आनन्दमय कोष - आनन्द का स्त्रोत, प्रेम भावनाओं में है

October 1961

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आत्मा का चौथा आवरण आनन्दमय कोश है। इस अन्तिम द्वार के खुलते ही आत्म-दर्शन का अलौकिक आनन्द अनुमय होने लगता है। शरीर को इन्द्रिय सुखों में और मन को तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में आनन्द आता है। इनका परिणाम एवं स्तर जितना ऊँचा होगा। सुख भी उतना ही अधिक मिलेगा। पर आत्मा को इन दोनों बातों से कोई सन्तोष नहीं होता उसके आनन्द का केन्द्र तो प्रेम ही है । प्रेम तत्त्व का जिसे जितना रसास्वादन उपलब्ध हुआ, उसकी आत्मा उतनी ही आनन्द विभोर रहने लगती हैं। पति-पत्नी के बीच काम-क्रीड़ा का, रूप शृंगार का, उपयोगिता और लाभ का भी एक आकर्षण रहता है पर इतना मात्र ही आधार दोनों के बीच रहे तो उसमें अलौकिक अनुभूति नहीं रहती । इन आधारों के शिथिल होते ही वे बन्धन ढीले पड़ने लगते हैं और उपेक्षा, मन मुटाव, परित्याग एवं शत्रुता क अवसर भी आ जाते हैं। किन्तु यदि दोनों के बीच प्रेम का आधार हो तो अनेक त्रुटियों और कर्मियों के रहते हुए भी एक दूसरे पर जान देते हैं और दो शरीर एक प्राण रहकर स्वर्गीय सन्तोष का अनुभव करते रहते है। इस प्रेम का एक ही आनन्द उन्हें इतना अधिक रहता है कि गरीबी आदि के अनेक अभावों के रहते हुए भी उन्हें अमीरी जैसा भान होता रहता हैं।

प्रेम की निर्झरिणी

माता और बच्चे के बीच प्रेम की जो निर्झर बहती रहती हैं। उसके आनन्द में माता विभोर हो जाती है और अपने को सर्व सुख सम्पन्न अनुभव करती है। बच्चे को उदर में रखने, अपने रक्त, माँस में से उसका देह बनाने, प्रसव-कष्ट सहने, लालन-पालन करने और अपनी छाती का रम्र निचोड़कर पिलाने से उसे निरन्तर क्षति एवं परेशानी ही उठानी पड़ती है। फिर भी बच्चे के माध्यम से अपना प्रेम प्रस्फुटित करने में जो आनन्द उसे आता है उसकी तुलना से वह कष्ट सहन तुच्छ ही लगता है। प्रेम प्रकट करने का अवसर न पाने के कारण ही सन्तान हीन नर-नारी असन्तुष्ट देखे जाते हैं। वैसे लौकिक दृष्टि से देखा जाय तो सन्तान के कारण माता-पिता को परेशानी के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं होता। पर प्रेम का लाभ भी कोई सामान्य लाभ नहीं हैं। उसके बदलें में मनुष्य बड़ी से बड़ी कुर्बानी कर सकता है। बच्चों के प्रेम से पुलकित माता-पिता अपनी जीवन भर की वह कमाई बच्चे को बड़ी प्रसन्नतापूर्वक दे जाते हैं जिसमें से यदि कोई थोड़ी भी झपटना चाहता तो उन्हें भारी दुःख होता। पशु-पक्षी तक अपने बच्चों के प्रेम में अपने आपको प्राण संकट में डालते देखे गये हैं। भाई भाई के, मित्र मित्र के बीच जहाँ सच्चा प्रेम होता है वहाँ के अपने को असाधारण बलशाली ग्यारह बन जाते हैं। दो व्यक्तियों को हार्दिक प्रेम और सहयोग जब कभी भी पूरी तरह मिल जाता है तो उनके आनन्द और बल का ठिकाना नहीं रहता।

