स्वाध्याय, सत्संग और मनन-चिन्तन

October 1961

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स्वाध्याय के लिए ऐसा साहित्य चुना जाना चाहिए जो हमारी आध्यात्मिक प्रगति के लिए बुद्धिसंगत एवं व्यवहारिक सुझाव उपस्थिति करता हो। ऐसा साहित्य चाहे आधुनिक लेखकों का लिखा हुआ हो चाहे प्राचीन लेखकों का। पुस्तक कब लिखी गई थी? इस प्रश्न का उसकी उपयोगिता से कोई संबंध नहीं हैं। प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में भी बहुत-सा अनुपयुक्त और अवांछनीय साहित्य में भी बहुत-सा अनुपयुक्त और अवांछनीय तत्त्व मौजूद हैं और आधुनिक हिन्दी साहित्य में भी अत्यन्त उच्चकोटि का वांग्मय उपलब्ध हैं। कोई कथा पुराण बार बार पढ़ते रहने से भी स्वाध्याय का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। देवताओं और अवतारों की लीलाओं के ग्रन्थ पढ़ने से यदि हमारी आज की समस्याओं को सुलझाने और अन्तःकरण को ऊर्ध्वगामी बनाने में कोई विशेष सहायता नहीं मिलती हो तो उसे स्वाध्याय के लिए चुनना उपयुक्त न होगा। प्रेरणा प्राप्त करने के लिए ही स्वाध्याय किया जाता हैं। जो पढ़ा जाय वह ऐसा हो जो हमारे हृदय और मस्तिष्क का मंथन कर सके, पतन के पथ पर बढ़ते हुए पैरों को बलपूर्वक रोक कर उत्थान की ओर हमारा मुँह मरोड़ कर मोड़ सके। ऐसा प्राणवान सजीव साहित्य पढ़ने से किसी को आत्मोन्नति का लक्ष प्राप्त करने में सहायता मिल सकती हैं।

सत्साहित्य का अभाव

आज ऐसे साहित्य का अभाव हैं। किताबों की दुकानों में वासना भड़काने वाला, किताबों की दुकानों में वासना भड़काने वाला, कुरुचि को उत्तेजना देने वाला साहित्य भरा पढ़ा हैं। बिकता भी वही हैं। धर्म पुण्य के नाम पर कुछ क्या पुराणों की पोथियाँ इसलिए बिकती है कि लोक उनका पाठ मात्र कर लेने से सीधे स्वर्ग जाने की-अक्षय पुण्य के भागी होने की-बात सोचते हैं। बहुत प्रयत्न करने पर ही सन्मार्ग की ओर प्रेरणा देने वाला विचारपूर्ण साहित्य कहीं-कहीं मिलता हैं लोगों की रुचि इधर नहीं हैं इसलिए लेखकों, प्रकाशकों और विक्रेताओं को इधर आकर्षण भी नहीं है।। जो ऐसी चीजों को प्रस्तुत करें । फिर भी सर्वथा अभाव नहीं हैं। प्रयत्न करने पर जीवन निर्माण करने वाला साहित्य भी कहीं न कहीं मिल जाता हैं। उसे ढूँढ़ना और प्राप्त करना चाहिए तथा स्वाध्याय उसी का करना चाहिए।

