प्रस्तुत साधना क व्यवहारिक स्वरूप

October 1961

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आध्यात्मिक विचारों को व्यवहारिक रूप में परिणत करने का नाम साधना है। आत्मिक स्तर को सभी दिशाओं से विकसित करने के लिये यह सर्वतोमुखी पंचसूत्री साधना पिछले पृष्ठों पर प्रस्तुत की गई है। यह शास्त्रोक्त है। तैत्तरीयोपनिषद् की तृतीय बल्ली (भृगु बल्ली) में पिता वरुण और पुत्र भृगु के संवाद रूप में इसका विवेचन हुआ है। पुत्र भृगु ब्रह्म को जानने की इच्छा करता है पिता वरण उसे तप करने का आदेश देते हैं। जब तप करने से उसकी आत्मा शुद्ध हो जाती है

मय कोशों की चर्चा करते हैं और उनके अनावरण द्वारा वे अनन्त आनन्ददायी ब्रह्म साक्षात्कार का होना संभव बताते हैं। साधना की यही परम्परा योग शास्त्र में अपना स्थायी स्थायित्व अनन्त काल से बनाये हुए है।

सर्वसुलभ साधना

यह साधना वनवासी योगियों के लिए भी संभव है और गृहस्थ कार्य में व्यस्त लोगों के लिए भी सरल है। योगी लोग अपनी विशेष परिस्थितियों में पूरा समय इसी साधना में लगाये रहने से ऋद्धि-सिद्धियों के अधिकारी बन सकते है और प्रकृति के अगणित रहस्यों को जानकर सूक्ष्म जगत पर अपना नियंत्रण स्थापित कर सकते है। गृहस्थों के लिए उतना संभव नहीं, वे थोड़ा समय और हलका सा श्रम ही इसमें लगा सकते है। फलस्वरूप चमत्कारी सिद्धियाँ से तो उन्हें वंचित रहना पड़ा है पर आत्म कल्याण का मार्ग योगीजन की भाँति ही खुला रहता है और वे उस साधारण श्रम की साधना का सहारा लेकर भी पूर्णता का लक्ष प्राप्त कर सकते हैं। इस अंक में प्रस्तुत साधना इसी प्रकार की है।

अन्नमय-कोश

अन्नमय-कोश की साधना में अपना लक्ष एवं दृष्टिकोण भौतिकवादी ही न रखकर आध्यात्मिक बनाने का प्रयत्न करना पड़ता है। इस मोड़ को देने के लिए तपश्चर्या आवश्यक मानी गई है। तप का अर्थ है इन्द्रिय संयम के लिए कष्ट सहना। इस उद्देश्य के लिए अस्वाद व्रत को साधना इस वर्ष बताई गई है। सप्ताह में एक दिन बिना नमक और बिना शक्कर का भोजन करना किसी के लिए भी कष्टकर नहीं हो सकता।

मनोमय-कोश

मनोमय-कोश की साधना में मन से कुविचारों को हटा कर उनका स्थान सद्विचारों को दिलाना पड़ना है। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग दो ही उपाय हैं। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग दो ही उपाय हैं। इसके लिए एक घण्टा या आधा घण्टा समय नियत कर लिया जाना चाहिए । जीवन को समुन्नत बनाने की प्रेरणा देने एवं उनका उपाय बताने वाला साहित्य ही स्वाध्याय क लिए चुना जाय। धीरे-धीरे समझ-समझ कर उसे पढ़े और उस पर मनन एवं चिन्तन करें तो ही स्वाध्याय की प्रेरणा अन्तःकरण में गहराई तक उतर सकेगी। इस प्रयोजन के लिए अभी अखण्ड-ज्योति से भी काम चल सकता है। उसका एक-एक लेख नित्य इसी दृष्टि से पढ़ा जाय। महीने में दो तीन बार भी उन लेखों को दुहराया जा सकता है। अब अखण्ड-ज्योति दैनिक स्वाध्याय के उपयुक्त ही पाठ्य सामग्री प्रस्तुत किया करेगी।