प्रेम विहीन तो पशु भी नहीं।

प्रेम की मात्रा पशुओं में भी पाई जाती है। दूध पिलाने का समय होते ही गाय जंगल में अपना चरना छोड़कर घर बँधे हुए बछड़े के पास लौट आती हैं। एक साथ दो पशु रहते हैं उनमें से एक मर जाय या कहीं चला जाय तो दूसरा उसकी याद करके कई दिन तक बेचैन रहता है। छोटे बछड़े को कहीं ले जाया जाय तो गाय भी उसके पीछे चल देती हैं। शेर, भेड़िये आदि पति-पत्नी की भाँति जोड़ा बनाकर रहते हैं। एक बिछुड़ जाय तो दूसरा उद्विग्न हो जाता हैं। सारस, बतख, तोता, गौरैया आदि पक्षी भी दाम्पत्य जीवन व्यतीत करते हैं और जब मादा अण्डे देती हैं और उन्हीं पर बैठी रहती है तो नर पक्षी उसके लिये भोजन-सामग्री जुटाता रहता है। अंडे में से निकले हुए बच्चे जब तक उड़ने नहीं लगते तब तक चिड़िया ही अपनी चोंच में भोजन लाकर घोंसले में बैठे हुए बच्चे के मुँह में डाल देती हैं। हाथी अपने झुंड के एक सदस्य पर मुसीबत आते ही उसकी सहायता के लिए एकत्रित हो जाते हैं। बन्दरों में भी परस्पर ऐसी ही सहयोग भावना देखी गई है। एक कसे छोड़ने ने सभी बदला लेने आते हैं। चरवाहा पर कोई भेड़िया या चीता आक्रमण करे तो गाय का झुंड उसे अपने बीच में ले लेता हैं और स्वयं ग्वाले के चारों ओर इकट्ठी होकर सींगों से उस हिंसक पशु पर आक्रमण करती हैं । किसी भी पशु-पक्षी के लिये अपने को जोखिम में डालकर लड़ने आती हैं। साँप के जोड़े में से एक को मार दिया जाय तो दूसरा इसका बदला लेता देखा गया हैं।

भूलोक का अमृत

प्रेम इस लोक का अमृत है। थोड़ी भी चेतना जिनमें जागृत हो चुकी हैं ऐसे पशु-पक्षी तक प्रेम का रस जानते हैं। चींटी, मधुमक्खी, तितली, पतंग और भौंरे जैसे कीड़े भी यह जानते हैं कि प्रेम का रस कितना मधुर है। फिर मनुष्य के लिये तो वह अमृत ही हैं। प्यार की प्यास प्रत्येक हृदय की अध्यात्म प्यास है उसे जो प्राप्त कर सका वह धन्य हो गया। जिसे प्यार नहीं मिला उस अभागे मनुष्य ने भले ही धन-दौलत पाई हो, पर वस्तुतः वह दीन-दरिद्री और दयनीय ही कहा जायेगा । जिनके माता-पिता बचपन में ही मर जाते हैं और जिन्हें दूसरों के यहाँ उपेक्षा एवं अपमान के दिन काटने पड़े के यहाँ उपेक्षा एवं अपमान के दिन काटने पड़े वे बालक सारे जीवन मर अशान्त ही रहते हैं। दाम्पत्य जीवन की सफलता प्रेम में सन्निहित हैं। किसी परिवार का विनाश और उत्थान पारस्परिक प्रेम भावनाओं पर निर्भर हैं। कोई देश समाज या संगठन अपने सदस्यों की श्रद्धा भक्ति ही पनपता हैं। जहाँ इसका अभाव रहा वहाँ पतन, विसंगत और नाश ही निश्चित हैं। अध्यात्म विज्ञान में मोह की निन्दा और प्रेम की प्रशंसा की गई हैं। मोह में स्वार्थ और लोभ छिपा रहता हैं। प्रेम में त्याग और उदारता की भावना रहती हैं। मोह में पतन हो सकता हैं पर त्याग पूर्ण निस्वार्थ प्रेम से तो आत्मा का उत्थान एवं विकास ही सम्भव हैं। इस क्लेश पूर्ण संसार में यदि कोई रस हैं, सार है, तथ्य है तो वह केवल प्रेम में ही हैं, जिसके हृदय में प्रेम-भावनाएँ उफनती रहती हैं वही करुणा, दया, सेवा और उदारता का मूर्तिमान् देवता हैं। जिसका हृदय निष्ठुर हैं, किसी को सुखी बनाने के लिए जिसे कुछ त्याग करने की इच्छा नहीं होती उस निष्ठुर व्यक्ति को निश्चय ही पशु कह सकते हैं। मानवता को कलंकित करने वाले ऐसे व्याघ्र अपना कोई स्वार्थ भले ही कर लें, आत्मिक दृष्टि से पतित ही गिने जाएँगे ।

