखा है कि जिस दिन स्वाध्याय नहीं किया जाता उस दिन मनुष्य चाण्डाल तुल्य अपवित्र हो जाता है। चिन्तन और मनन को तो एक प्रकार से योग साधना में ही सम्मिलित कर लिया गया हैं। कहा गया है कि-मनन और चिन्तन के बिना न आत्म साक्षात्कार होता हैं और न ईश्वर ही मिलता हैं। ठीक भी हैं, उसकी मनोभूमि उड़ता से जकड़ी हुई हैं उसमें आत्मा और परमात्मा का चैतन्य-तत्त्व प्रवेश भी कैसे करेगा? आत्म कल्याण के लिए भजन, ध्यान, जप, तप, कथा-कीर्तन व्रत, दान, तीर्थ, पूजा, पाठ आदि की आवश्यकता मानी जाती हैं। इन्हीं के आधार, पर लोग स्वर्ग और मुक्ति की आशा करते हैं। पर इनमें सबसे अधिक महत्व की साधना आत्म-शिक्षण की हैं। उसके अभाव में सारे धर्म-कृत्य एक रूढ़ि मात्र रह जाते हैं और उनका फल आशा की अपेक्षा बहुत ही स्वल्प मात्रा में उपलब्ध होता हैं। यह एक सुनिश्चित तथ्य हैं कि मनुष्य जिस प्रकार के विचारों में डूबा रहता हैं उसी ढाँचे में उसकी चेतना ढलने लगती हैं। यदि विचारधारा पलट जाय तो मनुष्य की जीवन-दिशा भी पलट जाती हैं । कोई भी सत्कर्म या दुष्कर्म शरीर द्वारा अनायास ही नहीं बन पड़ता, वरन् उस प्रकार के विचार बहुत पहले से मस्तिष्क में घूमते रहते हैं और जब वे पूर्णतः परिपुष्ट हो जाते हैं तभी वह स्थिति आती हैं जिसमें कोई भला बुरा काम बन पड़े। जिसे अपने जीवन को आध्यात्मिक बनाना हो उसे सबसे पहले अपने मस्तिष्क में काफी गहराई तक उसी प्रकार के विचारों की जड़े जमानी पड़ती हैं। धर्म और अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप इस दृष्टि से स्वाध्याय और सत्संग प्रत्येक श्रेयार्थी के लिए अनिवार्य माना गया हैं, सत्संग की समस्या आज कल बड़ी विकट हैं ।धर्म और अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप आज लगभग लुप्त हो चुका हैं। पुरुषार्थहीन, कर्तव्यघाती, भाग्यवादी, आलसी बनाने वाली शिक्षा ही आज धर्म और अध्यात्म के नाम पर जहाँ तहाँ दी जाती हैं । ऐसे ही सत्संगों की दुकानें जहाँ-तहाँ लगी दीखती हैं, जहाँ किसी न किसी बहाने लोगों की जेबें तो खाली करा ली जाती है पर बदले में ऐसे रद्दी विचार गले मढ़ दिये जाते है जिन्हें अपनाने से उलझने सुलझने की अपेक्षा और अधिक बढ़ जाती हैं। उत्थान के स्थान पर पतन पल्ले पड़ता हैं। ऐसे सत्संग लाभ की अपेक्षा हानिकर ही अधिक सिद्ध होते हैं। उनमें जाना समय गँवाना ही नहीं, सड़े गले विषैले भोजन की तरह एक निकम्मी चीज अपने पल्ले बाँध लेना भी हैं।

