अखिल आकाश में संव्याप्त प्राणतत्त्व को कोई भी भावनाशील साधक अपनी श्रद्धा और निष्ठा के अनुरूप मात्रा में अपने में धारण कर सकता है। और ऐसा भी हो सकता है कि प्राणवान् व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपने संग्रही प्राण में से कुछ अंश देकर उसे अधिक तीव्रगति से आत्मिक प्रगति कर सकने की क्षमता प्रदान करे। गुरु और शिष्य का रिश्ता प्रधानतया इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। साधारण शिक्षा तो कोई भी अध्यापक या उपदेशक दे सकता है। पुस्तकें पढ़कर भी बहुत-सी जानकारी प्राप्त की जा सकती हैं। इतनी-सी बात के लिए गुरु की इतनी महिमा नहीं मानी जा सकती जितनी कि शास्त्रों के पन्ने-पन्ने पर भरी पड़ी हैं।
मार्ग दर्शक की आवश्यकता
आध्यात्म मार्ग पर वास्तविक प्रगति करने के इच्छुक को किसी सत्पात्र मार्ग-दर्शक की तलाश करनी पड़ती हैं। इसके बिना उसका मार्ग रुका ही पड़ा रहता हैं। जब साधारण-सी स्कूली शिक्षा में अध्यापक की आवश्यकता रहती हैं, साइंस, रसायन, शिल्प, शल्यक्रिया, यंत्र-विद्या आदि सीखने के लिए किन्हीं अनुभवियों का सक्रिय मार्ग दर्शन आवश्यक होता है तो आत्म विज्ञान के छात्रों को शिक्षण की आवश्यकता क्यों ने होगी? पर खेद की बात यह है कि जैसे सच्ची लगन और श्रद्धा वाले साधक दिखाई नहीं पड़ते वैसे ही सत्पात्र गुरु भी अलभ्य हैं। उतावले शिष्य और ढोंगी गुरुओं की हर जगह भरमार है पर उनसे प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। ठोस प्रगति के लिए आधार भी ठोस ही होना चाहिए। जिन्हें सत्पात्र मार्ग-दर्शक मिल गये उनकी आयी पार हो गई ऐसा ही समझना चाहिये। गुरु अपने शिष्यों को शिक्षा तो देते ही हैं साथ ही अपने तप, पुण्य और प्राण में से भी अंश उसे प्रदान करते हैं। जैसे पिता अपनी कमाई का उत्तराधिकार पुत्र को छोड़ जाता है वैसे ही गुरु भी अपनी उपार्जित आत्म-सम्पदा का एक बड़ा भाग अपने शिष्यों को प्रदान करता है। इसी कारण गुरु को धर्म-पिता का स्थान दिया जाता हैं। जिस प्रकार पिता से पुत्र का गोत्र या वंश बनता है उसी प्रकार प्राचीन काल में गुरु से भी शिष्य का गोत्र बनता था, यही कारण हैं कि एक ही ऋषि के गोत्र विभिन्न वर्णों में पाये जाते हैं। यदि शिक्षा देना मात्र ही गुरु का काम रहा होता तो कदापि उन्हें इतनी महत्ता प्रदान न की जाती। पिता अपना वीर्य, पोषण स्नेह और उत्तराधिकार देकर ही पुत्र की श्रद्धा का भाजन बन पाता हैं । धर्म पिता-गुरु को इससे भी अधिक देना पड़ता है। वह अपनी आत्मा को शिष्य की आत्मा में और अपने प्राण को शिष्य के प्राण में ओत-प्रोत करता हैं। केवल साधना का मार्ग ही नहीं बताता वरन् आवश्यक शक्ति भी प्रदान करता हैं जिसके बल पर वह आत्मोन्नति के कठिन मार्ग पर सफलता पूर्वक अग्रसर हो सके। जिन्हें इस प्रकार की सहायता से वंचित रहना पड़ा उनमें से कोई विरले ही साधक सफलता प्राप्त कर सके अन्यथा आधार दृढ़ होते हुए भी उन्हें बीच में ही लड़खड़ा जाना पड़ा।
शक्तिपात के सत्पात्र
