मध्यकाल में यह मान्यता चल पड़ी कि गृहस्थ त्यागे बिना, संन्यास धारण किये बिना आत्मिक स्पष्टता नहीं हो सकती। बौद्ध और जैन धर्मों ने इस विचारधारा का प्रसार किया। बुद्ध ने राजपरिवार में जन्म लेकर स्त्री बच्चों को त्यागकर युवावस्था में संन्यास ग्रहण किया था। उनका प्रभाव जिन पर पड़ा उनने भी उनका अनुकरण किया और लाखों नर-नारियों ने पारिवारिक जीवन को तिलाञ्जलि देकर भगवा वस्त्र धारण कर लिए। भारत में सहस्रों मठ जगह जगह पर बन गये जिनमें भारी संख्या में भिक्षु भिक्षुणी रहने लगे।
चूँकि यह गृहत्याग आवेश में होता था, अनुकरण ही उनका प्रधान आधार था। संन्यास के लिए जिस पूर्व भूमिका की आवश्यकता होती हैं वह उन अनजानों में होती न थी। फलस्वरूप कुछ ही समय में बौद्ध मठ दुराचार के केन्द्र बन गये। वज्रयान हीनयान जैसी तान्त्रिक प्रक्रियाएँ उनमें से फूट पड़ी, भैरवी चक्रों में व्यभिचार व्याप्त हो गया। बिना पूर्व तैयारी के संन्यास गृहत्याग जैसे अत्यन्त कठिन कार्य को कन्धे पर उठ लेने के जैसे परिणाम होने चाहिए थे वैसे ही हुए।
प्राचीन काल में ऐसी पद्धति न थी। संन्यास कोई ब्रह्मचार्य न था वरन् एक मानसिक स्थिति मात्र थी। जिस प्रकार ब्रह्मचर्य पूर्ण होकर गृहस्थ धर्म अपनाने पर साधारण और स्वाभाविक मानसिक एवं रहन सहन सम्बन्धी परिवर्तन अपने आप हो जाता हैं वैसे ही गृहस्थ से वानप्रस्थ और वानप्रस्थ से संन्यास की मनोभूमि में प्रवेश करते समय बाह्य जीवन में कोई भारी परिवर्तन नहीं करना पड़ता था।
ऋषि युग के सभी ऋषि मुनि गृहस्थ थे। उन सब के स्त्रियाँ तथा बच्चे थे। उनमें से कुछ परिव्राजक बनकर भ्रमण का कार्यक्रम अपनाते थे या सदा ब्रह्मचारी रहना चाहते थे वे विवाह नहीं भी करते थे पर ऐसे ऋषियों की संख्या उँगलियों पर गिनते लायक ही थी। अधिकांश तो पारिवारिक जीवन के साथ ज्ञान, धर्म तथा आत्म कल्याण की साधना में संलग्न रहते थे।
योग के आदि प्रणेता भगवान शंकर स्वयं विवाहित थे। उनके दो विवाह हुए थे, सती और पार्वती उनकी दो स्त्रियाँ हुई। दो बच्चे थे कार्तिकेय और गणेश। भगवान कृष्ण योगेश्वर माने जाते हैं। गीता का महान् ज्ञान उन्हीं के द्वारा निःसृत हुआ हैं, वे भी गृहस्थ ही थे। पौराणिक गाथाओं के अनुसार तो उनकी अनेक स्त्रियाँ तथा बहुत संख्या में बालक थे। सृष्टि के आदि निर्माता ब्रह्मा की भी दो पत्नी थी सावित्री और गायत्री। उनके दस पुत्र उत्पन्न हुए। मानव जाति के आदि संस्कार कर्ता मनु के शतरूपा के साथ बहुसंख्यक संतान उत्पन्न कीं।
सप्त ऋषियों में से सातों ही गृहस्थ थे। कश्यप की पत्नी अदिति, वशिष्ठ की अरुन्धती, अत्रि की अनसूया, गौतम की अहिल्या, जमदग्नि की रेणुका, भारद्वाज की पैठिनसी, विश्वामित्र की हेमवती थी। इन सभी की सन्तानें थी। भृगु, अंगिरा, कृतु पुलह, प्रचेता, मरीचि पुलस्त, उछालक, कन्ध, याज्ञवल्क्य, पिप्पलाद दधीचि श्रंगी, धौम्य, उत्तंग, आदि सभी ऋषियों के सपलीक तथा सन्तानयुक्त होने का पुराणों में विस्तार पूर्वक वर्णन हैं।
