आत्मबल का मूल उद्गम केन्द्र

October 1961

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पशुओं में शरीर बल काम करता है किन्तु मनुष्य का प्रधान बल उसका मनोबल ही हैं। शरीर उसका साधारण-सा है पर यदि मनोबल पर्याप्त हुआ तो साधारण शरीर होते हुए भी वह महान् कार्य सम्पादन कर सकता है। इसके विपरीत देह से हट्टा-कट्टे होते हुए भी कितने ही व्यक्ति मनोबल की दृष्टि से दुर्बल होने के कारण बड़े दीन-हीन देखे जाते हैं। महात्मा गाँधी ठिगने और दुर्बल-पतले आदमी थे, उनका वजन कुछ 96 पौंड अर्थात् 47 सेर के करीब था फिर भी वे अपने अपार मनोबल के सहारे उस बृटिश सिंह से लड़ पड़े जिसके राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था और जिसके पास हर किसी को कुचल डालने लायक पर्याप्त शक्ति मौजूद थी। साहस के बल पर लोगों ने बड़े-बड़े कठिन कार्य पूरे किये हैं। असहाय फरहाद अपनी प्रेमिका शीरी की खातिर एक बड़े पर्वत को काटकर लम्बी नहर खोद लाने में सफल हुआ था। उसके पास एकमात्र बल-मनोबल ही था । संसार में अगणित ऐसे नर-रत्न हैं जिनने अभावग्रस्त परिस्थितियों में रहते हुए अपने साहस के बलबूते किन्हीं असंभव-दीखने वाले महान् कार्यों की ओर कदम बढ़ाये और भारी संघर्ष में उलझते हुए अन्त में सफलता के शिखर तक जा पहुँचे। इसके विपरीत सब प्रकार की सुविधाओं से सम्पन्न होते हुए भी अनेक व्यक्ति असफल और हताश रहते देखे जाते हैं। इसका कारण बहुधा उनके मनोबल की दुर्बलता ही होती हैं।

मनोबल की न्यूनता

इच्छा-शक्ति और संकल्प −बल की कमी का नाम ही कायरता है। कायर व्यक्ति हर घड़ी डरते रहते हैं, उन्हें अपने चारों ओर आशंका अविश्वास और असफलता के चिन्ह ही दीखते रहते हैं । थोड़ी-सी कठिनाई को देखकर वे बहुत घबराते हैं। और जरा सी विपत्ति आने से किंकर्तव्य विमूढ होकर पागलों जैसी चेष्टा करने लगते हैं। आत्महत्या ऐसे ही उद्विग्न लोग कर बैठते हैं। हर समय चिन्ता, शोक, भय, आशंका में डूबे रह कर अपनी नींद हराम कर लेते हैं। कायर व्यक्ति निरन्तर परेशान बने रहते हैं। कोई न कोई छोटा-मोटा कारण उन्हें डराने और चिंतित करने के लिए पैदा होता ही रहता हैं। इसके विपरीत जिनमें साहस है, मनोबल हैं वे मौत के साथ जूझते हुए भी हँसते देखे गये हैं। युद्ध के मोर्चे पर, जहाँ दोनों ओर से गोलियाँ सनसनाती रहती हैं, उस मौत के साये में भी वीर-योद्धा हँसते, विनोद करते और नींद आने पर खर्राटे की गहरी नींद सोते रहते हैं। बड़ी से बड़ी आपत्ति में वे अपने धैर्य, साहस और विवेक को स्थिर रखते हैं तथा कठिन परिस्थिति आने पर दूने उत्साह से उसे पार करने का प्रयत्न करते हैं। डरते वे किसी भी नहीं। अपने पर और अपने भगवान पर जिसे भरोसा है वह क्यों किसी से डरेगा? क्यों निराश एवं हतोत्साह होगा? साँसारिक सभी कार्यों को सफलतापूर्वक सुसम्पन्न करने के लिए मनोबल की आवश्यकता होती हैं। इसी के आधार पर दुर्बल शरीर प्रचुर पराक्रम दिखा देता हैं और उसी के आधार पर साधारण मस्तिष्क महत्त्वपूर्ण निर्णय करते हैं। इसलिए जीवन की महत्त्वपूर्ण सम्पदाओं में मनोबल का होना एक बड़ी विभूति मानी जाती हैं। जिसके पास यह है उसके पास कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ हैं। वह अपना तो रास्ता बनाता ही हैं। अन्य अनेकों का भी नेतृत्व करता हैं।