और उनकी दुर्गति भी निश्चित हैं। ऐसे लोगों का अशान्त अन्तःकरण जीवन में चैन तो क्षण भर के लिए भी कभी पा नहीं सकता।

भक्ति भगवान की प्राप्ति

भक्ति को अध्यात्म साधना का प्रधान अंग माना गया है। भक्ति का अर्थ है-प्रेम भगवान प्रेम के वश में रहते है-प्रेम । भगवान प्रेम के वश में रहते हैं। गोपबालाऐं प्रेम की रस्सी से ही बाँधकर उन्हें अपने आँगन में नचाती थीं। मीरा ने इसी प्रेम की नौकरी देकर अपने साँवरिया को चाकर रखा था। भगवान को कर्मकाण्ड से नहीं भक्ति के प्राप्त किया जाता है। भक्ति भावनाओं के विकास में कर्मकाण्ड सहायक है पर बिना भक्ति भावना की पूजा निर्जीव ही रहती है। भक्त का प्रेमी होना आवश्यक है। प्रेम साधना के अभाव में अन्य साधना अधूरी ही है। साधना के साथ भावना का समावेश आवश्यक है। भगवान के लिए किया हुआ सच्चा प्रेम, निरन्तर व्यापक होता जाता है। इष्टदेव के प्रति किया हुआ प्रेम ध्यान या कल्पना क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रह सकता। वह भगवान क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रह सकता। वह भगवान की संतान के प्रति-समस्त प्राणधारी के प्रति भी विकसित होता है। उसे सभी अपने लगते हैं। सब में अपना ही आत्मा बिखरा दीखता है। सभी के प्रति अपार करुणा और ममता उसके मन में छलकती रहती है। उदारता और सेवा उसकी एक स्वाभाविक नीति बन जाती है। ऐसे प्रेमीजन का प्रत्येक विचार और प्रत्येक कार्य पुण्य एवं परमार्थ से ही परिपूर्ण रहता है।

करुणा और आत्मीयता

जिसके हृदय में आत्मीयता और करुणा की प्रेम-भावना उमड़ने लगी उसने भगवान को प्राप्त करने की मंजिल पूरी कर ली। उसने अपने लिए इस पृथ्वी पर ही स्वर्ग अवतरित कर लिया। जिसे अपने चारों ओर प्रेम-पात्र ही दीखते हैं उन्हें देव लोक की तलाश अभीष्ट नहीं, उसे तो अपने चारों ओर देवता ही देवता बैठे दीखते हैं। हो सकता है कि दगाबाजी दुनियाँ उनकी सज्जनता का शोषण करे, ठगे। पर कितना ही ठगा जाने पर भी वे नफे में रहते हैं। दानी कर्ण, सत्यवादी-हरिश्चन्द्र त्यागी दधीचि, भक्त मोरध्वज दूसरों के द्वारा भले ही ठगे गये हों पर वे अनेकों ‘कमाऊ पूतो’ से नफे में रहे। जितना खोया उससे अधिक ही उनने पाया है।

आत्मिक प्रगति प्रेम-भावनाओं के विकास के साथ-साथ आगे बढ़ती है। हमें प्रेमी बनना होगा सम्बन्धित व्यक्तियों के प्रति प्रेम का दृष्टिकोण विकसित करना पड़ेगा। शरीर से नहीं, आत्मा से प्रेम करने की लगन लगानी होगी। अपने इष्टदेव से प्रेम करना सीखना होगा, इसी में आनन्द है आनन्दमय कोश का चौथा आवरण प्रेमीजन है खोज पाते है। उन्हें ही ब्रह्मानन्द और सच्चिदानन्द की प्राप्ति होती है।


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