पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण में दो ध्रुव हैं। दोनों को ही पृथ्वी की धुरी कहा जाता हैं और दोनों में ही असाधारण शक्ति केन्द्रीभूत मानी जाती हैं। इसी प्रकार चेतन तत्त्व के भी दो ध्रुव हैं जिन्हें माया और ब्रह्म कहा जाता हैं। जीव इन्हीं दोनों के बीच कभी इधर कभी उधर कभी उधर खिंचता रहता हैं। यह दो दिशाएँ एक दूसरे के प्रतिकूल पड़ती हैं। इसलिए परस्पर विरोध दीखता है। खुदा और शैतान एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी चित्रित किये गये हैं। देवता और असुर भी एक दूसरे से टकराते हैं। देवासुर की कथाओं पुराणों के पन्ने-पन्ने पर भरी पड़ी हैं। श्रेय मार्ग और प्रेय मार्ग दोनों एक दूसरे से विपरीत माने जाते हैं। भोग और त्याग का मार्ग पृथक् 2 दिशाओं को चला गया हैं। यद्यपि इन दोनों का एक स्थान पर समन्वय भी हो जाता है और उस समन्वय की स्थिति को ही पूर्णता की स्थिति कहा जा सकता हैं। पर प्रारंभ में यह दोनों मार्ग निश्चित रूप से भिन्न हैं और उनमें से एक को ही प्रधानता देनी पड़ती हैं दूसरे को गौण मानना पड़ता हैं
दो मार्ग में से एक का चुनाव
मायावी असुरता का पक्ष ‘प्रेय’ मार्ग कहलाता हैं। इस पर चलने वाले मनुष्य का दृष्टिकोण यह होता हैं कि जिसके मन और इन्द्रियों को जो कुछ प्रिय लगे उसे ही अपनाये, भले ही उसका परिणाम पीछे कितना ही अहितकर क्यों न होता हो। आज अधिकांश व्यक्ति इसी मार्ग पर चलते दिखाई पड़ते हैं। इन्द्रियों को जो प्रिय हैं उसी को असीम मात्रा में पाने और भोगने के लिए हर कोई उतावला हो रहा हैं। जीभ की खुजली तरह-तरह के स्वादिष्ट पदार्थ खाने से मिटती हैं तो हमारा प्रयत्न यही रहता हैं कि एक-से −एक बढ़िया, एक-से-एक चटपटे, मीठे, खट्टे, पकवान, मिष्ठान, चाट पकौड़ी खाने को मिलें । फिर जब यह पदार्थ सामने आते हैं तो यह होश नहीं रहता कि क्या खा रहे हैं कितना खा रहे हैं, पेट के लिए इनकी कुछ उपयोगिता या आवश्यकता भी है कि नहीं। चटोरा आदमी केवल स्वाद देखता है और हकीम दुकान के शब्दों में जीभ से अपनी कब्र खोदता हैं।
अधिकांश रोग पेट की खराबी से होते हैं। यदि पेट ठीक रहे तो निरोगिता सुरक्षित रहेगी, पर देखा जाता है कि लोगों की जीभ काबू में नहीं होती। गरीब, अमीर सभी अपने भोजन को मिर्च मसाले और गुड़-शक्कर के आधार पर स्वादिष्ट बना लेते हैं और फिर उसे पेट की आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा जाते हैं। परिमाण स्पष्ट हैं, पाचन क्रिया खराब होती है, अशुद्ध रक्त बनने लगता है और मद अथवा तीव्र रोगों का अंगार शरीर में जमता है। अन्ततः मौत-बुढ़ापे के दिन तेजी से निकट आ जाते हैं। प्रेय मार्ग का यही परिणाम है। इन्द्रियों को जो चीज प्रिय लगती है मन उसके पीछे तेज से, उतावली से बेतहाशा भागता हैं, आगा पीछा सूझना नहीं क्षणिक प्रसन्नता के लिए स्थायी स्वार्थों की भयंकर क्षति कर बैठता हैं।
असंयम का दुष्परिणाम