उपयुक्त सत्संग का आज कल सर्वथा अभाव ही दीखता है। इसलिए इस प्रक्रिया को हमें स्वयं आरंभ करना पड़ेगा। संगठित रूप से गायत्री परिवार की शाखाएँ साप्ताहिक सत्संग का आयोजन करती हैं। जहाँ वह क्रम चलता ही वहाँ उसे सक्षम बनाने में पूरा सहयोग करना चाहिए। जहाँ न चलता हो वहाँ आरम्भ करना चाहिए। कुछ भी न बन पड़े तो अपने घर के बच्चों को रात को सोते समय इकट्ठा कर लिया जाय और उन्हें रोचक ढंग से कथा कहानियाँ सुनाई जाय कहने की शैली अच्छी हुई तो उसे सुनने के लिए घर की स्त्रियाँ भी इकट्ठी हो जाया करेगी । कथा प्रसंगों के बीच-बीच में उपदेशात्मक शिक्षा भी देते चलना चाहिए। इस शैली का सत्संग हम में से हर व्यक्ति चला सकता है और उससे अपने सुसंस्कारों की परिपुष्ट के साथ-साथ दूसरों को भी सन्मार्ग की प्रेरणा दे सकता है। एक छोटा पुस्तकालय हम में से हर एक को चलाना चाहिए। अपनी अब तक की श्रेष्ठ पुस्तकों को जिल्द बाँधकर सुसज्जित रूप से अल्मारी में लगा लिया जाय और कम से कम पाँच सदस्य ऐसे बनाये जाय जिन्हें स्वाध्याय में रुचि उत्पन्न हो जाय। ऐसी रुचि उत्पन्न करना आज के समय को देखते हुए कुछ कठिन है। पर प्रयत्न करने से वह भी असंभव न रहेगा। लोगों के घरों पर अपनी पुस्तकें पढ़ने देने तथा फिर वापिस लेने जाने का कार्य कुछ अटपटा सा, तौहीन जैसा लगने वाला तो है पर इसमें अत्याधिक उच्चकोटि की आध्यात्मिक सेवा सन्निहित है। ब्रह्मदान का पुण्य और सत्परिणाम असाधारण है। इसलिए इस छोटे दीखने वाले किन्तु असाधारण महत्व के कार्य को हमें आरम्भ कर ही देना चाहिये । इससे अपना ही नहीं दूसरों का भी मनोमय-कोश विकसित हो सकने की व्यवस्था बनेगी।

प्राणमय कोश

प्राणमय-कोश की साधना के लिए प्राणाकर्षण प्राणात्मक की प्रक्रिया इस वर्ष के लिए है। पाँच प्राणायामों में 15-20 मिनट समय लगता है। प्रातः काल इसे आत्मिक व्यायाम के रूप में नियमित रूप से करना चाहिए। मनोबल, संकल्प शक्ति एवं आत्म तेज बढ़ाने के लिए यह सरल प्राणायाम बहुत प्रभावशाली सिद्धि होता है। प्राण संचार एवं क्रमिक शक्तिपात का लाभ प्राप्त करना हर किसी के लिए संभव नहीं क्योंकि उसमें किसी अत्यन्त प्राणवान् व्यक्ति के अनुग्रह सहयोग एवं दान की आवश्यकता पड़ती है। ढोंगी बहुत हैं पर वस्तुतः जिनमें प्राणवान करके किसी में शक्ति संचार की क्षमता हो और उसे निस्वार्थ भाव से देने की उदारता भी हो ऐसे गुरुजन आज कहाँ मिलते हैं? जिनके पास ऐसी शक्ति होती भी है वे वे अपनी सीमित सामर्थ्य से कुछ थोड़े ही सत्पात्रों का भला कर पाते हैं। सब की सहायता तो वे भी नहीं कर सकते। इस कठिनाई को देखते हुए उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा में ही हमें संतोष पूर्वक बैठना होगा और अपनी पवित्रता बढ़ानी पड़ेगी । पवित्रता बढ़ने पर भगवान ऐसे लाभ का कोई संयोग उपस्थित कर देते हैं।

विज्ञानमय-कोश

विज्ञानमय-कोश की साधना में भावना का परिष्कार प्रधान तत्त्व है। कृतघ्नता के घृणित पातक से अपनी मनोभूमि को इस वर्ष उबारे तो यह एक बहुत बड़ी बात होगी। अगले वर्षों में एक-एक करके भी इन प्रमुख पातकों को हटाया जाता रहा तो दश वर्ष में हमारी मनोभूमि पूर्ण पवित्र बन जायेगी । रात को सोते समय दिन भर के उपकारियों का स्मरण करना और प्रातःकाल चारपाई पर से उठते ही लोगों के अब तक के प्रमुख उपकारों का स्मरण करना और उन सब के लिए मन ही मन हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हुए अभिवन्दन करना हमारा नित्य कर्म होना चाहिए। गुरुजनों के नित्य चरण स्पर्श करना भारतीय संस्कृति का एक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण अंग है। इसे आरम्भ करना ही चाहिये। प्रातःकाल के नित्य कर्म में इस धर्म-कर्तव्य का भी स्थान रखा जाय।

