विज्ञानमय कोश− - आत्मा पर से मल-आवरण भी तो हटें

October 1961

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आत्मा ईश्वर का अंश होने से उन सभी महानताओं से सम्पन्न है जो परमात्मा में होती हैं। अनेक महापुरुषों, ऋषियों सन्तों और परमात्माओं के द्वारा ऐसे पुरुषार्थ किये गये हैं, जिन्हें देखकर लगता हैं कि सामान्य मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता, उसके पीछे कोई दैवी शक्ति काम कर रही होगी। वह दैवी शक्ति मनुष्य की आत्मा ही है। परमात्मा के बाद दूसरी सत्ता आत्मा की हैं। देव दानवों में भी जो असाधारण बल देखा सुना जाता हैं वह आत्मा का ही बल हैं। आत्मा की शक्ति अनन्त हैं। प्रकृति पर उसी का स्वामित्व है। मनुष्य के विचारों और कार्यों के अनुरूप प्रकृति भी अपने को बदलती रहती हैं जब संसार में मनुष्य की पाप-वृत्ति बढ़ती हैं तो प्रकृति बेचारी भी असंतुलित होकर दुर्भिक्ष, भूकम्प, बाढ़, वर्षा, बीमारी आदि अनेकों आपत्तियों से ग्रस्त होकर प्राणियों के लिए चिन्ता का विषय बन जाती है। जब मनुष्यों के मन में सुकृत बढ़ता हैं तो पृथ्वी धन-धान्य के स्त्रोत खोल देती हैं, प्रकृति में सब प्रकार की शान्तिदायक परिस्थितियाँ उमड़ पड़ती है और सतयुग का स्वर्गीय वातावरण परिलक्षित होने लगता हैं। किसी भू-भाग में जब न्यायी शासक, धर्मात्मा विद्वान् और ब्रह्मनिष्ठ तपस्वी बढ़ते हैं तो वहाँ तुरन्त ही प्रकृति में परिवर्तन आता है और नाना प्रकार से दैव की अनुकूलता सामने आती हुई दिखाई देने लगती हैं

मल-विक्षेप का परिष्कार

व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन में भी यही बात हैं। आन्तरिक स्थिति के अनुरूप ही व्यक्ति का स्वास्थ्य, यश, ज्ञान, धन, परिवार बिगड़ता हैं। दूसरे लोगों का सहयोग-असहयोग प्रेम विरोध भी किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के अनुरूप ही उपलब्ध होता हैं, प्रकृति या परिस्थिति की शिकायत करने, या उसका दुःखों का कारण मानकर खिन्न रहने की अपेक्षा यही उत्तम है कि हम अपने व्यक्तित्व का निर्माण करें। उस पर जो अनेकों मल-आवरण चढ़ गये हैं उन्हें हटाये ।

अंगार पर राख का परत जम जाने से उसका प्रकाश और ताप लुप्त हुआ जैसा दीखता है, पर जब वह राख हटा कर भीतर की अग्नि प्रत्यक्ष कर ली जाती है तो उसका स्वाभाविक रूप प्रकाश और तापयुक्त बन जाता हैं। आत्मा के ऊपर चढ़े हुए मैल भी जैसे-जैसे हटते जाते हैं, आत्मबल का प्रकाश भी वैसे ही वैसे स्पष्ट होता जाता हैं और उसी के अनुसार अपने तथा अपने साथियों के जीवन में सुख-शान्तिमय परिस्थितियाँ तेजी से बढ़ती दिखाई देने लगती हैं। आत्म-शोधन का कार्य अत्यन्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण । इसकी उपेक्षा करके कोई व्यक्ति स्थायी शान्ति एवं उन्नति का अधिकारी नहीं बन सकता। लौकिक और पारलौकिक सभी सफलताएँ इस एक बात पर ही निर्भर है कि कोई व्यक्ति अपना सुधार, निर्माण और विकास किस सीमा तक कर सकने में समर्थ होता हैं

आत्म-निरीक्षण की उपेक्षा

इस दिशा में एक भारी मनोवैज्ञानिक कठिनाई यह है कि हर व्यक्ति अपने आपको निर्दोष मानता है। अपने अन्दर जो बुराइयाँ है वे उसे न तो दिखाई देती है और न समझ में आती हैं। निष्पक्ष आत्म-निरीक्षण और कठोर आत्म-समीक्षा से ही बहुत अभ्यास के बाद यह वृत्ति विकसित होती हैं ।सामान्य श्रेणी के लोग तो अपने में किसी प्रकार की कोई कमी या बुराई समझ ही नहीं पाते। अपने कष्टों का कारण वे दूसरों को समझते रहते हैं और किसी न किसी पर दोषारोपण करके अपने को दूध का धुला सिद्ध करने की चेष्टा करते रहते है। कोई उनकी त्रुटि बताने तो उसे लाँछन, द्वेष या अपमान मानकर उलटा उस बताने वाले पर ही क्रुद्ध होते हैं। अपने दोष स्वयं तो समझ में न आवें, कोई दूसरा बताये तो उस पर क्रोध आवे, तो फिर आत्म-सुधार की गाड़ी आगे कैसे बढ़े? और आन्तरिक प्रगति का पहिया कैसे घूमे? यदि इस दिशा में कुछ न किया जाय, आत्म-सुधार की उपेक्षा की जाय तो फिर यह निश्चित है कि अन्य कोई भला-बुरा प्रयत्न हमारी समस्याओं को हल न कर सकेगा। आत्मबल, आत्म-सुधार के बिना और किसी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकता। भजन-पूजन भी आत्म-शुद्धि के बिना एक आडम्बर मात्र ही बने रहते हैं और उनका भी कोई आशाजनक परिणाम नहीं निकलता । इसलिए आत्मिक प्रगति की आकांक्षा रखने वाले किसी भी व्यक्ति को आत्म-सुधार के लिए प्रयत्न करना ही पड़ता हैं। इस ओर से आँखें बन्द कर लेने से आत्मिक प्रगति का मार्ग ही अवरुद्ध हो जाता हैं।