ब्रह्मचर्य को स्वास्थ्य का मेरुदंड माना गया हैं। जिसने अपने शरीर में वीर्य और ओज का जितना संचय किया है उसका मस्तिष्क उतना ही प्रबुद्ध और शरीर उतना ही सतेज रहेगा। कुछ महान् कार्य सम्पादन करा सकने वाली जीवनी शक्ति का कोष जमा होना ब्रह्मचर्य पालन पर ही निर्भर हैं। यह जानते हुये भी कितने ही लोग कुछ क्षणों की एक तुच्छ-सी खुजली को मिटाने के लिए शरीर का अमृत-तत्त्व अनुचित मात्रा में निचोड़ते रहते हैं। इन्द्रिय आवेश में उन्हें यह सब बहुत ही आनन्ददायक, सुखकर, एक बड़ी प्रसन्नता और सफलता जैसा लाभ लगता हैं। उस समय कुछ क्षण स्वर्ग सुख जैसे लगते हैं, जिनके सम्मोहः में आगामी हानि आँखों के आगे से ओझल हो जाती हैं। कालान्तर में उसका प्रतिफल जब स्वास्थ्य के खोखलेपन के रूप में दुर्बलता, बीमारी, अल्पायु में बुढ़ापा एवं अकाल मृत्यु के रूप में सामने आता हैं तो पता चलता हैं कि भूल बहुत भारी हुई। काम सेवन के क्षणिक सुख के बदले शारीरिक और मानसिक स्थिरता गवाँ दी गई। काँच बदले हीरा बेच दिया गया। यही प्रेय मार्ग हैं जिसमें आगा पीछा नहीं सूझता केवल वर्तमान की,अभी की, बात याद रहती है। आज की मौज से बदले भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाले खेल का नाम प्रेय हैं हम सब इसी भोंडे खेल में अज्ञानी बालकों की तरह लगे हुए हैं। जीवन धारण के लिए आवश्यक उपकरण प्राप्त होने तक कौन सन्तुष्ट रहता हैं? हर किसी को प्रचुर धन, सम्पत्ति का स्वामी बनने और अनन्त ऐश्वर्य का उपभोग करने की तृष्णा सताती रहती हैं। किसे कितना मिल सका, यह प्रश्न सर्वथा भिन्न हैं, क्योंकि उसके साथ प्रारब्ध, पुरुषार्थ, योग्यता और परिस्थितियों, का झंझट भी जुड़ा हुआ हैं। भले ही असफलता हाथ लगे पर प्रयत्न हर घड़ी इस तृष्णा की पूर्ति के लिए ही रहता है। इसी गोरख-धंधे में मानव जीवन जैसी बहुमूल्य वस्तु नष्ट हो जाती हैं। कोई महत्त्वपूर्ण कार्य उसमें नहीं हो पाता और मौत की घड़ी सामने आ खड़ी होती हैं। जो धन कमाया था वह भी दूसरों के लिए छोड़कर खाली हाथ प्रस्थान करना पड़ता हैं। तब आँखें खुलती हैं और तब पश्चात्ताप ही हाथ रह जाता हैं। प्रेय मार्ग ऐसा ही दुखदायी हैं। इसमें आरम्भ भले ही सुखकर लगे अन्त सर्वथा दुखदायी होता हैं।
सत्यानाश का बीहड़ पथ
प्रेय मार्ग में एक भारी दोष यह है कि सीमित मात्रा में उपभोग प्राप्त होने से सन्तोष नहीं होता वरन् जितना-जितना उपभोग मिलता हैं उतनी ही तृष्णा बढ़ती जाती है। क्या इन्द्रिय सुख, क्या धन दौलत, क्या मान-सम्मान क्या सत्ता अधिकार किसी में कितनी ही सफलता क्यों न मिले, सब कुछ स्वल्प ही दीखता है और वर्तमान उपलब्धि की अपेक्षा अनेक गुनी सफलता समृद्धि के लिए मन ललचाता हैं। यह लालच मन को हर घड़ी अशान्त बनाये रहता है और बहुधा वह अशान्ति इतनी उतावली का रूप धारण कर लेती है कि सब प्रकार की मर्यादाओं का परित्याग कर जैसे भी बने, वैसे उपभोग प्राप्त करने में मनुष्य जुट पड़ता हैं। चोरी, बेईमानी, दगाबाजी, छल, कपट, हत्या, शोषण, अपहरण, बलात्कार, व्यभिचार आदि अनेकों दुष्कर्म का एक ही कारण है-उपभोग की आकांक्षा का असीम हो जाना, अनियंत्रित हो जाना प्रेय मार्ग पर चलते-चलते मनुष्य ऐसे ही निविड़ बीहड़ में जा भटकता है।
