साधना का शुभारंभ

October 1961

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हमें शरीर को प्राप्त होने वाले सुख साधनों का निरन्तर ध्यान रहता हैं, उन्हीं प्रयत्नों में सारा समय लगता हैं, पर जिस आत्मा का यह शरीर एक तुच्छ सा वाहन मात्र हैं, उसके कल्याण एवं सुख का तनिक भी ध्यान नहीं रखा जाता हैं, यह कैसे दुःख और आश्चर्य की बात हैं। पौष्टिक भोजन में कंजूसी के कारण शरीर दुबला और पीला पड़कर मरणासन्न स्थित को पहुँचता जाय और कपड़े जेवरों पर प्रचुर धन खर्च किया जाय तो इसे कोई बुद्धिमानी का कार्य न माना जायेगा। हमारी गति-विधि आज ऐसी ही अबुद्धिमत्तापूर्ण बनी हुई हैं।

आज हमारी चतुरता इस बात में लगी हुई हैं कि कितना धन, मान और विलास उपलब्ध कर लिया जाय, पर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करके लाखों करोड़ों वर्ष बाद मनुष्य शरीर प्राप्त करने का जो अलभ्य अवसर प्राप्त हुआ हैं उसका सदुपयोग कैसे किया जाय इस प्रश्न को सुलझने में सारी चतुरता धूमिल पड़ जाती हैं।

बुद्धिमत्ता की कसौटी

हम बुद्धिमान हैं या मूर्ख इसका पता उस दिन लगता हैं जब जीव इस शरीर को छोड़ कर आकाश में उड़ रहा होता हैं। उसे आगे फिर चौरासी लाख योनियों के दुखदायी शरीर सामने उपस्थित दीखते हैं जिनमें उसे करोड़ों वर्ष ज्ञान रहना पड़ेगा,तब कहीं फिर मनुष्य जन्म का वह अवसर आयेगा जो अभी तुच्छ बातों में गँवा दिया। जीव को अपनी इस मूर्खता पर भारी पश्चात्ताप होता हैं कि यह सुरदुर्लभ मानव-जीवन व्यर्थ गँवा दिया गया, वरन् शरीर के मोह में पड़कर अनेक दुष्कर्म भी कर लिये जिनके लिए नारकीय यंत्रणाओं चिरकाल तक सहनी पड़ेगी। पाप कर्मों के सुख क्षणिक थे पर उनका दंड तो दीर्घकाल तक सहना पड़ेगा।

पश्चात्ताप की अग्नि में इस प्रकार जलने से पूर्व ही यदि थोड़ी समझदारी उत्पन्न हो जाय तो उसे एक सौभाग्य ही समझना चाहिए। आध्यात्मिक प्रवृत्तियों में मन का लगने लगना वस्तुतः एक महान् सौभाग्य ही हैं जिसके लिए आज भले ही उपहास सहना पड़े पर अन्ततः उसका परिणाम श्रेयस्कर ही होता हैं। शरीर सुख की मृग तृष्णा में सदा के लिये भविष्य को अन्धकार मय क्यों बनाया जाय।

मृगतृष्णा में भटकना

लोग शौक, मौज चाहते हैं पर चाहने पर भी कितनों को वह मिल पाती हैं। अधिकांश को तो उस मृगतृष्णा के पीछे भटकने पर भी निराश और असफल ही रहना पड़ता हैं। फिर यदि इस छोटी-सी जिन्दगी में कुछ दिन वासना और तृष्णा की अग्नि को विलास और संग्रह के ईधन से शान्त भी क्या है? बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता की कसौटी तो एक ही है कि हम अपने स्थिर स्वार्थ को समझे शाश्वत शान्ति के लिए प्रयत्न करें और आत्म कल्याण की साधना में श्रद्धापूर्वक लग जाय। इस मार्ग पर चलते हुए लोक और परलोक दोनों बनते हैं। पारलौकिक शान्ति तो मिलती ही हैं लौकिक सुखों का अभाव भी नहीं रहता। आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास का मार्ग-दर्शन अखण्ड-ज्योति अपने जीवन के गत 23 वर्षों से सतत करती रही हैं। सद्विचारों को अपनाने, सद्-भावनाओं को विकसित करने और उपासनात्मक साधना का अवलम्बन करने का अपना एक सुनिश्चित मिशन इस लम्बे समय से चल रहा है। प्रसन्नता की जाता है कि परिवार के अगणित सदस्यों ने इससे समुचित लाभ भी उठाया हैं।

गायत्री की सर्वोपरि महत्व

उपासना क्षेत्र में गायत्री का महत्व सर्वोपरि है। प्राचीनकाल के समस्त ऋषियों ने गायत्री के आधार पर अपनी योग साधनाएँ की थी। भगवान के 24 अवतार हुए हैं उनने भी अपनी उपासना में गायत्री की प्रमुखता रखी है। बाल्मीकि रामायण साक्षी हैं कि भगवान राम गायत्री की उपासना करते थे। श्रीमद्भागवत से स्पष्ट है कि श्रीकृष्णचन्द्र की उपासना का आधार गायत्री था। यज्ञोपवीत धारण के समय प्रत्येक द्विज को गुरु मन्त्र के रूप में केवल गायत्री की ही दीक्षा देने का धर्मग्रन्थों में विधान हैं। भारतीय संस्कृति की इस आधार भित्ति गायत्री महामंत्र की जानकारी सर्व साधारण तक पहुँचानी आवश्यक थी। महाभारत के बाद आये हुए अज्ञानान्धकार युग में जो नाना मतमतान्तरों और सम्प्रदाय बरसाती मेंढकों की तरह उपज पड़े थे उनने उपासना के मूल आधार को हटाकर अपना-अपना ही सिक्का जमा लिया था और गायत्री को शाप लगी हुई, केवल ब्राह्मणों की, गुपचुप कान में कहने की,सतयुग में जपने की आदि आशंका एवं उपेक्षा पैदा करने वाली बातें कहकर एक प्रकार से बहिष्कृत ही कर दिया था। प्रसन्नता की बात है कि भ्रम का वह अन्धकार अब हट गया हैं अखण्ड-ज्योति ने इस दिशा में समुचित प्रकाश प्रदान किया हैं।