योग शास्त्रों में शक्तिपात की चर्चा बहुत हैं समर्थ गुरु शक्तिपात के द्वारा अपने शिष्यों को स्वल्प काल में आशाजनक सामर्थ्य प्रदान कर देते हैं। सिद्ध योगी तोतापुरी जी महाराज ने श्रीराम कृष्ण परमहंस को शक्तिपात करके थोड़े ही समय में समाधि अवस्था तक पहुँचा दिया था। श्रीपरमहंसजी ने अपने शिष्य विवेकानन्द को शक्तिपात द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार कराया या और वे क्षण भर में नास्तिक से आस्तिक बन गये थे। योगी मछीन्द्रनाथ ने गुरु गोरखनाथ को अपनी व्यक्ति गत शक्ति देकर ही स्वल्प काल में उच्चकोटि योगी बना दिया था। योग और अध्यात्मार्ग में ऐसे अगणित उदाहरण मौजूद हैं जिनमें समर्थ गुरुओं के अनुग्रह से सत्पात्र शिष्यों ने बहुत कुछ पाया हैं शिष्यों द्वारा सेवा के अनेकों कष्टसाध्य उदाहरण धर्म पुराणों में भरे पड़े हैं। इस प्रक्रिया के पीछे एक बहुत बड़ा रहस्य छिपा पड़ा हैं। शिष्य की श्रद्धा, कर्तव्य बुद्धि, कष्ट सहिष्णुता, उदारता एवं धैर्य की परीक्षा इससे हो जाती है और पात्र-कुपात्र का पता चल जाता हैं। जब धन दान के लिए सत्पात्र याचक तलाश किये जाते हैं तो प्राण-दान जैसा महान् दान कुपात्रों को क्यों दिया जाय? सत्पात्र ही किसी महत्त्वपूर्ण वस्तु का सदुपयोग कर सकते हैं। कुपात्र उच्च तत्त्व का न तो महत्व समझते हैं और न उन्हें ग्रहण करने में समुचित रुचि ही लेते हैं। ठेल ठाले कर कोई कुछ दे भी दे तो उसका स्वल्प काल में ही अपव्यय कर डालते हैं इसलिए अध्यात्म क्षेत्र में प्रगति करने के लिए जहाँ समर्थ गुरु की नितान्त आवश्यकता रहती हैं वहाँ शिष्य की श्रद्धा एवं सत्पात्रता भी अभीष्ट हैं। दोनों ही पक्ष स्वस्थ हों तो प्रगति पथ की एक बड़ी समस्या हल हो जाती हैं।
गुरु का योगदान
अच्छी जमीन में भी पौधे तब उगते और बढ़ते हैं जब बीच, खाद और पानी की बाहर से व्यवस्था की जाती हैं। गुरु का कर्तव्य बीज, खाद और पानी की समुचित व्यवस्था करके शिष्य की मनोभूमि को हरी भरी बनाना होता हैं। माली जो प्रयत्न अपने बगीचे को हरा भरा बनाने के लिए करता है वही कार्य एक कर्तव्यनिष्ठ गुरु को भी अपने शिष्यों के लिए करना पड़ता हैं। आज गुरु शिष्य परम्परा एक विडंबना मात्र रह गई हैं। लकीर पीटने की तरह जहाँ तहाँ शिष्य-गुरु के अत्यंत दुर्बल आधार पर टिकी हुई परम्परा चिन्ह पूजा जैसी दिखाई पड़ती हैं। पर पात्रता के अभाव में उसका परिणाम कुछ भी नहीं निकलता और एक व्यर्थ की सी चीज बन कर रह जाती है। सत्पात्र शिष्य समर्थ गुरु की सहायता से जो लाभ उठा सकते हैं वैसा आज कितनों को मिलता हैं? कितना मिलता हैं? गाय अपना दूध बछड़ों के लिए निचोड़ देती है उसी प्रकार गुरु भी शिष्य की श्रद्धा से द्रवित होकर अपना संग्रही प्राण उसके लिए निचोड़ देता हैं। गुरु शिष्य का पास-पास रहना इस दृष्टि से आवश्यक माना गया हैं। प्राचीन काल में साधारण ब्रह्मचारी गुरुकुलों में रहकर विद्याध्ययन करते थे और साथ ही गुरु का स्नेह एवं प्राण तत्त्व निरन्तर उपलब्ध करते रह कर अपनी आत्मा को सब प्रकार परिपुष्ट बनाते थे । समीपता का प्रभाव पड़ता ही है। प्रबल व्यक्तित्व और श्रेष्ठ वातावरण के सान्निध्य में रहने मात्र से जितना लाभ होता हैं उतना अस्त-व्यस्त स्थिति में रहने वाला व्यक्ति बहुत साधन अध्ययन और प्रयत्न करने पर भी प्राप्त नहीं कर सकता।