आनन्दमय-कोश

आनन्दमय-कोश की साधना का उद्देश्य अपनी प्रेम भावना का बढ़ाना अपने चारों ओर प्रेम पूर्ण वातावरण उत्पन्न करना है। इसके लिये गायत्री जप करते हुये अपने को एक वर्ष के बालक के रूप में और गायत्री माता को अपनी सगी जननी मानकर उसके साथ क्रीड़ा करने, स्नेह पाने की ध्यान धारण बहुत ही उपयुक्त हैं। इससे भजन में मन ही नहीं लगता वरन् लगता वरन् प्रेम का मुरझाया हुआ अंकुर भी अंकुरित, पल्लवित और विकसित होकर चारों ओर अपनी दिव्य सुगन्धि से परम आनन्दमय वातावरण उत्पन्न कर देता है । मानव-जीवन में यदि कोई रस है, यदि कोई सार है तो वह प्रेम ही है। इसे ही परमात्मा भी कहा जाता है। भगवान को वश में करने का भक्ति-भावना ही एकमात्र उपाय है। यह शक्ति ओर कुछ नहीं व्यक्तिगत प्रेम का ही एक व्यापक स्वरूप है। इसी से अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति होती है।

साधना की दिनचर्या

प्रातःकाल सोकर उठते ही उपकारियों के उपकारों का स्मरण करना गुरुजनों के चरण स्पर्श करना, फिर नित्यकर्म से निवृत्त होकर 5 प्राणायाम, तत्पश्चात् मातृ-प्रेम की ध्यान धारण के साथ गायत्री का जप करना, इतने कार्यों के साथ प्रातःकाल का कार्यक्रम पूर्ण तो जाता है। प्राणायाम और जप में एक घण्टा लगाना चाहिए। जिन्हें कम समय हो वे इसमें भी कमी कर सकते है। स्वाध्याय के लिए दिन में कोई भी सुविधा का समय नियत किया जा सकता है। अपना पुस्तकालय, ज्ञान मन्दिर चलाने के लिए तथा उसके सदस्यों के गले पड़ कर सत्साहित्य पढ़ाने के लिए नित्य कुछ समय देना चाहिए। यह ज्ञान-सेवा छोटी दीखते हुए भी अत्यन्त उच्चकोटि की है। सत्संग की व्यवस्था अपनी ओर से करने का कोई प्रबन्ध बन सके तो उत्तम है अन्यथा घर में कथा-कहानियाँ कहने या कोई पुस्तकें पढ़कर दूसरों को सुनाने का कोई क्रम बन सकता है। आरंभिक झिझक को जीत लिया गया तो यह कार्यक्रम अपने लिए बड़ा मनोरंजक तथा आनन्ददायक प्रतीत होने लगेगा। रात को सोते समय पुनः दिन भर के उपकारियों का स्मरण करते हुए भगवान का ध्यान और धन्यवाद करते हुए सो जाना चाहिए। सप्ताह में एक दिन अस्वाद-व्रत रखना चाहिए। उस दिन सामूहिक सत्संग का कोई क्रम बन पड़े तो और भी उत्तम है। पुस्तकालय चलाने के लिए जिन्हें रोज समय न मिलता हो वे इस दिन अपने 5 सदस्यों से मिलें और पिछले सप्ताह दी हुई पुस्तकें वापिस लेकर अगले सप्ताह के लिए एक-एक पुस्तकें दे दे। इसी प्रकार से उन पाँचों से कुछ ज्ञान चर्चा भी करें।

अत्यन्त सरल किन्तु महान् प्रभावोत्पादक

इस प्रकार यह पंच-कोशी साधना क्रम बिना कोई विशेष अतिरिक्त समय खर्च कराये तथा बिना कोई विशेष कष्ट दिये एक-दो घण्टा समय ही नित्य लगाते रहने से बड़ी आसानी से चलता रह सकता है। यों यह साधारण सी साधना है पर इसका अन्त और परिणाम असाधारण है। यह आरंभिक कदम है। प्रगति पथ पर बढ़ते रहे तो यही कदम हमें लक्ष तक पहुँचा देंगे और हम वह सब कुछ प्राप्त कर सकेंगे जिसमें इस सुरदुर्लभ मानव-जीवन की सार्थकता सन्निहित है।

प्रस्तुत पंचकोशी साधना

(1) इस अंक में प्रस्तुत पंचसूत्री साधना के पाँचों अंगों की साधना जो न कर सके वे कुछ कम अंग लेकर आरम्भ कर सकते हैं। जिनने इस दश वर्षीय योजना के अंतर्गत पंचकोशी साधना आरम्भ की हो वे अपने निश्चय की सूचना मथुरा दे दें। उनके मार्ग को सरल बनाने के लिए सूक्ष्म सहयोग यहाँ से मिलता रहेगा।