संसार में ऐसी आत्माएँ भी हैं जिनके सान्निध्य से, सत्संग से अपना बहुत भला हो सकता हैं । पर ऐसे लोग अपने पास ही हों यह आवश्यक नहीं। फिर व्यवस्थित व्यक्तियों के पास समय का अभाव भी रहता है। रोज ही घंटों अपने विचार हमें हमारी सुविधा के समय और स्थान पर सुनाने आ सकें यह भी संभव नहीं। फिर उनका अपने यहाँ आना, तथा अपना उनके दूरस्थ स्थानों पर नित्य जाना भी कठिन हैं इसलिए चुने हुए सुलझे हुए व्यक्तियों का सत्संग कभी यदा कदा ही मिल जाय तो उसे पर्याप्त मान का स्वाध्याय को ही सत्संग भी मान लेना चाहिए और उसी को सुव्यवस्थित बनाना चाहिए।

मानसिक शुद्धता का आधार

पूजा, स्नान और भोजन आदि की तरह स्वाध्याय भी हमारा नित्य कर्म होना चाहिए। अपने चारों ओर फैले हुए विषाक्त वातावरण का दूषित प्रभाव रोज ही हमारे मन पर पड़ता है। उसकी सफाई करने के लिए नित्य ही स्वाध्याय आवश्यक हैं। वर्तन अपने आप ही धूलि, हवा और ऋतु के प्रभाव से मैले होते रहते हैं, उन्हें रोज ही माँजना पड़ता हैं। कमरे में रोज ही धूलि जम जाती हैं से रोज ही बुहारना पड़ता हैं। दाँत रोज मैले होते हैं सो रोज ही मंजन की जरूरत होती हैं। त्वचा से पसीना निकलकर रोज ही शरीर तथा कपड़ों में मलीनता उत्पन्न करता हैं सो रोज ही उन्हें धोया जाता हैं। यह सब काम रोज करने के हैं। जितने दिन इन्हें न किया जायेगा उतनी ही गन्दगी बढ़ती जाएगी । मन का भी यही हाल हैं। उसे स्वाध्याय द्वारा रोज ही न माँजा धोया गया तो वह दिन दिन अधिक गन्दा और मलीन होता जाएगा । और अन्त में वह इतना दूषित हो जाएगा कि थोड़ा सा पूजा भजन भी वहाँ कुछ शुद्ध वातावरण पैदा न कर सकेगा। इसलिए स्वाध्याय की उपेक्षा कदापि न की जानी चाहिए। दैनिक नित्य कर्म में उसके लिए अनिवार्य रूप से स्थान रखना चाहिए।

मनोभूमि का सुधार और विकास

स्वाध्याय और उद्देश्य हमारी मानसिक स्थिति का सुधार, निर्माण और विकास करना है। इसके लिए ऐसा साहित्य चाहिए जो उपर्युक्त आवश्यकता को भली प्रकार पूर्ण कर सके। इसके लिए ऐसे साहित्य का चुनाव करना नितान्त आवश्यक हैं जिसमें हमारी आत्मिक समस्याओं का आज की स्थिति को ध्यान में रखते हुए सही सुलझाव प्रस्तुत किया गया हो। स्वाध्याय सत्संग के नाम पर कोई भी प्राचीन काल में लिखी हुई मोटी किताब तोता रटंत की तरह रोज रोज पाठ करते रहने से कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा। कई लोग स्वाध्याय का अर्थ यही समझने हैं कि संस्कृत भाषा की या किसी संत महात्मा की लिखी हुई प्राचीन पुस्तक पढ़ लेने मात्र से पाठ या स्वाध्याय का पुण्य मिल जाएगा । यह मान्यता भ्रम मात्र है। तोता रटंत जैसे पाठ मात्र से स्वाध्याय का उद्देश्य किसी भी प्रकार पूर्ण नहीं होता। इसके लिए वही चुनी हुई पुस्तकें चाहिए जो हमारी जीवन की विविध समस्याओं को आध्यात्मिक दृष्टि से सुलझाने में व्यवहारिक मार्ग दर्शन करें और हमारी सर्वांगीण प्रगति को उचित प्रेरणा देकर अग्रगामी बनावें। आत्मिक-विकास के लिए आत्म-शिक्षण आवश्यक हैं। इसके लिये स्वाध्याय और सत्संग ही दो मार्ग हैं। इनमें से आज की परिस्थितियों में हमारे लिए स्वाध्याय ही सरल और सम्भव हैं। उसी के द्वारा दूरस्थ, स्वर्गवासी या दुर्लभ महा पुरुषों का सत्संग किसी भी स्थान पर कितनी ही देर तक और अपनी सुविधा के किसी भी समय प्राप्त किया जा सकता हैं। उच्च कोटि के विचारों की पूँजी अधिकाधिक मात्रा में जमा जिये बिना हम न ता अन्तःकरण को शुद्ध कर सकते हैं और न उच्च-मार्ग पर अग्रसर होने के लिए आवश्यक प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए इसे साधना का एक अनिवार्य अंग मानकर स्वाध्याय को अपने है