अखण्ड ज्योति को माध्यम से

इस दिशा में परिजनों को अधिक परेशानी न हो इसलिए अब अखण्ड ज्योति भी दैनिक स्वाध्याय के उद्देश्य को पूरा करने जा रही हैं भविष्य में उसकी एक-एक पंक्ति इसी उद्देश्य को ध्यान रखते हुए लिखी जाया करेंगी। अब तक उसमें यदा-कदा अन्य प्रकार के लेख भी छपा करते थे पर अब आत्मोन्नति की दिशा में जनसाधारण का मार्गदर्शन करना ही एकमात्र लक्ष होगा। आत्म-सुधार आत्म-निर्माण आत्म-विकास से सम्बन्धित तथ्यों को ही पत्रिका के पृष्ठों पर स्थान दिया जाया करेगा। स्वाध्याय के लिए उसे निस्संकोच चुना जा सकता हैं। सरसरी नजर से बहुत तेजी से के साथ एक सपाटे में बहुत कुछ पढ़ डालना वर्र्र्र्यर्थ हैं। किस्से कहानियों की किताबें इस दृष्टि में पढ़ी जा सकती हैं कथानक का घटनाक्रम जल्दी ही जान लेने की उत्सुकता में लोग बड़ी तेजी से कहानियाँ तथा उपन्यास पढ़ते हैं। वहाँ यह बात भले ही ठीक हो पर आत्म-निर्माण के लिए स्वाध्याय करना हो तो इस प्रकार कभी नहीं करना चाहिए। उससे हाथ कुछ नहीं पड़ता, लाभ कुछ नहीं होता। केवल इतना मात्र सन्तोष हो जाता हैं कि इतने पृष्ठ हमने पढ़ लिए। पर यदि थोड़ी देर बाद ही उनसे पूछा जाय कि आपने क्या पढ़ा तो शायद उन्हें कुछ भी याद न मिलेगा । ऐसे पढ़ने से क्या लाभ?

स्वाध्याय की साधना का अंग

जप, ध्यान पूजा, अर्चा की ही तरह स्वाध्याय भी साधना का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रधान अंग हैं । उसके लिए भी नियत समय पर स्वस्थ चित्त होकर शान्तिमय स्थान पर बैठना चाहिए और धीरे-धीरे समझ-समझकर एक-एक पेराग्राफ पढ़ना चाहिये । हो सके तो उस पेराग्राफ को एकबार और दुहरा लिया जाय तब फिर दूसरा पेराग्राफ पढ़ना आरंभ किया जाय। लाल पेन्सिल पास में रखी जाय। जो विचार महत्त्वपूर्ण जचें उन पर निशान लगा लेने चाहिए। जिससे उन पर पुनर्विचार भी किया जाता रहे। कोई दूसरा व्यक्ति उप पुस्तक को पढ़े तो वह भी उस निशान लगी हुई पंक्तियों को अनेक ध्यान से पढ़ सकेगा। यदि पुस्तक अपनी निज की हो तब तो अवश्य ही इस प्रकार निशान लगाने चाहिए। पुस्तकालय या दूसरों की माँगी पुस्तकों पर ऐसा न किया जाय। पुस्तक का एक अध्याय या पत्रिका एक लेख ही एक दिन में पढ़ना चाहिये। जितना पढ़ा गया हैं उस पर मनन और चिन्तन अधिक किया जाय। लेख में प्रस्तुत किये हुए तथ्य कहाँ तक उचित हैं यह विवेकपूर्वक सोचना चाहिए। उस पर तर्क विश्लेषण और विचार करके यह देखा जाय कि बात कहाँ तक ठीक हैं। यह आवश्यक नहीं कि पढ़ी हुई पंक्तियों से पाठक पूर्णतया सहमत ही हैं। जो बात अनुपयुक्त लगे उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिए और जो उपयोगी लगे उसकी महत्ता पर बारबार अनेक दृष्टियों से सोच विचार किया जाय। मनन का तात्पर्य यह है कि सामने उपस्थित तथ्य की उपयोगिता अनुपयोगिता पर पक्ष-विपक्ष के विचार से आवश्यक काट-छाँट करते हुए, वस्तु स्थिति को समझने का प्रयत्न किया जाय। इस प्रकार के मनन से ही मनुष्य किसी निष्कर्ष पर पहुँचता हैं। ऐसा निष्कर्ष ही मनोभूमि में गहराई तक उतरता हैं। जहाँ बन्द करके हर बात को ठीक मान लेने की प्रवृत्ति मानसिक दुर्बलता का चिह्न हैं। इस दृष्टि से जो पढ़ा सुना जाएगा वह बहुत ही उथला रहेगा, जड़ न पकड़ेगा और कुछ ही समय में उसका प्रभाव चला जाएगा। इसलिए जो भी पढ़ा जाय उसका मनन किया जाय।