आत्म-सुधार की साधना

हमें आत्म-सुधार की साधना सुव्यवस्थित रूप से आरम्भ करनी चाहिए और जीवन भर क्रमिक विकास करते हुए सब बराबर प्रयत्नशील रहना चाहिए जब तक कि आत्मा पूर्ण रूप से निर्मल होकर परमात्मा स्वरूप न बन जाय। जीवन का लक्ष भी यही हैं। लक्ष की दिशा में कदम बढ़ाने से ही तो मंजिल पर होगी। उचित यही हैं कि हम प्रगति की इस अनिवार्य आवश्यकता को भली प्रकार समझें और उसकी पूर्ति के लिए मजबूती के साथ कदम बढ़ायें ।निश्चय ही हमारे गुण, कर्म स्वभाव में अनेकों बुराइयाँ भरी हुई हैं। भले ही हमें अपनी मोटी और पक्षपात भी बुद्धि के कारण वे आज न दिखें, पर जब सूक्ष्म दृष्टि से निष्पक्षता और कठोरता पूर्वक अपने आपको वैसे ही परखें जैसे किसी शत्रु को परखते हैं तो अपने अनेकों छोटे-बड़े दोष प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं। तब आत्मग्लानि भी होती हैं और उन्हें छोड़ने की इच्छा भी जागृत होती हैं। पर एक कठिनाई यह भी रहती हैं कि वे दुर्गुण आदत में इतनी गहराई तक शामिल हो जाते हैं कि छुड़ायें नहीं छूटते । छोड़ने की इच्छा करने और अपनी त्रुटि स्वीकार करने से सुधार की आशा बंध जाती हैं। पर इतने मात्र से ही काम नहीं चल सकता क्योंकि बुरी आदतें बड़ी दुष्ट एवं ठीक होती हैं, वे आसानी से नहीं बदलती। पुराना अभ्यास पड़ा हुआ हैं वह एक ढर्रा बन जाता हैं और जीवन जिस ढर्रे पर चल पड़ा हैं उसे बदलना साधारण काम नहीं होता। उसके लिए वैसे ही प्रयत्न करना पड़ता हैं जैसे पुराने रोग की चिकित्सा करने के लिए चिरकाल तक औषधि, पथ्य और परहेज का नियमित रूप से ध्यान रखा जाता हैं।

एक-एक करके सुधार में सरलता

हमारे अन्दर अनेकों दोष भरे पड़े हैं। वे सभी एक साथ नहीं छूट सकते। पैर में कई काँटे लग जाय तो सब एक साथ नहीं निकल सकते। एक-एक करके ही उन्हें निकालना पड़ता हैं। जो काँटा अधिक कष्टकारक हो और जिसे निकालना अधिक आसान हो पहले उसे ही निकालने का प्रयत्न करना बुद्धिमानी मानी जाएगी । आत्म-सुधार के लिए भी यही नीति अपनानी पड़ेगी। जो अधिक कष्टकारक दुर्गुण हैं पर जिन्हें अधिक आसानी से निकाला जा सकता हैं पहले उन्हें ही हाथ में लेना उचित हैं। हम ऐसे ही व्यवहारिक कदम उठाते हुए आत्म-सुधार की मंजिल पार करें तो सफलता की सम्भावना सुनिश्चित हो जायेगी । अन्नमय मनोमय और प्राणमय-कोश के बाद आत्मा का चौथा परिधान विज्ञानमय-कोश हैं। ज्ञानमय-कोश मस्तिष्क में और विज्ञानमय-कोश हृदय में अवस्थित हैं। मस्तिष्क में बुद्धि रहती है और हृदय में भावना। भावनाओं कोमल बनाना, हृदय को करुणा, दया, स्नेह, उदारता सेवा, सद्भावना से ओत-प्रोत करना विज्ञानमय कोश के विकास की साधना है। इस साधना से हमारी अनुदारता, संकीर्णता, निष्ठुरता, निर्दयता, स्वार्थपरता पर अंकुश लगता हैं। दूसरों के सुख दुःख परिलक्षित होने लगते हैं। दूसरों के सुख-दुःख परिलक्षित होने लगते हैं। भावनाओं में ही भगवान का निवास होता हैं। जिसकी भावनाएँ जितनी ही निष्ठुर हैं वह उतना ही पतित हैं और जिस का हृदय जितना कोमल, स्नेहपूर्ण एवं उदार हैं उसे उतना ही उच्च भूमिका में अवस्थित एवं भगवान के निकट पहुँचा हुआ माना जाता हैं।