तप-त्याग की दूरदर्शिता
जीवन का दूसरा ध्रुव है-श्रेय मार्ग। इसमें हमें आज की अपेक्षा कल को महत्व देना और भविष्य के सुख के लिए आज संयम का अपनाना पड़ता है। किसान अपनी फसल प्राप्त करने के लिए अपने घर में रखा हुआ अन्न खेत में बखेर देता हैं। वह बीज आगे चल कर अनेक गुना होकर प्राप्त तो होता हैं पर आज तो घर में रखी हुई बोरी खाली हो गई। विद्यार्थी दिन-रात पढ़ता हैं पूरी नींद सो भी नहीं पाता, खेलने और मस्ती करने की मौज छोड़कर किताब के नीरस पन्नों में सिर खपाता रहता है। घर से फीस लेकर जाता है। किताब कापियों में पैसे खर्च होते हैं, मास्टर की फटकार सुननी पड़ती हैं। इतना झंझट उठाने वाला विद्यार्थी जानता है कि अनन्त इसका परिणाम अच्छा ही होगा। जब शिक्षा पूर्ण करके अपनी बढ़ी हुई योग्यता का समुचित लाभ उठाऊंगा तब आज की परेशानी की पूरी तरह भर पाई हो जाएगी । श्रेय मार्ग ऐसा ही हैं इसमें आज को कष्टमय बनाकर कल के लिए आशा के अंकुर उगाने पड़ते हैं। पहलवानी सीखने वाला रोज अखाड़े जाता है, घण्टों दण्ड, बैठक लगाकर अपनी देह को कुचलता हैं। व्यायाम में इतनी मेहनत करता हैं जितनी एक मजूर या कैदी को भी नहीं करनी पड़ती । लंगोटी बाँधकर ब्रह्मचर्य से रहता है। तेल मालिश, पौष्टिक खुराक सभी तो खर्चीली बातें हैं। उद्योग धन्धा भी वह कुछ कर नहीं पाता क्योंकि अधिकांश समय पहलवानी की आवश्यकताएँ पूरी करने में लग जाता हैं। इतनी कठिनाइयाँ उठाकर भी जब वह हजारों आदमियों के सामने दंगल में कुश्ती पछाड़ना हैं और ‘हीरो’ बन कर पुरस्कार प्राप्त करता है तो उस सफलता में वह पिछली कष्ट साध्य साधना वसूल हो जाती हैं। वैज्ञानिक अन्वेषणकर्ता सारी जिंदगी प्रकृति के किन्हीं सूक्ष्म रहस्यों का एकाग्र भाव से एकान्त शोध कार्य में लगने पर कई आविष्कार होता हैं तो उसका लाभ सारे संसार को मिलता है। नेता, लोक-सेवक बलिदान, त्यागी, तपस्वी अपने आपको विश्व मानव के हित में होम देते हैं तब उस त्याग का लाभ सारे जगत को मिलता हैं। बीज अपनी हस्ती को गलाकर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता हैं। नींव में पड़े हुए पत्थरों की छाती पर विशाल भवनों का निर्माण हुआ हैं। माता अपने रक्त और माँस का दान कर गर्भ में बालक का शरीर बनाती है और उसे अपनी छाती का रस दूध पिलाकर पालती हैं तब कहीं पुत्रवती कहलाने का श्रेय उसे मिलता हैं। यही श्रेय मार्ग हैं।
सन्मार्ग घाटे का सौदा नहीं
