तपश्चर्या का एक सरल आरम्भ

October 1961

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वासना और तृष्णा की सत्यानाशी सड़क पर दौड़ते हुए मन की लगाम को खींचना आवश्यक है। यदि उस पर अंकुश न लगाया जा सका और जिधर भी वह जा रहा है उधर ही जाने दिया गया तो फिर विनाश के अतिरिक्त ओर कोई परिणाम निकलने वाला नहीं हैं। अध्यात्म से विमुख होकर भौतिकवादी दृष्टिकोण में प्रवृत्त प्रेय मार्ग इतना आसक्त हो जाता हैं कि आटे के साथ काँटा निगलने वाली मछली की तरह उसे दीन दुनिया की कुछ खबर नहीं रहती कि आगे हमारा क्या होने वाला है। इस प्रिय लगने वाली किंतु पतनोन्मुख प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना प्रत्येक आत्मवादी के लिये आवश्यक होता है। तपश्चर्या इस दृष्टि से अनिवार्य मानी गई हैं। जंगली हाथी को पालतू बनाने में जितना झंझट करना पड़ता, शेर को सरकस दिखाने के उपयुक्त बनाने में जितना श्रम, चातुर्य खर्च करना पड़ता हैं, उतना ही मन को कुमार्ग से लौटकर सन्मार्ग पर चलने का अभ्यासी बनाने में लगता हैं। इसी कठिन कार्य को साधना कहते हैं। यही तपश्चर्या भी हैं। यदि प्रयत्न पूर्वक मन को साध लिया गया तो वह वश में हुआ मन देवता के समान प्रतिज्ञ कर देने वाला बन जाता हैं। ऐसा सुसंयत मन जिसके पास हैं उसे इस संसार में किसी वस्तु की कमी नहीं रहती, उसे विश्वविजयी ही माना जाता हैं।

इन्द्रिय-निग्रह की उपयोगिता।

आत्म संयम की साधना का प्रारंभिक कदम ‘इन्द्रिय निग्रह’ हैं । यों ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच मानी जाती हैं पर उनमें दो ही प्रधान हैं। (1) स्वादेन्द्रिय (2) कामेन्द्रिय । इनमें से स्वादेन्द्रिय प्रधान हैं, उसके वश में आने से कामेन्द्रिय भी वश में आ जाती हैं। जीभ का स्वाद जिसने जीता वह विषय वासना पर भी अंकुश रख सकेगा। चटोरा आदमी ब्रह्मचर्य से नहीं रह सकता, उसे सभी इन्द्रियाँ परेशान करती हैं। विशेष रूप से काम वासना तो काबू में आती ही नहीं। इसलिए इन्द्रिय निग्रह की तपश्चर्या स्वाद को-जीभ को वश में करने से आरंभ की जाती हैं।

अन्न, शाक और दूध में उतना नमक और उतनी शक्कर मौजूद है जितनी स्वास्थ्य-रक्षा के लिए उपयुक्त एवं आवश्यकता हैं। सृष्टि के सभी प्राणी स्वाभाविक आहार में से ही अपनी नमक, शक्कर की आवश्यकता पूरा करते हैं कोई भी जीव-जन्तु ऐसा नहीं हैं जो अलग से इन चीजों को अपने स्वाभाविक भोजन में सम्मिलित करता हो। मनुष्य ही एक ऐसा विलक्षण जीव हैं जिसने प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक भोजन को नमक और शक्कर से चटपटा करके ऐसा बना दिया है जिससे न तो भोजन की उपयुक्तता का पता चलता हैं और न मात्रा का । स्वाद ही स्वाद में जीभ धोखा खाती रहती है। अखाद्य पदार्थों को अनावश्यक मात्रा में उदस्य करती रहती हैं। फलस्वरूप हमें अपने आरोग्य और दीर्घजीवन की वलि इस चटोरेपन की वेदी पर चढ़ानी पड़ती है। यदि भोजन में नमक और शक्कर न मिलाया जाय, मसाले न डाले जायें तो वह अपने स्वाभाविक रूप में रहेगा । फिर यह पहचानना सरल होगा कि कौन भोजन उपयुक्त हैं, कौन अनुपयुक्त? अभी तो पाक −कला के आधार पर माँस जैसे घृणित, दुर्गन्धित और सर्वथा हानिकारक पदार्थ तक को मिर्च मसालों के बल पर स्वादिष्ट बना लिया जाता है और बेचारा मुख यह परीक्षा भी नहीं कर पाता कि यह खाद्य है या अखाद्य । यदि मसाले न पड़ें तो जीभ उसके वास्तविक गुण दोषों को जान लेगी और तब मास को गले से नीचे उतार सकना कठिन होगा। इसी प्रकार पेट भर जाने पर भी स्वाद ही स्वाद में जो ठूँसा ठाँसी होती हैं वह भी रुक जाएगी और आरोग्य के मार्ग में खड़ी हुई एक सबसे बड़ी बाधा दूर हो जाएगी।।