मनन और चिन्तन भी किया जाय

गाय, बैल घास खाकर पेट पूरा भर लेते हैं तो शान्तिपूर्वक बैठ जाते हैं और उस खाये हुए को फिर से चबाने के लिए ‘जुगाली’ करते रहते हैं। इससे जल्दी में खाया हुआ उनका भोजन ठीक तरह पच जाता हैं। स्वाध्याय की जुगाली मनन हैं । जो पढ़ा गया हो उस पर बारबार विचार करना चाहिए। अनेक दृष्टिकोणों से उस बात को सोचना चाहिए और तर्क-वितर्क के बाद यदि वह बात उचित प्रतीत हो तो सच्चे मन से उसे हृदयंगम कर लेना चाहिए। चिन्तन इससे आगे का कदम हैं। प्रस्तुत स्वाध्याय में से जो बात हृदयंगम की गई हो उसे अपने जीवन में कैसे ढाला जाय इसकी योजना बनाना चिन्तन हैं। सद्गुणों, सद्विचारों, सत्कर्मों के बारे में मढ़ लेना या उनकी उपयोगिता स्वीकार कर लेना ही पर्याप्त न होगा वरन् यह भी विचार करना पड़ेगा कि इन उपयोगिता बातों को हमारे जीवन में व्यवहारिक रूप से स्थान कैसे मिले? यह ठीक है कि आज ही सारे कुविचार और कुसंस्कार नहीं छूट सकते और सारी उत्तम योजनाएँ आज ही पूरी तरह जीवन में उतार लेना संभव नहीं हो सकता, पर आखिर उस संबन्ध में सोचना विचारना तो आवश्यक ही हैं इससे मनोभूमि तो तैयार होगी, रुचि तो बढ़ेगी, दृष्टिकोण तो बनेगा। फिर धीरे-धीरे उस दिशा में कदम भी बढ़ने लगेंगे। आज न सही तो कल, मनुष्य के सपने साकार होते ही हैं। यदि गंभीरतापूर्वक आध्यात्मिकता और धार्मिकता की उपयोगिता स्वीकार की गई हैं तो जीवन का ढाँचा उसी प्रकार ढलना भी शुरू होगा ही। प्रगति धीमी रहते हुए भी देर सवेर में यात्री अपना लक्ष प्राप्त कर ही लेता हैं। मनन और चिन्तन से अपने उज्ज्वल भविष्य की जो कामना जागृत की गई हैं उसे सींचते रहा जाय तो एक दिन उसका पल्लवित होना भी सुनिश्चित हैं।

आत्म-निरीक्षण की प्रवृत्ति

स्वाध्याय से आत्म-निरीक्षण की प्रवृत्ति जागृत होती है। सद्ग्रन्थों में उपस्थित आदर्श से जब मनुष्य अपनी तुलना करता है तभी वह समझ पाता है कि मानवता के मापदण्ड से अभी वह कितना पीछे हैं। उसके अन्दर कितनी मात्रा में क्या-क्या दोष-दुर्गुण भरे पड़े हैं। उन्नतिशील बनने के लिए जिन आवश्यक गुणों की कमी जब अपने में दिखाई पड़ने लगती हैं तभी वह उसकी पूर्ति की बात सोचता हैं। यही उन्नतिशील होने की प्रक्रिया है। जब तक मनुष्य अपनी त्रुटियाँ न देख पावेगा और उन्हें छोड़कर सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए तत्पर न होगा तब तक उसकी वर्तमान हीन अवस्था में कोई परिवर्तन भी सम्भव न होगा। प्रगति तभी होती है जब मनुष्य कुछ भूलता और कुछ सीखता है, कुछ छोड़ता और कुछ ग्रहण करता है। साधारण मनुष्य अपने को निर्दोष मानते हैं और अपनी कठिनाइयाँ का दोष दूसरों पर मढ़ते रहते हैं पर जब जीवन-तथ्यों का मनन और चिन्तन करने पर अपने सुधार और प्रतिक्षण की बात समझ में आ जाती है तो आधी समस्या हल हो जाती हैं। आज तक संसार में जितने किसी भी दिशा में प्रगति की है उन्हें यही मार्ग अपनाना पड़ा हैं।

मनोमय कोश कैसे खुले?