कृतघ्नता सबसे भयंकर

मनुष्य में जो पैशाचिकता प्रवृत्तियाँ भरी रहती हैं उनमें कृतघ्नता सबसे भयंकर हैं। इसके उन्मूलन का कार्यक्रम हमें अपने साधना कार्यक्रम में प्रथम वर्ष ही सम्मिलित करना हैं। अन्य पाप

वृत्तियों को भी धीरे-धीरे छोड़ना ही होगा और एक सत्यनिष्ठ सदाचारी सज्जन जैसा जीवन बिताते हुए सच्ची आध्यात्मिकता का व्यवहारिक रूप ग्रहण करना होगा, पर एक साथ उतना सब वन पड़ना कठिन हैं। इसलिए इस एक वर्ष में अपना सारा ध्यान कृतघ्नता के परित्याग पर ही लगाना चाहिए। आत्मा पर चढ़े हुए मल विक्षेपों में से यह एक बहुत मोटा एवं बहुत ही निकृष्ट श्रेणी का आवरण है। इसे हटा देने में सफलता मिल सकी तो अन्य आवरण सहज ही हटने लगते हैं। दोष दृष्टि की प्रधानता से हमें अपने चारों ओर शत्रु और दुष्ट ही भरे दिखाई पड़ते थे, वे कृतज्ञता की उपकार बुद्धि जागृत होने पर मित्र स्वजन और स्नेही प्रतीत होने लगते हैं। निन्दक ऐसे लगते हैं मानों वे हमारी दुर्बलताओं की घटाने के चौकीदार हों और अपकारी ऐसे लगते हैं मानों हमारी सज्जनता को परखने के लिए परीक्षक नियुक्त किये गये हों। बैर का बदला बैर से और क्रोध का बदला क्रोध से चुकाने से संसार और सदाशयता से ही परस्पर सद्भाव और ऐक्य बढ़ता है। हम अपने हृदय क्षेत्र का-भावना स्तर का-विकास करके अपने व्यक्तिगत जीवन को ही सुखी नहीं बनाते वरन् अपने चारों आरे भी प्रसन्नता और सद्भावना का वातावरण उत्पन्न करते हैं। आत्मिक प्रगति के पथ पर कृतघ्नता एक बहुत बड़ी चट्टान हैं, इसे तोड़ने की साधना में हमें प्रकृत होना ही चाहिए जिससे आगे का मार्ग प्रशस्त हो। पति पत्नी में, सास बहू में, पिता पुत्र में, भाई-भाई में, मित्र-मित्र में, मालिक नौकर में जो संघर्ष देखा जाता है उसके मूल में कृतघ्नता की वृत्ति ही प्रधान रूप में काम कर रही होती है। एक दूसरे के अगणित उपकारों को भूल जाते हैं और किसी तुच्छ-सी बुराई को भूल जाते हैं और किसी तुच्छ-सी बुराई को याद रखकर उसे ही महत्व देते रहते हैं । फलस्वरूप इन पुण्य संबंधों शत्रुता और दुर्भावना का विष पनपते लगता हैं। यदि सोचने का तरीका सज्जनता पूर्ण हो एक दूसरे के उपकारों को ही महत्व दें, छोटी-मोटी बुराई को मानवीय दुर्बलता की एक छोटी-सी घटना मानकर उसकी उपेक्षा करें तो यह प्रेम सम्बन्ध अटूट रह सकते हैं। कोई वास्तविक गुत्थी हो भी तो वह सद्भावना के वातावरण में बड़ी आसानी से सुलझ सकती है । इस प्रकार हमारे पारिवारिक स्नेह सम्बन्ध अक्षुण्ण रह सकते हैं। सामाजिक सम्बन्धों के बारे में भी यही बात है। नम्रता, सज्जनता भलमनसाहत, शिष्टाचार आर्थिक प्रगति हो सकती हैं, राष्ट्रीय एकता कायम रह सकती है और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएँ सुलझ सकती हैं। इसके बिना प्रत्येक क्षेत्र में संघर्ष क्लेश और द्वेष ही बढ़ेगा। फलस्वरूप लाभ किसी का नहीं होगा हानि सबको उठानी पड़ेगी। इस प्रकार लौकिक और पारलौकिक दोनों ही क्षेत्रों में सज्जनता अभीष्ट हैं। मानव-जाति की यही सबसे बड़ी विशेषता भी हैं। इसके बिना मनुष्य शरीर धारण करने वाला पशु, मानवता से दूर ही माना जायेगा । पशुता का परित्याग और मानवता का वरण करने के लिए हमें सबसे प्रथम कृतघ्नता को छोड़ना पड़ेगा और कृतज्ञता की भावनाओं से अपना अन्तःकरण ओत-प्रोत करना पड़ेगा ।


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