मनोमय कोश का परिष्कार

अन्नमयकोश के बाद आत्मा का दूसरा आवरण मनोमय कोश हैं। मन को शुद्ध बनाने के लिए सद्विचारों की नियमित धारणा ही एकमात्र उपाय हैं। इसे शिक्षित लोग पुस्तकें पढ़कर और अशिक्षित लोग दूसरों से सुनकर पूरा कर सकते हैं। जिस प्रकार शरीर की शुद्धि स्नान से होती हैं उसी प्रकार मन की शुद्धि सद्विचारों में निमग्न रहने से होती हैं। यह स्थिति अशिक्षित लोगों को सत्संग से और शिक्षितों को स्वाध्याय से-पढ़ने से-आसानी से प्राप्त हो सकती हैं। पढ़कर या सुनकर, नेत्र मार्ग से या कान मार्ग से जैसे भी बन पड़े सद्विचारों को अपनी मनोभूमि में प्रवेश करते रहने का नियमित कार्य-क्रम बनाना ही चाहिए। आत्मोन्नति के मार्ग में यह आत्मशिक्षण का-मानसिक परिष्कार का स्वाध्याय साधन नितान्त आवश्यक हैं। मनोमय कोश का प्रधान आधार यही हैं। गुरु की शरण में इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए जाने का विधान शास्त्रकारों ने किया हैं। भौतिक विचारों ने हमारे मस्तिष्क में बुरी तरह अंगा जमाया हुआ होता हैं। सारी विचार धारा प्रायः उन्हीं के कब्जे में रहती हैं। मन में जब भी कुछ विचार उठें उनमें भौतिक आकांक्षाएँ एवं योजनाएँ ही भरी मिलेंगी। शरीर मन का दास है ।मन जैसा कुछ सोचेगा शरीर वैसा ही करेगा यदि हमारा शरीर निरंतर भौतिक कार्यों में ही लगा रहता है आध्यात्मिक कार्यों में रुचि नहीं लेता या अवकाश नहीं पाता तो उसका ही कारण है कि मन में अध्यात्म भावना को बहुत ही स्वल्प स्थान मिला हैं ।यदि मस्तिष्क में भौतिक समस्याओं की भाँति, आध्यात्मिक समस्याओं को भी स्थान और महत्व मिला होता तो निश्चय ही हमारी क्रियाऐं और चेष्टाएँ भी आध्यात्मिक दिशा में प्रभावपूर्ण मात्रा में रही होती और हम जहाँ हैं उसकी अपेक्षा कहीं अधिक ऊँचे आध्यात्मिक स्तर पर पहुँच चुके होते है।