उस जमाने में वन अधिक थे। रहन सहन की पद्धति उस युग के अनुसार ही थी। बड़े नगर न थे। नदी सरोवरों के तट पर जल की सुविधा की दृष्टि से छोटे छोटे आश्रम बनाकर रहने की एक सरल पद्धति सभी लोग अपनाते थे। औद्योगिक या यातायात सम्बन्धी सुविधाएँ न होने से समीप में ही उपलब्ध वस्तुओं से लोग चलाते थे। मिट्टी के पात्र नारियल या लौकी के कमण्डलु, मृगचर्म या वल्कल वसन, उस समय सुविधा से उपलब्ध थे। घने जंगलों में जो वृक्ष गिर पड़ते थे वे रास्ता रोकते थे, भूमि घेरते थे। उसको साफ करने तथा अहिंसक पशुओं को अग्नि का डर दिखाकर आश्रमों की रक्षा करने के लिये धूनी जलती रहती थी। उसे समय की यह स्वाभाविक प्रक्रिया थी। उच्चकोटि के विद्वान्, दार्शनिक वैज्ञानिक, शिल्पी, चिकित्सक, शिक्षक, अन्वेषक, इसी प्रकार का जीवन यापन करते थे। ईश्वर उपासना के साथ उनके आश्रमों में बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएँ, शिक्षण संस्थाएँ, चिकित्सालय, साहित्य सृजन आदि के कार्यक्रम भी चलते थे। चरक, सुश्रत, विश्वकर्मा, चाणक्य व्यारा, पाणिनि, आर्यभट्ट, नागार्जुन आदि ऋषियों की महत्ता विश्वभर में विख्यात था। तक्षशिला और नालन्दा के गुरुकुल इसने विशाल थे कि उनमें संसार के कोने कोने से सहस्रों छात्र आकर अध्ययन करते थे। इन गुरुकुलों को चलाने वाले ऋषि गृहस्थ ही थे।
इतिहास और पुराणों का पन्ना पन्ना साक्षी हैं कि भारत में उच्च कोटि के युग निर्माता ऋषि गृहस्थ ही थे। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास की मनोभूमि में वे परिवर्तन करते रहते थे पर इसके लिए उन्हें सम्बन्धियों तथा निवास स्थानों को छोड़ने की आवश्यकता न पड़ती थी।
महाभारत के बाद जब सब ओर केवल अज्ञान का अन्धकार ही अन्धकार फैला हुआ था, तब उस समय की अत्यन्त भ्रष्ट जीवन पद्धति से दुःखी होकर बौद्ध और जैन तीर्थंकरों ने गृहत्याग की, संन्यास की दीक्षा जन साधारण को दी हो तो संभव हैं उनका उद्देश्य कुछ एक लोगों को व्यक्तिगत जीवन में आदर्शवादी रहकर भ्रष्ट चरित्र लोगों का मार्ग दर्शन करना रहा हो, और संभव हैं इसे उस समय कुछ प्रयोजन भी सिद्ध हुआ हो। पर सदा के लिए जन साधारण के लिए गृहत्याग या संन्यास कोई अनुकरणीय प्रक्रिया नहीं हो सकता।
आज 56 लाख से अधिक व्यक्ति साधु संन्यासी का वेश बनाये फिरते हैं। संसार के त्याग का यह लोग नारा लगाते हैं। स्त्री बच्चों को त्याग देते हैं, लोगों से कुछ मतलब नहीं रखते, एकान्त सेवन में शान्ति प्राप्त करने और भजन करके भगवान को प्राप्त करने का इनका कार्य क्रम होता है। आजीविका के लिए भिक्षा वृत्ति को अपनाते हैं और वेष भूषा को प्राचीन काल के ऋषियों से मिलती जुलती बनाने का प्रयत्न करते हैं।
विचारणीय प्रश्न हैं कि क्या इन साधु कहलाने वालों का कार्यक्रम ऋषि परम्परा के अनुकूल हैं? स्त्री बच्चों को अभाव की स्थिति में छोड़ देना क्या उनके साथ विश्वासघात नहीं हैं? स्वयं उपार्जन न करके दूसरों की कमाई खाने से क्या उनका ऋण अगले जन्म में चुकाना न पड़ेगा? दूसरों का दिया हुआ दान यदि पाप उपार्जित हैं तो खाकर क्या अपनी बुद्धि भी भ्रष्ट न होगी? जीवन धारण करने के लिए आवश्यक वस्तुएँ जब तक चाहिए तब तक संसार से कोई संबंध न रखने की बात कैसे बन रहा जाय यह