अस्वाद व्रत का महत्व

आरोग्य ही नहीं, मन को वासना सक्त होने से रोकने की दृष्टि से भी यह आवश्यक हैं कि स्वादेन्द्रिय पर अंकुश लगाया जाय। इस दृष्टि से नमक और मीठा दोनों को ही छोड़ देना अच्छा रहता हैं। यह निराधार भय है कि इससे स्वास्थ्य खराब हो जाएगा । सत्य तो यह है कि इस संयम से पाचन क्रिया ठीक होती हैं, रक्त शुद्ध होता हैं, इन्द्रियाँ सशक्त रहती हैं, तेज बढ़ता हैं और जीवन-काल बढ़ जाता हैं। इनसे भी बढ़ा लाभ यह है कि मन काबू में आता हैं। चटोरेपन को रोक देने से वासना पर जो नियंत्रण होता है वह धीरे-धीरे सभी इन्द्रियों को वश में करने वाला सिद्ध होता हैं। जिस प्रकार पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में स्वादेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय ही प्रबल हैं, उसी प्रकार स्वाद के षट् रसों में नमक और मीठा ही प्रधान हैं। चटपटा, खट्टा, कसैला आदि तो उनके सहायक रस मात्र हैं। इन दो प्रधान रसों पर संयम प्राप्त करना षट् रसों को त्यागने के बराबर ही हैं। जिसने स्वाद और काम-प्रवृत्ति को जीता उसकी सभी इन्द्रियाँ वश में हो गई । जिसने नमक, मीठा छोड़ा, उसने छहों रसों को त्याग दिया, ऐसा ही समझना चाहिए। मन को वश में करने के लिए यह संयम-साधना हर साधक को किसी न किसी रूप में करनी ही होती हैं।

हमें भी इस दिशा में एक कदम उठाना ही चाहिए। आरम्भ में वह छोटा हो तो भी हर्ज नहीं। सप्ताह में एक दिन अस्वाद व्रत रखना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। रविवार या गुरुवार के दिन इसके लिए अधिक उपयुक्त हैं। उस दिन जो भी भोजन किया जाय उसमें नमक मीठा मिला हुआ न हो। उबले हुए आलू, टमाटर, दही, दूध उबले हुए अन्य शाक, बिना नमक, मसाले की अलौनी दाल आदि क साथ रोटी खा लेना बिलकुल साधारण सी बात हैं। दो चार बार चटोरापन की पुरानी आदत के अनुसार अखरेगा तो सही पर सन्तोष और धैर्य पूर्वक उस भोजन को भूख बुझाने जितनी मात्रा में आसानी से खाया जा सकेगा। दो चार बार के अभ्यास से तो वह अलौना भोजन ही स्वादिष्ट लगने लगेगा। अलौनेपन का अपना एक अलग ही स्वाद है और वह जिन्हें पसन्द आ जाता है उन्हें दूसरे स्वाद रचते ही नहीं।

आत्मिक और लौकिक दोनों ही लाभ

अस्वाद-व्रत अपने आप में एक महान् व्रत हैं। महात्मा गाँधी ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की हैं और अपने सप्त महाव्रतों में इसे प्रमुख स्थान दिया हैं। सप्ताह में एक दिन भी इसे पालन किया जाय तो मन की संयम शक्ति और दृढ़ता बढ़ती हैं। यह बढ़ोत्तरी धीरे-धीरे मनुष्य में उन गुणों का भी विकास कर देती हैं जो महान् पुरुषों में होने ही चाहिये। अस्वाद-व्रत के दिन यदि एक ही समय भोजन किया जाय तो और भी उत्तम हैं। इससे पेट को विश्राम मिलेगा और राष्ट्र की खाद्य समस्या सुलझाने के लिए अन्न की मितव्ययिता का देशभक्ति पूर्ण सत्कर्म भी सहज ही बन पड़ेगा। दोपहर को भोजन लिया जाय, इसके अतिरिक्त सवेरे या रात को भूख लगे तो दूध, छाछ आदि कोई पतली चीज ली जा सकती हैं। दोपहर के भोजन में भी अनेक कटोरियाँ सजाने की अपेक्षा यदि रोटी के साथ शाक, दाल, दही , आदि में से कोई एक ही वस्तु लगा कर खाने के लिए रखी जाय तो और भी उत्तम हैं ।एक साथ अनेक प्रकार की चीजें खानें से पाचन क्रिया बिगड़ती हैं, यह सर्वविदित तथ्य हैं । स्वाद के लिए ही लोग नाना प्रकार के व्यंजन बनाते और थाल सजाते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से तो जितनी कम चीजें एक साथ खाई जाय उतना ही पाचन ठीक होता हैं। इसलिए स्वास्थ्य की दृष्टि से भी और समय की दृष्टि से भी रोटी के साथ एक ही वस्तु लगाने के लिए रखी जाय तो अधिक उपयुक्त हैं।