श्रेयमार्ग का पथिक आरम्भ में घाटे में रहता दीखता हैं और प्रेय मार्ग पर चलने वाला तुरन्त लाभान्वित होता हैं । इस गोरखधन्धों को सुलझाने में बाल-बुद्धि के लोग बहुधा विचलित हो जाते हैं। श्रेय मार्ग पर चलने वाले का उपहास होता हैं उसे मूर्ख समझा जाता हैं और प्रेय मार्ग वाले मूँछों पर ताव देकर अपनी शेखी बघारते हैं। पर यही स्थान दूरदर्शिता एवं बुद्धिमत्ता की परीक्षा का भी हैं। जो यहाँ चूक गया वह अनन्त काल तक पछताता रहता हैं। जिसने साहस और विवेक का सहारा लेकर भविष्य-निर्माण की आशा में आज का कष्ट सहन स्वीकार कर लिया, वह मोती ढूँढ़ने वाले गोताखोर की तरह अन्त में निहाल ही हो जाता है। श्रेय पथ पर चलते हुए जो कष्ट सहन किया जाता हैं तप कहते हैं। तप को समस्त सुखों का जनक माना जाता हैं। तपस्वी लोग आरंभ में कष्ट सहन करते हैं पर अन्त में वह तप फलित होता है और वह तपस्वी अपना तथा अन्य अनेकों का भारी कल्याण करने में समर्थ होता हैं। निम्न मनोभूमि के लोगों में प्रेय के प्रति अत्यधिक आकर्षण होता हैं। वे सदा उसी की आकांक्षा एवं चेष्टा करते रहते हैं। उन्हें यह ध्यान भी नहीं रहता कि उतने मोह ग्रस्त होने से उनका भविष्य अन्धकारमय बनने जा रहा है। इस विमूढ़ स्थिति से उबरने और उबारने में ही आत्मा की भलाई हैं। इसलिए विवेकशील लोग इस बढ़ी हुई प्रेय प्रवृत्ति को रोकने में संयम साधना का आश्रय लेते हैं। अनेक व्रत उपवास, संयम नियम, त्याग, तप, तितीक्षा इसी उद्देश्य के लिए विनिर्मित हुए हैं। सदा ऐश आराम और सुख सुविधा की जिन्दगी काटते रहने से श्रेय की ओर अभिमुख होने और प्रेय को त्यागने की इच्छा ही नहीं होती। इसलिए कल्याण के अभिलाषी साधकों के लिए कुछ न कुछ ऐसी साधनाएँ करना अभीष्ट होता हैं जिससे सुख की आसक्ति घटे और तप में प्रवृत्ति बढ़े। इस दिशा में जितनी ही प्रगति होती जाती हैं उतना ही आत्मिक स्तर ऊँचा होता जाता हैं।
जीवनोद्देश्य का निर्धारण
आत्मिक प्रगति का पहला कदम यही हो सकता है कि हम अपना जीवनोद्देश्य निश्चित करें, लक्ष को स्थिर करें। यह लक्ष प्रेय नहीं श्रेय ही हो सकता हैं। प्रेय पथ पर सरपट तेजी से दौड़ती हुई जीवन की गति-विधि को मोड़ कर श्रेय पर चलाना है तो उसे मोड़ देते समय कुछ अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता हैं। भोग के स्थान पर संयम और विलास के स्थान पर तप की स्थापना करने से ही इस प्रकार का मोड़ दिया जा सकना संभव है। शरीर को अन्नमय कोश कहते हैं। इसमें अत्यधिक आसक्ति का होना, इसी के सुख, भोग, लाभ और ऐश्वर्य में ही अपनी अभिरुचि केन्द्रित कर लेना अन्नमय कोश में आबद्ध होना हैं। पाँचों बंधन काटने का श्रीगणेश यही से आरम्भ करना होगा। सबसे पहला प्रयत्न हमें यह करना है कि आत्मा के सुख को, लाभ को अपना वास्तविक लाभ मानते हुए उसे ही प्राथमिकता दें। इसके लिए यदि शरीर सुख में कोई कमी आती हो तो उसे खुशी-खुशी स्वीकार करने को तत्पर हों। इस मान्यता को विचारों तक ही सीमित न रखकर व्यवहार में उतारने की प्रक्रिया का नाम ‘तप’ हैं। साधना पथ का पहला चरण तप ही हैं। अन्नमय कोश की-शरीर-भाव की आसक्ति घटाने का प्राथमिक उपाय तप ही हैं। संचित कुसंस्कार तप की अग्नि में तपाये बिना जल नहीं सकते। इसलिए किसी न किसी रूप में आध्यात्म मार्ग के पथिक को ‘तप’ को अपने कार्य-क्रम में स्थान देना ही पड़ता हैं। हमें भी उसके लिए कटिबद्ध होना ही होगा।