शक्तिपात का क्रमिक पद्धति।
क्षण भर में अपनी सारी शक्ति शिष्य को प्रदान कर देने वाले सब मेघ यज्ञ जैसे शक्तिपात कहीं-कहीं ही और कभी-कभी ही होते हैं। उसके लिए विशेष भूमिका वाले गुरुओं की और वैसे ही उच्च स्तर के शिष्यों की आवश्यकता होती हैं। यह कठिन हैं। वैसे सौभाग्य पूर्ण सुअवसर किन्हीं विरलों को ही मिलते हैं पर क्रमिक शक्तिपात उतना कठिन नहीं हैं । गुरु शिष्य के बीच में यदि सच्ची आत्मीयता और श्रद्धा हो, दोनों प्रयत्न करें तो विकसित प्राण वाले गुरु की शक्ति एक नियत गति से स्वल्प प्राण वाले शिष्य की आत्मा में संचारित होती रह सकती है। अधिक जल वाले तालाब का पानी पास के कम पानी वाले तालाब में एक छोटी नाली खोदकर कर पहुँचाया जा सकता हैं। सद्गुरु भी अपनी आत्मा के प्रकाश से शिष्य का अन्तःकरण प्रकाशित कर सकते हैं। यह आवश्यक नहीं कि प्राण-संचार पास-पास रहने पर ही हो, दूरस्थ व्यक्ति भी परस्पर एक दूसरे में प्राण प्रवाह संचारित कर सकते हैं। मादा कछुआ अपने अंडे बालू में देती हैं और अपनी संकल्प शक्ति प्रेरित करके उन्हें पकाती रहती हैं। यही किसी कारणवश वह मादा कछुआ मर जाय तो फिर अंडे भी सड़ जाते हैं उनमें से बच्चे नहीं निकल सकते। कछुए की भाँति प्राण शक्ति सम्पन्न गुरु भी अपने दूरस्थ शिष्यों में शक्ति संचार कर सकता हैं। प्राण संचालन विद्या के आधार पर दूरस्थ रोगियों की चिकित्सा कैसे की जा सकती हैं और किन्हीं के कुविचारों को हटाकर उनके स्थान पर सद्भावनाओं की स्थापना कैसे की जा सकती हैं इसका वर्णन विचार संचालन विद्या पुस्तक में पाठक पढ़ चुके होंगे। प्राण-संचालन के माध्यम से रेडियो ब्राडकास्ट की तरह एक आत्मा की शक्ति दूसरी आत्मा तक पहुँच सकती हैं। मूलबन्ध, प्राणायाम और शाँभवी मुद्रा की घर्षण क्रिया से उदान प्राण को क्षुभित किया जाता हैं और जब वह उत्तेजित होकर लोभ विलोम गति से संचरण करने लगे तो इसे सूर्य-चक्र में आबद्ध कर लिया जाता हैं। यहाँ से उस प्राण को किन्हीं व्यक्तियों के लिए रेडियो ब्राडकास्ट की तरह ईथर तत्त्व के माध्यम से प्रेषित किया जा सकता हैं। जिसके लिए यह प्राण प्रेषण किया जाय वह नियत निर्धारित समय ध्यान मग्न होकर बैठता है और उस प्रेषित शक्ति का आवाहन एवं अवधारण करता रहता हैं । इस प्रकार प्राण संचार की व्यक्ति भी किसी प्राणवान मार्ग दर्शक का ओजस् अपने लिए प्राप्त कर सकते हैं।
प्राण-प्रवाह का प्रत्यक्ष अनुभव
इस प्रकार संचार का अनुभव शिष्य को प्रत्यक्ष जैसा ही होता हैं। अपने चारों ओर से उसे पीत आभा वाला, शुभ्र वर्ण, भाप के बादलों जैसा प्राण प्रवाह उड़ता दिखाई पड़ता हैं। धुनी हुई रुई या हलकी बरफ जैसी कोई वस्तु उसे अपने चारों ओर उफनते हुए दूध के झागों की तरह चलती फिरती दीखती हैं। अवधारण करने में वह प्रवाह साधक के इन्द्रिय-छिद्रों तथा राम कूपों द्वारा प्रवेश करता हैं । इस प्राण संचार के साथ ही उसे अपने में अनेकों उच्च कोटि की अध्यात्म भावनाएँ भी प्रविष्ट एवं प्रतिष्ठित होती दीखती हैं। प्राण संचार का यह क्रमिक शक्तिपात किन्हीं को सुलभ हो सके तो उनका अधिक सुविधा होती हैं और लक्ष की प्राप्ति अधिक सफल एवं सुनिश्चित बन जाती हैं