आमतौर से उपासना करने वालों को यह शिकायत रहती कि भजन करते समय उनका मन स्थिर नहीं रहता, अनेक जगह भागता रहता है। साधना में मन न लगे, चित्त कहीं का मारा कहीं भागा फिरे तो उसमें यह आनन्द नहीं आता जो आना चाहिए। इस कठिनाई का उपाय सोचने से पूर्व विचार करना होगा कि मन क्यों भागता है? भागकर कहाँ जाता है? हमें जानना चाहिए कि प्रेम का गुलाम है। जहाँ भी जिस वस्तु में प्रेम मिलेगा वही मन उसी प्रकार दौड़ जाय जैसे फल पर भौंरा जा पहुँचता है। साधारण लोगों का प्रेम अपने स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, व्यवसाय, यश, मनोरंजन आदि में होता है। इन्हीं प्रिय वस्तुओं में मन दौड़-दौड़कर जाता है। भजन को हम एक चिन्ह पूजा की तरह पूरा तो करते हैं पर उसमें सच्चा-प्रेम नहीं होता। इष्टदेव का भी हम कोई बहुत दूर का-अपने से सर्वथा भिन्न तत्त्व मानते हैं, उससे कुछ चाहते तो हैं पर अपने तथा उसके बीच में कोई प्रेम और आत्मीयता का सम्बन्ध सूत्र नहीं देखते । राजा और भिखारी के बीच जो अन्तर होता है वही हमें अपने और इष्टदेव के भीतर लगता रहता है। ऐसी दशा में मन यदि भजन में न लगे और अपने प्रिय विषयों में भागे तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं यह स्वाभाविक ही है।
बल पूर्वक नहीं
भजन में मन लगे इसके लिये बल पूर्वक मन को रोकने का यह प्रयत्न निष्फल ही रहता है। यह एक तथ्य है कि मन प्रेम का गुलाम है। वह वहीं टिकेगा जहाँ प्रेम होगा। यदि भजन के साथ प्रेम-भावना का समावेश कर लिया जाय तो निश्चित रूप से मन उसमें उसी प्रकार लगा रहेगा जैसा संसारी मनुष्यों का अपने स्त्री-पुत्र धन आदि में लगा रहता है।
नाम, रूप का जोड़ा
जप के साथ ध्यान का अनन्य सम्बन्ध है। नाम और रूप का जोड़ा है। दोनों को साथ-साथ लेकर ही चलना पड़ता है। अर्थ चिन्तन एक स्वतंत्र साधन है। गायत्री के एक एक शब्द में सन्निहित अर्थ और भाव पर पाँव-पाँच मिनट भी विचार किया जाय तो एक बार पूरा एक गायत्री मंत्र करने में कम से कम आधा या एक घण्टा लगना चाहिये। अधिक तन्मयता से वह अर्थ चिन्तन किया जाय तो पूरे एक मंत्र की भावनाएँ हृदयंगम करने में कई घंटे लग सकते हैं। मंत्र जप उच्चारण कितनी जल्दी से हो जाता है उतनी जल्दी उसके शब्दों का अर्थ ध्यान में नहीं लाया जा सकता। इसलिए जप के साथ अर्थ चिन्तन की बात सर्वथा अव्यावहारिक है। अर्थ चिन्तन तो एक स्वतंत्र-साधना है जिसे जप के समय नहीं वरन् कोई अतिरिक्त समय निकाल कर करना चाहिए। जप, योग-साधना का एक अंग है। योग चित्तवृत्तियों के निरोध को कहते हैं। जप के समय चित्त एक लक्ष्य में लगा रहना चाहिए। यह कार्य ध्यान द्वारा ही सम्भव है, इसलिए विज्ञ, उपासक जप के साथ ध्यान किया करते हैं। नाम के साथ रूप की संगति मिलाया करते हैं। यह तरीका सही भी है।
निराकार की उच्च-कक्षा