(2)कुछ सत्पात्रों के लिए प्राण संचार और शक्तिपात शीर्ष लेख में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार विशेष सेवा करने का भी विचार है। इस सम्बन्ध में जिन्हें अभिरुचि हो पत्र द्वारा परामर्श कर लें।

(3)पंचकोशी साधना क्रम दश वर्ष तक चलेगा। अगले वर्ष की साधना का पाठ्यक्रम बताने के लिए हर साल अक्टूबर मास में इसी प्रकार अखण्ड ज्योति का एक छोटा साधना अंक निकलता रहेगा।

गायत्री तपोभूमि में−

(1)गायत्री तपोभूमि का निर्माण इस उद्देश्य से हुआ था कि यहाँ के वातावरण में रह कर साधक अपनी साधना को अधिक सरलता पूर्वक सफल बना सकें। इस भूमि पर पूर्वकाल में कितने ही ऋषियों ने तप किया है, यह स्थान अनेक युगों से तपोभूमि रहा है। उस पूर्व विशेषता को पुनः सजीव करने के लिये इस भूमि पर 108 कुण्डों का यज्ञ किया जाय, अखंड अग्नि एवं नित्य यज्ञ की व्यवस्था की गई, 240 करोड़ हस्तलिखित गायत्री मन्त्रों की स्थापना की गई एवं 2400 तीर्थों का जल-रत्न स्थापित किया गया। नवरात्रियों तथा नित्य नैमित्तिक जपो के निरन्तर होते रहने से गायत्री उपासना के लिये यह भूमि एक प्रकार से सिद्ध पीठ ही हैं। जिन्हें जय कभी, जितने दिन के लिए भी अवकाश मिले यहाँ रहकर अपनी साधना करें। व्यवहारिक मार्ग दर्शन, शान्तिमय वातावरण निवास की सब प्रकार की सुविधा, स्वास्थ्यकर जलवायु आदि कारणों से यहाँ रह कर गायत्री साधना करना अन्य स्थानों की अपेक्षा निश्चित रूप में अधिक फलप्रद हो सकता है।

(2) जो लोग गृहस्थ की जिम्मेदारियों से निवृत्त हो चुके हैं, वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहते हैं या शेष जीवन साधना में लगाने के इच्छुक हैं, उनके लिये गायत्री तपोभूमि में निवास के लिये हवादार स्वच्छ कमरे, नल, बिजली की सुविधा स्वाध्याय के लिये हजारों आध्यात्मिक पुस्तकों एवं सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं का सर्वांगपूर्ण पुस्तकालय, अस्वस्थ होने पर आश्रम के चिकित्सालय में औषधि की व्यवस्था, पुष्प पल्लवों से हरा-भरा नयनाभिराम प्रांगण, परमार्थ प्रेमी सत्पुरुषों का सान्निध्य आदि सभी बातें ऐसी है जिनसे अस्थिर मन भी स्थिरता एवं शान्ति लाभकर सकता है। अपने हाथ से भोजन बनाने के सभी साधन यहाँ मौजूद है। 10-15 रुपये मासिक में यहाँ की सस्ती परिस्थितियों में किफायत से चलने वाले अपनी गुजर कर सकते हैं।

(3)तपोभूमि में निवास करने वाले साधकों के लिए क्रमबद्ध शिक्षण व्यवस्था चलेगी। सभी को साधना के अतिरिक्त नियमित अध्ययन भी करना होगा। संस्कृत का सामान्य ज्ञान कराया जाएगा और नित्य के शिक्षा क्लास में क्रमशः गीता, रामायण, योगवाशिष्ठ, उपनिषद्, योग दर्शन एवं चारों वेदों का सार भाग पढ़ाया जाया करेगा। विचार विनिमय, सत्संग, शंका समाधान एवं प्रश्नोत्तर की विधि से साधकों के अध्यात्म ज्ञान में निरन्तर वृद्धि की जाती रहेगी।

(4) अभी ऐसे ही साधक रखे जावेंगे जो अपना भोजन व्यय स्वयं उठा सकें। शरीर से स्वस्थ, अनुशासन में रहने वाले, मधुरभाषी, सेवाभावी, साक्षर, सदाचारी एवं बीड़ी, तमाकू न पीने वाले साधकों को ही स्वीकृति मिलेगी। जिन्हें आना हो वे अपना पूरा परिचय लिखकर तपोभूमि में निवास करने की पूर्ण स्वीकृति प्राप्त करके तब आवें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118