संकल्प शक्ति की दुर्बलता

आध्यात्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी इस मनोबल की नितान्त आवश्यकता हैं। इसके अभाव में कोई व्यक्ति न तो वासना पर नियन्त्रण कर सकता हैं और तृष्णा के बन्धनों से छूट सकता है। बार-बार वह किन्हीं दुर्गुणों को त्यागने की इच्छा करता हैं, उनके परित्याग का संकल्प भी करता हैं पर आन्तरिक दुर्बलता के कारण वह बात निभती नहीं। मनोवेगों का उफान जब आता हैं तो उस परित्याग के दुर्बल निश्चय को बात की बात में उखाड़ आदि करने का कार्यक्रम बनता हैं। थोड़े दिनों में वह जोश ठंडा होते ही आलस आ घेरता है और बनाया हुआ कार्यक्रम छूट जाता है। कई-बार इस प्रकार आत्मोन्नति के प्रयत्न असफल हो जाने पर फिर हिम्मत ही नहीं रहती । मनुष्य सोच लेता हैं कि यह सब हमारे वश का नहीं। हमसे यह सब नहीं निभेगा। भगवान् की इच्छा हमारा कल्याण करने की नहीं दीखती।

लौकिक और पारलौकिक पुरुषार्थों की सफलता का प्रमुख आधार मनोबल है। साहस और धैर्य के बिना किसी को इस संसार में कोई कहने लायक सफलता नहीं मिली। इसलिए मानव-जीवन का पूरा लाभ उठाने के इच्छुक सदा से अपने मनोबल को बढ़ाने का प्रयत्न करते रहे हैं। जिसे यह तत्त्व जितनी अधिक मात्रा में उपलब्ध हो गया वह उतना ही सफल मनोरथ होता देखा गया हैं।

आन्तरिक सामर्थ्य की प्रधानता

यह इतना उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण पदार्थ मनोबल आखिर है क्या? आइए पर इस विचार करें। मनोबल को शरीरबल या बुद्धिबल नहीं कहा जा सकता क्योंकि देह के दुर्बल होते हुए भी कितने ही व्यक्तियों में भारी मनोबल पाया जाता हैं। कुख्यात ‘ताँलिया’ डाकू बहुत दुबला था। उसका असली नाम कुछ और था पर शरीर रुई धुनने की ताँत-सा पतला देखकर लोगों ने उसका नाम ताँलिया रख दिया था। इसी प्रकार शिक्षा या मस्तिष्क की उर्वरता से भी मनोबल का कोई संबंध नहीं हैं। पंजाब-केशरी रणजीतसिंह,बादशाह अकबर और संत कबीर शिक्षा की दृष्टि से अशिक्षितों में गिने जाते हैं पर उनका मनोबल प्रचंड था। तेज दिमाग वाले अनेक वकील अदालतों के आगे धरना दिये बैठे रहते हैं। उनमें से कितने हैं तो अपने मनोबल के आधार पर कोई महान् पुरुषार्थ कर सकने में सफल हुए हों? शरीर और मस्तिष्क के बल भी उपयोगी एवं आवश्यक है पर मनोबल उन दोनों में भिन्न हैं। वस्तुतः इस महान् तत्त्व की अपनी एक स्वतंत्र सत्ता है जिसका असली नाम प्राणतत्त्व हैं। प्राण ही जीवन है ।।भीष्म पितामह के शरीर में यह प्राण ही प्रचुर मात्रा में था जिसके बल पर वे छह महीने शरशय्या पर पड़े हुए अपना जीवन धारण किये रहे। जन्मजात रूप से यह प्राण किसी को कुछ अधिक मात्रा में मिलता हैं, कोई इसे अपने प्रयत्नों से बढ़ाते हैं, पर जिनके पास भी इसकी समुचित मात्रा होगी वह वीर पुरुषों की भाँति जियेगा। उसके प्रत्येक कार्य में से पराक्रम और पुरुषार्थ छलक रहा होगा। साहस और धैर्य उसमें भरे होंगे और निराशा एवं अधीरता उससे कोसों दूर रह रही होगी। उत्तेजना के अवसर आने पर भी वह आत्म-नियंत्रण रख सका होगा, विपत्ति में भी उसे मुसकराता हुआ देखा जा सकता हैं।