अगला कदम

प्रारम्भिक उपासना के रूप में गायत्री जप का सामान्य विधान अब तक सुविस्तृत किया जाता रहा। पर उतने से ही पूर्णता के लक्ष तक नहीं पहुँचा जा सकता। जप से मनोभूमि की शुद्धि होती है। जमीन को जोतने का जो कार्य हल बैल द्वारा सम्पन्न होता हैं वही कार्य मनोभूमि की शुद्धि के लिए माला द्वारा गायत्री के जप से होता हैं भूमि की जुताई हो जाने पर उसमें (1) बीज बोना, (2) सींचना (3) खाद देना, (4) निराई गुड़ाई करना, (5) रखवाली आदि की आवश्यकता पड़ती हैं, इसी प्रकार जप द्वारा परिमार्जित की हुई मनोभूमि में पाँच संस्कारों की आवश्यकता होती हैं। इसे ही पंचकोशी या पंचमुखी साधना कहते हैं । कितने ही चित्रों में गायत्री को पाँच मुख वाली दिखाया गया है। गायत्री महाविज्ञान ग्रन्थ के तृतीय भाग में इन पाँच मुखों की विस्तृत विवेचना की जा चुकी हैं। आत्मा पर चढ़े हुए पाँच आवरण ही गायत्री के पाँच मुख हैं। जैसे शरीर पर बनियान, कुर्ता, जाकेट, कोट और ओवरकोट एक के ऊपर एक पहन लेते हैं वैसे ही आत्मा की पाँच आवरण धारण किये हुए हैं, जिन्हें (1) अन्नमय कोश (2) मनोमय कोश (3) प्राणमय कोश (4) विज्ञानमय कोश (5) आनन्दमय कोश, कहते हैं। इन आवरणों को हटाते हुए आत्मा का-परमात्मा का-साक्षात्कार कराना ही योग साधना का लक्ष हैं। जप के बाद अगली भूमिका में प्रत्येक साधक को प्रवेश करना पड़ता हैं तब उसके लिए यह पंचकोशी साधना-पंचमुखी गायत्री की उपासना-आवश्यक होती हैं−

पंचकोशों का विकास

विगत वर्षों में सामान्य रूप से हम सब गायत्री जप करते रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम अगली ऊँची कक्षा में प्रवेश करते हुए पंच-सूत्री साधना का श्रीगणेश करें। प्रस्तुत अंक में उसी का प्रारम्भिक विधान हैं। यह सर्व साधारण के लिए बाल, वृद्ध-नर-नारी गृही, विरागी, सभी के लिए अति सरल और सर्वथा हानि रहित है। एक दो घंटा समय लगा सकने वाला कोई भी व्यक्ति इसे बड़ी सरलता पूर्वक अपना सकता हैं। इस मार्ग पर अग्रसर होते हुए सामान्य स्थिति का व्यक्ति भी अन्ततः उस स्थिति को पहुँच जाएगा जहाँ से आत्मसाक्षात्कार की स्थिति बिलकुल निकट आ जाती हैं। इस पंचकोशी साधना क्रम को दश भागों में विभाजित किया गया हैं। इन्हें दश कक्षाएँ मानना चाहिए। एक वर्ष में एक कक्षा पूर्ण करने की आशा की गई हैं, पर धीमे चलने वाले साधकों को इससे अधिक समय भी लग सकता हैं। जिस प्रकार एक कक्षा उत्तीर्ण करके दूसरी में प्रवेश करने पर पुरानी पाठ्य पुस्तकें बदल जाती हैं और नये पाठ्यक्रम का अभ्यास करना होता हैं उसी प्रकार सफल साधकों को प्रतिवर्ष अगला साधना क्रम अपनाना होगा। दस वर्ष तक यदि कोई व्यक्ति इसे अपनाये रह सके तो यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता हैं कि वह व्यक्ति बाहर से साधारण गृहस्थ जीवन में रहने वाला, सामान्य व्यवसाय करने वाला, औसत दर्जे का भले ही दिखाई दे, पर आन्तरिक दृष्टि से वह निश्चित रूप से महामानव होगा। अपनी आत्मा में स्वर्गीय शान्ति अनुभव करेगा और अपने समीपवर्ती लोगों के अपनी विशेषताओं से पुलकित, प्रफुलित किये रहेगा जीवन लक्ष प्राप्त करने में भी उसे कुछ विशेष बाधा न रह जाएगी।।

पाठक इस अंक को बहुत ध्यानपूर्वक पढ़ें और मनन करें। इसमें वर्णित साधनाएँ उपयोगी दिखें तो उनकी महत्ता को परखने के लिए परीक्षा की तरह एक वर्ष के लिए इन्हें अपनाकर देखें। यदि पाँचों साधनायें न बन पड़े तो इनमें से कुछ को भी अपनाया जा सकता हैं। उतने अंश से भी लाभ ही होने वाला हैं।


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