एक महत्त्वपूर्ण कदम

November 1961

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साधना के विभिन्न मार्ग हैं और उनका विकास क्रम एक दूसरे से मिलता जुलता होने पर भी पृथक् हैं। इस योग की साधना में षट् चक्रों का वेधन करते हुए कुण्डलिनी जागरण की अन्तिम स्थिति प्राप्त होती हैं। राजयोग में यम नियम आदि अष्ट सूत्री साधना करते हुए अन्त में समाधि स्थिति प्राप्त होती है। कर्म योग की अन्तिम अवस्था स्थिति प्रज्ञा हैं। ध्यान योग का साधन अन्त में परमहंस गति पर जा पहुँचता है। नाद योग का साधक अनहद नाद में अपने आप को लय कर लेता हैं। तन्त्र का अन्तिम लक्ष महासिद्ध पद तक पहुँचना हैं। कामलिक योग की साधना करते करते वही स्थिति प्राप्त होती हैं। भक्ति योग में इष्ट देव के दर्शन मिलते हैं। प्राण योग का साधक ब्रह्मभाव में प्रवेश करके सहस्रार कमल का मधुपान करता हैं। इस प्रकार विभिन्न मार्गों पर चलते हुए साधक अन्तिम लक्ष तक पहुँचते हैं। इनमें कोई मार्ग कठिन, कोई सरल हैं पर रुचि भिन्नता एवं मार्ग में आने वाले नाना प्रकार के अनुभवों में जिसकी जैसी रुचि हैं वह उसी प्रकार के साधना मार्ग को अपना लेता हे गुरु परंपरा से ही कई साधना पद्धतियाँ चलती रहती हैं।

गायत्री योग सर्वांगपूर्ण योग हैं। इसमें इस प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं हैं कि अमुक स्थिति का साधक ही इसमें प्रवेश कर सकेगा। इस योग को बाल-वृद्ध गृही रिक्त, नर-नारी निरोग रोगी सभी अपना सकते हैं। पर यह बात अन्य योगों के संबंध में नहीं है। हठ योग का साधक यदि ब्रह्मचारी नहीं हैं तो उसकी साधना उसके लिये हानिकारक सिद्ध होगा। तब योग को दुर्बल हृदय लोग नहीं कर सकते क्योंकि भयजनक स्थिति आने पर उसका अनिष्ट हो सकता है। गायत्री योग सनातन हैं।

सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी पर यह महाशक्ति अवतरित हुई और उनने वेदों के माध्यम से इस विद्या को मानव प्राणी के लिए सुव्यवस्थित रीति से प्रस्तुत कर दिया। प्राचीन काल में प्रत्येक ऋषि की साधना का माध्यम गायत्री ही रही हैं। सभी अवतारों का उपास्य यही महामन्त्र रहा हैं। महाभारत के बाद जब तक इस देश ने अज्ञ अन्धकार के युग में प्रवेश नहीं किया था तब तक एक सर्वमान्य सर्वोपयोगी, सर्वांगपूर्ण उपासना के रूप में गायत्री साधना का ही सर्वोपरि स्थान रहा। साधारण गृहस्थ उसे नित्यकर्म के रूप में अपनाये रहते और वानप्रस्थ संन्यासी एवं विशेष स्थिति के व्यक्ति इसकी विशेष साधनाएँ करके जीवन लक्ष की पूर्णता प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते। इस प्रकार अनादि काल से भारतीय धर्मानुयायी इस उपासना के आधार पर अपना आत्म सुधार, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास करते हुए आत्म साक्षात्कार की ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करते रहे।