स्वाध्याय और सत्संग से, मनन और चिन्तन से आत्म-निरीक्षण की प्रवृत्ति पैदा होती हैं। मन का स्तर हीनता से उठकर उच्चता की ओर अग्रसर होता हैं। मनोमय कोश का आवरण सद्विचारों से ही खुलता हैं। जिसके मस्तिष्क में प्रगतिशील और प्रकाशवान् विचारों का नया जल नहीं पहुँचता, उसका अन्तः प्रदेश सड़े, गले, गन्दे नाले की तरह अवरुद्ध पड़ा हुआ दिन-दिन अधिक दुर्गन्धित बनता जाता हैं। मन की शक्ति विचारों पर ही अवलम्बित हैं। जिसके जितने उच्चकोटि के विचार होंगे वह उतना ही महान् हैं उतना ही उसे आत्मिक दृष्टि से समुन्नत माना जायेगा । कोई जप तप कितना ही क्यों न करे पर यदि उसका मन संकीर्णता, अनुदारता, स्वार्थपरता आदि तुच्छताओं से भरा हुआ हैं तो वह आत्मिक प्रगति का दृष्टि से पिछड़ा हुआ ही माना जायेगा । प्रगति के दूसरे द्वार मनोमय कोश का परिष्कार बहुत कुछ हमारे स्वाध्याय और सत्संग पर-मनन और चिन्तन पर निर्भर रहता हैं।

जिस प्रकार भजन के लिए दैनिक जीवन में कोई समय नियमित रूप से निकालना पड़ता हैं उसी प्रकार स्वाध्याय के लिए कोई समय नियत रहना चाहिए। केवल माला जप का ही नाम भजन नहीं, स्वाध्याय भी भजन का ही एक अंग हैं। शरीर के केवल एक ही अंग को पुष्ट करने से काम नहीं चलता वरन् सभी अंगों का ध्यान रखना पड़ता हैं । साधना भी एकांगी नहीं सर्वांगीण हैं। शरीर का कोई एक ही अंग पुष्ट हो और बाकी सब दुर्बल हो तो इससे अच्छे स्वास्थ्य काक प्रयोजन सिद्ध न होगा। कोई मनुष्य केवल घी ही खाये और अन्न, शाक आदि को त्याग दे तो घी पौष्टिक और प्रशंसनीय होते हुए भी स्वास्थ्य को स्थिर न रख सकेगा। भजन यदि अकेला ही रहे, स्वाध्याय सत्संग का खाद पानी न मिले तो वह भजन का बीज भी फलने-फलने की स्थिति तक न पहुँच सकेगा। इसलिए हमारे दैनिक जीवन में स्वाध्याय और सत्संग के लिए किसी न किसी रूप में नियमित अवसर होना ही चाहिए।

स्वाध्याय का व्रत

हमें स्वाध्याय का व्रत लेना चाहिये। अभी अखंड-ज्योति का एक लेख प्रतिदिन उपयुक्त विधि से पढ़ना आरंभ करें। महीने भर में नया अंक आने तक उन लेखों को दो या तीन बार दुहा सकते हैं। उन्हें मनोयोग पूर्वक पढ़ा जाय तो प्रत्येक बार उनमें कुछ नई बात मिलेगी और पहली बार की अपेक्षा दूसरी बार और भी अधिक रस आयेगा । अन्य सत्साहित्य भी इसके लिए चुना जा सकता हैं पर उसका विषय आत्मसुधार, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास ही होना चाहिए। इन्हीं विषयों को पढ़ना स्वाध्याय के उद्देश्य को पूरा कर सकेगा। यह स्वाध्याय ही हमारी साधना का दूसरा कार्यक्रम हैं।


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