ऊर्ध्व-गमन का सत्प्रयत्न

आज मन पर पूरी भौतिक आकांक्षाओं का अधिकार हैं। उस कम करना है और वहाँ आध्यात्मिक अभिरुचि को भी स्थान दिलाना हैं। तभी तो शरीर और बुद्धि की चेष्टाएँ आत्मोन्नति की ओर झुकेंगी। भौतिक विचार धाराएँ तो संसार में सर्वत्र भरी पड़ी हैं, हमारे सब संगी साथी भी उसी में आकंठ डूबे पड़े हैं, इन्द्रियाँ भी उसी में रुचि लेती हैं, इसलिए उस दिशा में मन तो स्वतः ही खिंचा रहता हैं । नीचे की दिशा में तो पानी अपने आप ही बिना किसी चेष्टा के बहने लगता है, कठिनाई उसे ऊपर पहुँचाने में होती है। मन का स्तर ऊर्ध्वगामी हो इसके लिए जिन विचार धाराओं की आवश्यकता है वे संसार में स्वाभाविक रूप से सरलता पूर्वक नहीं मिलती वरन् उन्हें प्राप्त करने के लिए दो विशेष प्रयत्न करने होते हैं। वे प्रयत्न हैं स्वाध्याय और सत्संग। शिक्षा और कुछ आर्थिक दृष्टि से जिन्हें थोड़ी अनुकूलता प्राप्त हैं वे स्वाध्याय आसानी से कर सकते हैं। अच्छा साहित्य वे पुस्तकालयों से लेकर था खरीद कर अपनी इस आध्यात्मिक आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं। पर अशिक्षित लोगों के लिए, स्त्री बच्चों के लिए वह कठिन हैं और उनके लिए भी कठिन हैं जिनका मन पढ़ने में लगता ही नहीं। ऐसे लोगों के लिये सत्संग ही एक मात्र उपाय रह जाता हैं। पर भारी कठिनाई यह है कि आज सर्वत्र नकली अध्यात्म का बोल वाला है। उसी के सत्संग भी जहाँ तहाँ देखे सुने जाते हैं। उनसे मनुष्य की कर्तव्यनिष्ठा घटती और मूढ़ता बढ़ती है। इसलिए असली अध्यात्म के सत्संग का अभाव दूर करना उन लोगों का परम पवित्र कर्तव्य हैं जिन्हें सत्य की शिक्षा में उन्मुख होने असली अध्यात्म को समझने में अवसर मिला हैं। उस लाभ से उन लोगों को लाभान्वित करना जो स्वाध्याय का लाभ नहीं उठा पाते एक अत्यन्त ही उच्चकोटि का पुण्य हैं। इस ज्ञानयज्ञ की बराबर शुभ कार्य इस संसार में और कुछ हो नहीं सकता।

ज्ञान-मन्दिर-एक पुनीत सेवा-केन्द्र

एक छोटा आध्यात्मिक पुस्तकालय ज्ञान मंदिर हममें से हर एक बड़ी आसानी से अपने घर में चला सकता हैं। हमें स्वाध्याय के लिए कुछ साहित्य इकट्ठा करना ही पड़ेगा। उसे ही व्यवस्थित एवं सुसज्जित पुस्तकालय का रूप देकर घर की एक आलमारी में रखा जा सकता है और कम से कम पाँच व्यक्ति ऐसे आसानी से तलाश किया जा सकते हैं जो उस पुस्तकालय के निःशुल्क सदस्य हों। आप प्रयत्न पूर्वक उन्हें पढ़ने की प्रेरणा दें। कभी-कभी उनके घर जाकर अपनी पुस्तकें पढ़ने के लिए देने और यदि वे वापिस न लायें तो ने के लिए भी उनके घर पर जाया करें। साथ ही उस पुस्तक को आधार मानकर कुछ ज्ञान चर्चा भी छेड़ दिया करें। इस प्रकार एक छोटा स्वाध्याय मंडल बनाकर थोड़े ही प्रयत्न में नन्हा-सा किन्तु बहुत ही महत्त्वपूर्ण ज्ञानयज्ञ चलाया जा सकता हैं।