साधन की आरम्भिक कक्षा साकार उपासना से शुरू होती है और धीरे-धीरे विकसित होकर वह निराकार तक जा पहुँचती है। मन किसी रूप पर ही जमता है, निराकार का ध्यान पूर्ण परिपक्व मन ही कर सकता है, आरम्भिक अभ्यास के लिए वह सर्वथा कठिन है। इसलिए साधना का आरम्भ साकार उपासना से और अन्त निराकार उपासना में होता है। साकार और निराकार उपासना की दो कक्षाएँ है। आरम्भिक बालक पट्टी पर खड़िया और कलम से लिखना सीखता है वही विद्यार्थी कालान्तर में कागज, स्याही और फाउन्टेन पेन से लिखने लगता है। दोनों स्थितियों में अन्तर तो है पर इसमें कोई विरोध नहीं है जो लोग निराकार और साकार का झगड़ा उत्पन्न करते हैं वे ऐसे ही है जैसे पट्टी खड़िया और कागज स्याही को एक दूसरे का विरोधी बताने वाले। जब तक मन स्थिर न हो तब तक साकार उपासना करना उचित है। गायत्री जप के साथ माता का एक सुन्दर नारी के रूप में ध्यान करना चाहिए। माता के चित्र अखण्ड ज्योति कार्यालय से छपे हैं । पर यदि उनसे भी सुन्दर चित्र किसी चित्रकार की सहायता से बनाये जा सकें तो उत्तम हो। सुन्दर से सुन्दर आकृति की कल्पना करके उसे अपनी सगी माता मानकर जप करते समय अपने ध्यान क्षेत्र में प्रतिष्ठित करना चाहिए। अपने आपको एक साल के छोटे बच्चे की स्थिति में अनुभव करना चाहिए। छोटे बालक का हृदय सर्वथा शुद्ध निर्मल और निश्चिन्त होता है वैसा ही अपने बारे में भी सोचना चाहिए। कामना, वासना, भय, लोभ, चिन्ता, शोक, द्वेष आदि से अपने को सर्वथा मुक्त और सन्तोष, उल्लास एवं आनन्द में ओत-प्रोत स्थिति में अनुभव करना चाहिए । साधक का अन्तःकरण साधना काल में बालक के समान शुद्ध एवं निश्छल रहने लगे तो प्रगति तीव्र गति से होती है। भजन में मन लगता है और यह निर्मल स्थिति व्यवहारिक जीवन में भी बढ़ती जाती है।
एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ध्यान
माता और बालक परस्पर जैसे अत्यन्त आत्मीयता और अभिन्न ममता के साथ सुसम्बद्ध रहते हैं हिल-मिलकर प्रेम का आदान-प्रदान करते हैं वैसा ही साधक का भी ध्यान होना चाहिए। हम एक वर्ष के अबोध बालक के रूप में माता की गोदी में पड़े हैं और उसका अमृत सदृश दूध पी रहे हैं। माता बड़े प्यार से अपनी छाती खोल कर उल्लास पूर्वक अपना दूध हमें पिला रही है। वह दूध रक्त बन कर हमारी नस-नाड़ियों में घूम रहा है और अपने सात्विक तत्वों से हमारे अंग-प्रत्यंगों को परिपूर्ण कर रहा है। यह ध्यान बहुत ही सुखद है। छोटा बच्चा अपने नन्हे-नन्हे हाथ पसार कर कभी माता के बाल पकड़ता है कभी नाक-कान आदि में उँगलियाँ डालता है कभी अन्य प्रकार अटपटी क्रियाऐं माता के साथ करता है वैसा ही कुछ अपने द्वारा किया जा रहा है ऐसी भावना करनी चाहिए। माता भी जब वात्सल्य प्रेम से ओत-प्रोत होती है, तब बच्चे को छाती से लगाती है, उसके शिर पर हाथ फिराती है, पीठ खुजलाती है, थपकी देती है, पुचकारती है, उछालती तथा गुदगुदाती है, हँसती और हँसाती है वैसा ही क्रियाऐं गायत्री माता के द्वारा अपने साथ हो रही हैं यह ध्यान करना चाहिए। इस समस्त विश्व में माता और पुत्र केवल मात्र दो ही है और कहीं कुछ नहीं है। कोई समस्या, चिन्ता, भय, लोभ आदि उत्पन्न करने वाला कोई कारण और पदार्थ इस संसार में नहीं केवल माता और पुत्र दो ही इस शून्य नील आकाश में अवस्थित होकर अनन्त प्रेम का आदान-प्रदान करते हुए कृत-कृत्य हो रहे हैं।
भावना की अभिवृद्धि
जप के समय आरम्भिक साधक के लिए यही ध्यान सर्वोत्तम है। इससे मन को एक सुन्दर भावना में लगे रहने का अवसर मिलता है और उसकी भाग-दौड़ बन्द हो जाती है। प्रेम-भावना की अभिवृद्धि में भी यह ध्यान बहुत सहायक होता है। मीरा, शबरी, चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, रामकृष्ण परमहंस आदि सभी भक्तों ने अपनी प्रेम भावना के बल पर भगवान को प्राप्त किया था। प्रेम ही वह अमृत है जिसके द्वारा सींचे जाने पर आत्मा की सच्चे अर्थों में परिपुष्टि होती है और वह भगवान को अपने में और अपने को भगवान में प्रतिष्ठित कर सकने में समर्थ बनती है। यह ध्यान इस आवश्यकता की पूर्ति करता है।