विवेकपूर्ण उपवास

यह अस्वाद-व्रत जिसमें एक समय, एक ही लगावन के साथ रोटी खाई जाय उस रुढ़िमात्र के उपवास से हजार गुना उत्तम है जिसमें केवल अन्न छोड़ा जाता है और नाना प्रकार के मिष्ठान, कूटू सिंघाड़ा आदि के पकवान, चाट पकौड़ी, सेंधा नमक और काली मिर्च से भरपूर बनाकर साधारण दिन से भी अधिक मात्रा में उदरस्थ किये जाते हैं। कुछ लोग अन्नाहार त्याग कर अरबी, शकरकंद, खीरा, सड़े या कच्चे सस्ते फल आदि पेट में गड़बड़ी उत्पन्न करने वाली सस्ती चीजें उपवास में खा जाते हैं इससे उन्हें उलटी हानि उठानी पड़ती हैं ।उपवास ही करना हो तो उसके लिए दूध या छाछ पर रहना चाहिए। फल लेना हो तो सुपाच्य और ठीक प्रकार पके हुए देख परख कर ही उन्हें लेना चाहिए। अविवेकपूर्ण फलाहार से उपवास का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता, करना हो तो उसे विचार पूर्वक ही करना चाहिये। अन्यथा एक समय भोजन का उपयुक्त विधि से किया हुआ अस्वाद व्रत भी एक प्रकार का उपवास ही हैं। उपवास किसी भी प्रकार का क्यों न हो उसमें अस्वाद व्रत का समावेश अवश्य होना चाहिए।

पाप-प्रायश्चित्त के तप-व्रत

हम इस वर्ष साप्ताहिक अस्वाद-व्रत से अपनी संयम-साधना आरंभ करें। आगे क्रमशः इसका विकास करते हुए अन्य इन्द्रियों को तथा मन का वशवर्ती बनावें। यह संयम-साधना किसी समय चांद्रायण आदि व्रतों के उपयुक्त भी हमारी मनोभूमि को बना सकती हैं, जिसके आधार पर इस जन्म के किये हुए सब पापों का प्रायश्चित्त करके अगले जन्म के लिए कोई बुरा प्रारब्ध योग शेष न रहने देने का भी महान् पुरुषार्थ कर सकते हैं। इस जन्म में हमें पिछले प्रारब्ध भुगतने पड़ रहे हैं। पिछले सब प्रारब्ध इस जन्म में भुगत जावे इसी हिसाब से यह जन्म मिलता हैं। यदि हम पिछले प्रारब्ध भुगत लें और अगले जन्म के लिए नये प्रारब्ध बनने न दें तो सब बन्धनों से सहज ही छुटकारा मिल सकता हैं। अस्वाद व्रत को आरम्भ करके परिपुष्ट हुई मनोभूमि कभी इस योग्य भी हो सकती हैं कि कष्टसाध्य प्रायश्चितों के द्वारा इस जन्म क प्रारब्धों को भी इसी जन्म में भुगत लेने का साहस उत्पन्न हो जावे। यदि इस सरल और शुभ आरंभ को श्रद्धा पूर्वक आगे बढ़ाया जा सका तो स्वजनों को भव बन्धनों से पार होने की प्रायश्चित्त साधना भी घर में रह कर ही बन सकेगी और तब जीवन लक्ष प्राप्त कर सकना कुछ भी कठिन न होगा। अन्नमय-कोश को शुद्ध करने एवं जीतने के लिए अन्न की शुद्धि आवश्यक है। इस संबंध में धीरे 2 अभ्यास डालते हुए अन्न शुद्धि की उस महान् प्रक्रिया को भी पूर्ण किया जा सकेगा जिस पर मन की शुद्धि निर्भर है। अभी पहला कदम तो हमें साप्ताहिक अस्वाद व्रत के सरल आधार पर ही उठाना चाहिए।


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