प्राणशक्ति की महिमा

रोगी में यदि प्राणतत्त्व की समुचित मात्रा रही हो तो वह देर तक बीमारी से मुकाबला कर सकता हैं और असाध्य लगने वाले रोगों को भी परास्त कर सकता है। प्राणायाम द्वारा योगी लोग इसी प्राणतत्त्व का संग्रह करते हैं और इच्छित समय तक जीवित रह सकने की सिद्धि प्राप्त करते हैं। प्राण की प्रचुरता होने पर अपनी कितनी ही समस्याओं को हल कर लेना, दूसरों को प्रभावित करना, उन्हें आवश्यक शक्ति प्रदान कर सकना दूसरों के शारीरिक-मानसिक रोगों को निवारण कर सकना कैसे संभव हो सकता हैं, इसकी चर्चा हम अपनी ‘प्राण चिकित्सा विज्ञान’ परकाया प्रवेश’ और मानवीय विद्युत के चमत्कार पुस्तकों में लिख चुके हैं। तन बल, धनबल, बुद्धिबल आदि से जितने प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं प्राणबल के द्वारा उससे अनेक गुनी महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त कर सकना संभव हो सकता हैं। ‘प्राण’ भी हवा , गर्मी (बिजली) आकाश (ईथर) आदि की तरह एक तत्त्व हैं, जो इस निखिल विश्व में संव्याप्त ही रहता हैं। परमाणुओं से यह विश्व भरा पड़ा हैं, परमाणु शक्ति से ही संसार का सारा व्यापार चल रहा हैं पर अपने प्रयोजनों के लिए अणु शक्ति को काम में लेना एक विशेष विद्या हैं। जो उस विद्या को जानते हैं वे ही अणु शक्ति चालित यन्त्रों का निर्माण एवं अणुबम का उत्पादन कर सकते हैं। प्राणविद्या के सम्बन्ध में भी यही बात हैं। एटम जड़ है इसलिए उसकी शक्ति सीमित हैं। प्राचीन काल के अध्यात्म विज्ञानवेत्ता अणु शक्ति को तुच्छ और प्राणशक्ति को महान् मानते थे, इसलिए उनने अध्यात्म विज्ञान में प्राण विद्या को प्रमुख स्थान दिया था, प्राणायाम को आत्मोत्थान का प्रधान साधन माना था।

गायत्री की प्राण-विद्या

गायत्री प्राण-विद्या ही है। गाय का अर्थ हैं प्राण, ‘त्री’ का अर्थ हैं त्राण करने वाली। प्राण-शक्ति की मानव जीवन में सुरक्षा एवं अभिवृद्धि करने वाली विद्या गायत्री ही हैं। गायत्री का देवता ‘सविता’ माना गया हैं। सविता का मोटा अर्थ सर्व होता हैं, पर उसका वास्तविक अर्थ प्राण ही हैं। प्राण की गायत्री का देवता है इस रहस्य पर अखण्ड ज्योति के हाल के अंक में गायत्री का देवता सविता लेख में कुछ प्रकाश डाला भी जा चुका हैं। गायत्री उपासना की द्वितीय भूमिका में प्रवेश करने वाला साधक अपने को जिन शक्तियों तथा सिद्धियों से ओतप्रोत पाता हैं वस्तुतः वह प्राण शक्ति का ही प्रसाद एवं चमत्कार होता हैं।

आत्म-उत्कर्ष-मार्ग के पथिकों का कार्य प्राण साधना के बिना नहीं चल सकता। इस तत्त्व का संग्रह किये बिना उनका मनोबल दुर्बल रहेगा। संकल्प बीच में ही टूट जायेंगे और लक्ष की ओर चलते हुए थोड़ी ही दूर पर पैर लड़खड़ाने लगेंगे। साधना का पहिया निर्जीव यंत्र की तरह घूमता तो रहेगा पर उसमें कुछ चमत्कार उत्पन्न न होगा। प्राण को मनोबल नहीं, आत्मबल का प्रतीक मानना चाहिए। हमारी प्राण-साधना जितनी ही प्रबल होगी उतने ही मनोबल से-आत्मबल से हम सम्पन्न जायेंगे।


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