बात तो समझ में आती हैं पर सारा समय एकान्त में बिता कर दूसरों पर छोड़ने की प्रक्रिया को ताड़ देना क्या मानव जीवन का सदुपयोग कहा जा सकता हैं? जिस समाज का अगणित ऋण अपने ऊपर हैं उसका ऋण न चुका कर एकान्त में छिप बैठना क्या ऋण मार बैठने के समान अनैतिक नहीं है? अनुत्पादक जीवन क्या समाज और राष्ट्र के लिए भारभूत एवं कष्टदायक नहीं है? आलस्य में बैठे बैठे फालतू समय बिताने से क्या कुविचार मन में नहीं आवेंगे और खाली दिमाग शैतान की दुकान” वाली उक्ति चरितार्थ होगी? लकड़ियों का अभाव होने और अहिंसक जन्तुओं का भय न रहने पर भी धूनी जलाना क्या राष्ट्रीय अपव्यय नहीं है? आज जब कि सस्ते और धुल सकने वाले वस्त्र आसानी से उपलब्ध हो सकते है, और मृग भी अपनी मौत मरने की बधिक द्वारा माँस तथा चमड़े के लोभ से मारे जाते है तब भी मृग चर्म पहने फिरना क्या ऋषियों की भावना के प्रतिकूल उनका असामयिक अन्धानुकरण नहीं है? जब दो रुपये में लोटा मिल सकता है तो बीस रुपये में मिलने वाले नारियल के कमण्डल की क्या उपयोगिता है?
इस प्रकार के कितने ही प्रश्न ऐसे हैं जिन पर विचार करने से यह गुत्थी सुलझती नहीं कि घर त्यागकर संन्यासी बन जाने और आज जिस प्रकार का जीवन हजारों साधु-संन्यासी जी रहे है इससे उनको स्वयं का तथा जन समाज का, जिसके सम्मिलित उत्तर दायित्व से किसी को छुटकारा नहीं मिल सकता, भला किस प्रकार हित साधन हो सकता है?
ईश्वर को प्राप्त करने में केवल मनोदशा बाधक हैं, स्त्री बच्चे नहीं? वैराग्य मोह जनित दृष्टिकोण के त्यागने को कहते हैं, लोग और ममता तो साधु को अपनी कुटी और लंगोटी में रह सकती है और वह भी उतनी ही बन्धन रूप हो सकती हैं जितना विशाल वैभव। आत्म कल्याण के लिए अमुक प्रकार का वेश या अमुक स्थान आवश्यक नहीं, इसके लिए तो आन्तरिक दुर्बलताओं को जीतना पड़ता है। यह कार्य घर के त्याग या संन्यासी का वेष बना लेने से अवश्य ही हो जायेगा इसका कुछ भी निष्प्रय नहीं। क्योंकि देखा जाता है कि अधिकांश साधु वेशभूषाधारी चरित्र और मानसिक स्तर को दृष्टि से साधारण श्रेणी के लोगों से भी गये बीते होते है। यदि वेश बदलने से ही आत्म उन्नति होती तो इन इतने बहु संख्यक साधुओं की क्यों नहीं होती? इसके अतिरिक्त यदि गृहस्थ परमार्थ साधन में बाधक ही है तो फिर एक एक देवता सप्त्नीक क्यों है? प्राचीन काल के सभी ऋषि इसे क्यों स्वीकार करते रहे? अगणित महापुरुष और तत्त्वदर्शी गृहस्थ में रहते हुए किस प्रकार परमगति प्राप्त करने के अधिकारी हो सके।
जो लोग सोचते हैं कि परमार्थ साधन के लिए ग्रह त्याग आवश्यक है, या वेश बदले बिना काम न चलेगा, उन्हें भारतीय ऋषि परम्परा और अध्यात्म विद्या के मूल दर्शन पर गम्भीरता से विचार करना होगा। जितना-जितना वे गहराई में उतरेंगे उतना ही निश्चय होता जाएगा कि वेष बदलने से काम न चलेगा। आत्म कल्याण के लिए जिस वस्तु के बदलने की आवश्यकता हैं वह है आन्तरिक दृष्टिकोण और यह परिवर्तन गृहस्थ में रहकर भी हो सकता है। फिर वेष बदलने की उस अण्ड-चण्ड प्रक्रिया को क्यों अपनाया जाय, जो आज की परिस्थितियों में अनावश्यक ही नहीं अवांछनीय भी है।