गायत्री परिवार की शाखाओं के लिए साप्ताहिक सत्संग चलाना एक आवश्यक कर्तव्य बताया गया था। क्योंकि विचारों का विस्तार एवं पोषण इसी आधार पर संभव हो सकता हैं। जो शाखाएँ साप्ताहिक हवन करने का प्रबंध नहीं कर सकती वे दीपक, धूपबत्ती को यज्ञ का प्रतीक मानकर कीर्तन और भजन से शुभारम्भ करके सत्संग चला सकती हैं। ऐसी व्यवस्थायें सामूहिक रूप से जहाँ हो रही हैं वहाँ हममें से प्रत्येक को उसमें भाग लेकर तथा अन्य लोगों को उनमें बुलाकर ले जाने की चेष्टा से उस व्यवस्था को बढ़ाना चाहिए। जहाँ ऐसी पूर्व उस व्यवस्था को बढ़ाना चाहिए। जहाँ ऐसी पूर्व व्यवस्था नहीं चल रही वहाँ रामायण कथा आदि का नियमित कार्य-क्रम चला कर उसके माध्यम से ज्ञान चर्चा या सत्संग का आयोजन हममें से कोई भी कर सकता हैं। कुछ सुनने वाले तो आने ही लगेंगे। प्रयत्न करने से उनकी संख्या बढ़ती भी रह सकती हैं। अपने घर के सदस्यों को रात के समय इकट्ठे करके कथा कहानी सुनाने के माध्यम से उन्हें रुचिकर सत्संग का लाभ दिया जा सकता हैं, अखंड ज्योति में इस दृष्टि से संक्षिप्त कथा प्रसंग अब छपते भी हैं। उन्हें रोचक ढंग से बढ़ाकर घर के लोगों को रोज एक-दो कथा सुनाने का क्रम बना लिया जाय तो वह अपने परिवार के लिए एक अच्छा सत्संग आयोजन हो सकता हैं और उसका प्रभाव दूसरों को उच्च मार्ग में प्रेरणा देने की दृष्टि से अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकता हैं। थोड़ा सा आलस त्याग कर यदि हम प्रयत्न करे तो अपने एक छोटे से क्षेत्र में ज्ञान का आयोजन कर सकते हैं। स्वाध्याय और सत्संग का लाभ दूसरों को दे सकते हैं।

छोटा किन्तु महान् कदम

पंच कोशी साधना क्रम में आत्म शिक्षण की महत्त्वपूर्ण स्थिति हैं। अन्नमय कोश की शुद्धि के साथ साथ मनोमय कोश का भी उत्कर्ष करना हैं उसके लिए मनोमय कोश का भी उत्कर्ष करना हैं। उसके लिए मन में से भौतिकवादी विचार धारा कम करने और आध्यात्मिक भावनाएँ भरने का ही एक मात्र उपाय बताया गया हैं। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग दो प्रमुख आधार हैं। उपरोक्त योजना के अनुसार हम अपने लिए इस आवश्यकता की पूर्ति करें और दूसरों के लिए उच्च कोटि की सेवा के रूप में भी इसे अपनाये। इसमें स्वार्थ और परमार्थ दोनों का महत्त्वपूर्ण समन्वय हैं। अन्नदान से ब्रह्मदान का पुण्य सौ गुना अधिक माना गया हैं। किसी को धन देकर उसकी उतनी भलाई नहीं की जा सकती जितनी उसे सन्मार्ग पर चला देने से होती है। अपने आपको और दूसरों को सन्मार्ग पर चला सकने के लिए आवश्यक ज्ञान साधन प्रस्तुत करना निश्चित रूप में ब्रह्म कर्म हैं। इस ब्रह्मकर्म में सम्पूर्ण जीवन रहने के कारण प्राचीन काल में ब्राह्मण पूज्य और श्रेष्ठ माने जाते थे। भौतिकवादी शिक्षा के लिए राजकीय प्रयत्न विशाल पैमाने पर चल रहे हैं। आध्यात्मिक शिक्षा का ब्रह्मकर्म हमें स्वयं ही आयोजित करना होगा। इसकी उपेक्षा करने से न व्यक्ति का कल्याण होगा न राष्ट्र का। इसलिए भले ही छोटे पैमाने पर ही, पर ज्ञान की मशाल जलाने के लिए हमें भी एक कदम आगे उठाना ही पड़ेगा।


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