गायत्री योग में पंच कोशों का अनावरण करना पड़ता हैं। हठ योग में जिस प्रकार षट् चक्रों का वेधन करते हुए कुण्डलिनी से अन्दर की शक्ति जागते हे वैसे ही गायत्री योग में आत्म के ऊपर चढ़ हुए पाँच आवरणों के अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश के पाँचों पर्दे उघाड़ने के बाद आत्म साक्षात्कार होता हैं। भक्ति योग में जिस प्रकार अमुक रूप वाले इष्ट देव का दर्शन होता हैं उसी प्रकार गायत्री योग में आत्म साक्षात्कार दिव्य ज्योति के रूप में होता है। उपनिषदों में आत्मा को ज्योति स्वरूप माना हैं, ‘तमसो या ज्योतिर्गमय’ की प्रार्थना हैं। इस महाप्रकाश की अखण्ड ज्योति का दिव्य दर्शन करने की आकांक्षा की गई हैं। यही ब्रह्म का शाश्वत स्वरूप हैं। शरीर धारी इष्ट देवों के रूप साधक की कल्पना के अनुरूप बनते और बदलते हैं पर ब्रह्म का शुद्ध स्वरूप सदा अपरिवर्तित एवं शाश्वत हैं ज्योतिर्मय ही हैं। गायत्री का ध्यान ‘सूर्य मण्डल मध्यस्थ के रूप में ही किया जाता हैं। आत्म साक्षात्कार के समय ही यह दिव्य तेज साधक के सामने उपस्थित होता हैं और वह उसी में लय होकर अपने समस्त आवरणों को जला डालता हैं। अग्नि में तपाए हुए सोने की तरह आत्मा भी इस ब्रह्मतेज के सान्निध्य में पहुँच कर अपनी सब उपाधियों को भस्मीभूत करके शुद्ध ब्रह्म की स्थिति में जा पहुँचती हैं।

पंचमुखी गायत्री के चित्र इन पाँच आवरणों के पाँच कोशों का ही संकेत करते हैं। जैसे अन्न पहले मुख में प्रवेश करता हैं फिर पेट में पहुँच कर पाचन क्रिया द्वारा रक्त बन जाता हैं, उसी प्रकार साधक अपने आपको अन्न के रूप में माता के मुख में प्रवेश कराता हैं और उसमें तल्लीन होकर तत्सम बन जाता हैं। गायत्री योग का यही साधना क्रम हैं। नित्यकर्म की दैनिक उपासना के रूप में जप हवन पर्याप्त है। यह प्रत्येक हिन्दू का अनिवार्य धर्म कर्तव्य है। शास्त्रों में लिखा हैं कि जो नित्य गायत्री जप नहीं करता वह चाण्डाल के समान है तात्पर्य यह है कि दैनिक उपासना का अमल तथ्य तो अपनी बुद्धि को कुमार्ग पर जाने से बचाये रहने और संसारी कुसंस्कारों के जो मैल नित्य ही मन पर जमते हैं उन्हें माँजने के लिए आवश्यक ही हैं। इसमें अपनी स्वाभाविक स्थिति के बने रहने, पतन के गर्त में गिरने से बचे रहने का ही लाभ है। विशेष प्रगति के लिए ऊँची कक्षा में प्रवेश करना पड़ता हैं और वह कक्षा पाँच कोशों के अनावरण वाले साधना क्रम से आरम्भ होती हैं।

आत्मा अनन्त शक्तियों का केन्द्र हैं। ईश्वर का अंश होने के कारण उसमें अपने पिता के सभी गुण पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। परमात्मा में जो शक्ति हैं सूक्ष्म रूप से वही सामर्थ्य आत्मा में भी मौजूद हैं। पर उस पर पाँच कोशों की पाँच परतें जमी हुई हैं जिसके कारण सब कुछ ढका पड़ा हैं, सब कुछ छिपा हुआ है। इस ढके हुए को, छिपे हुए को उघाड़ना ही गायत्री की पंचकोशी या पंचसूत्री साधना का उद्देश्य है। इस मार्ग पर जितनी प्रगति होती जाती हैं आत्मा अपनी महान् महत्ता को प्रकट करता चला गया है। आत्मानन्द और ब्रह्मानन्द की मधुरता का आस्वादन करते हुए उसका अन्तः प्रदेश निरन्तर आनन्द मग्न रहता है। साथ ही उसका बाह्य जीवन भी इतना मधुर बन जाता हैं कि सब ओर से उसे सहयोग सराहना एवं सम्मान की स्थिति दृष्टिगोचर होने लगती है। आत्मा के भंडार में बहुत सब कुछ है। उसे ढूँढ़ने और प्राप्त करने का प्रयत्न ही पंचकोशों की अनावरण साधना है।यह साधन सरल होते हुए भी अत्यन्त महान है। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अब समय आ गया है कि हम आगे बढे़ और मानव जीवन का समुचित लाभ उठाने के लिए आत्मिक सफलताओं के लिए भी कुछ करें। पंच सूत्री साधना क्रम इसी दिशा में उठाया हुआ एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा।


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