उपरोक्त ध्यान गायत्री उपासना की प्रथम भूमिका में आवश्यक है। भजन के साथ भाव की मात्रा भी पर्याप्त होनी चाहिए। इस ध्यान को कल्पना न समझा जाय वरन् साधक अपने को वस्तुतः उसी स्थिति में अनुभव करे और माता के प्रति अनन्य प्रेम-भाव के साथ तन्मयता अनुभव करे। इस अनुभूति की प्रगाढ़ता में अलौकिक आनन्द का रसास्वादन होता है और मन निरन्तर इसी में लगे रहने की इच्छा करता है। इस प्रकार मन को वश में करने और एक ही लक्ष्य में लगे रहने की एक बड़ी आवश्यकता सहज ही पूरी हो जाती है।
आगे की अन्य भूमिकाएँ
साधना की दूसरी भूमिका तब प्रारम्भ होती है जब मन की भाग-दौड़ बन्द हो जाती है और चित्त जप के साथ ध्यान में संलग्न रहने लगता है। इस स्थिति को प्राप्त कर लेने पर चित्त को एक सीमित केन्द्र पर एकाग्र करने की ओर कदम बढ़ाना पड़ता है। उपरोक्त ध्यान के स्थान पर दूसरी भूमिका में साधक सूर्य मंडल के प्रकाश तेज में गायत्री माता के सुन्दर मुख में झाँकी करता है। उसे समस्त विश्व में केवल मात्र एक पीतवर्ण सूर्य ही दीखता है और उसके मध्य में गायत्री माता का मुख हँसता मुस्कराता हुआ दृष्टिगोचर होता है। साधक भावना-पूर्वक उस मुख मंडल को ध्यानावस्था में देखता है उसे माता के अधरों से, नेत्रों से, कपोलों की रेखाओं से, एक अत्यन्त मधुर स्नेह, वात्सल्य, आश्वासन, सान्त्वना एवं आत्मीयता की झाँकी होती है। वह उस झाँकी को आनन्दविभोर होकर देखता रहता है और सुध-बुध भुलाकर चन्द्र-चकोर की भाँति उसी में तन्मय होती है।
इस दूसरी भूमिका की साधना में ध्यान की सीमा सीमित हो गई। पहली भूमिका में माता-पुत्र दोनों का क्रीड़ा विनोद काफी विस्तृत था। मन को भागने-दौड़ने के लिये उस ध्यान में बहुत बड़ा क्षेत्र पड़ा था। दूसरी भूमिका में वह संकुचित हो गया । सूर्य मंडल के मध्य माता की भाव पूर्ण मुखाकृति पहले ध्यान की अपेक्षा काफी सीमित है। मन को एकाग्र करने की परिधि को आत्मिक विकास के साथ-साथ क्रमशः सीमित ही करते जाना होता है। तीसरी सर्वोच्च भूमिका में गायत्री माता के दाहिने नेत्र की पुतली ही ध्यान का केन्द्र बिन्दु है जिसे तिल कहते हैं उसका ज्योति में साधक अपनी आत्मा को उसी प्रकार होमता है जैसे जलती हुई अग्नि में लकड़ी को डालने से उसे भी अग्नि की समरूपता मिलती है। माता की ज्योति में अपने आपका आत्म-समर्पण करने से लय योग की सिद्धि होती है। उसी स्थिति में अद्वैत अनुभव होता है। आत्मा और परमात्मा एक हुये परिलक्षित होते हैं।
यह दूसरी और तीसरी ध्यान भूमिका अगले वर्षों में समयानुसार ही प्रयोग करने की हैं। गायत्री उपासक इस वर्ष प्रथम भूमिका का ही ध्यान करके अपने मन को एकाग्र करने की सफलता प्राप्त करें। इस वर्ष तो बालक के रूप में अपने को माता के साथ पायदान और क्रीड़ा कल्लोल करने की साधना ही उपयुक्त है। अगली ध्यान कक्षाओं को पार करते हुए मनोमय की प्रेम-समाधि जैसी स्थिति आ पहुँचती है और उसमें आत्म-साक्षात्कार का अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है।