सच्चे ब्राह्मणत्व का पालन करने वाले -संत एकनाथ

November 1961

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वर्ण-व्यवस्था की स्थापना किसी समय समाज को सुसंगठित बनाये रखने और उसकी आवश्यकताओं की उचित रूप से पूर्ति होते रहने के उद्देश्य से की गई थी। उसमें ब्राह्मण को सर्वोच्च पद दिया गया था और साथ ही उनके कर्तव्य भी उतने ही कठिन रखे गये थे । त्यागमय जीवन बिताना और समाज की अधिक से अधिक सेवा करना ब्राह्मणत्व का आदर्श बतलाया गया था । जिन्होंने इसके अनुसार आचरण किया उनके नाम हजारों वर्ष बीत जाने पर आज भी आदर के साथ लिये जाते है। समय के परिवर्तन से इस प्रकार के ब्राह्मणों की संख्या मध्यकाल में बहुत घट गई और अधिकांश ब्राह्मण कर्तव्य को भूल कर केवल अपने विशेष अधिकारों के लिये ही सचेष्ट रहने लगे। ऐसे समय में महाराष्ट्र प्रांत में श्री एकनाथ महाराज ने व्यवहारिक रूप से ब्राह्मणत्व के उदाहरण को उपस्थित करके देश और जाति की उन्नति में विशेष रूप से योग दिया।

एकनाथ महाराज का आविर्भाव अब से लगभग सवा चार सौ वर्ष पूर्व पैठण में हुआ था । यह नगर उस समय में विधा ओर शास्त्रों के अध्ययन का बहुत बड़ा केन्द्र माना जाता था। दूर दूर के मनुष्य यहाँ के पंडितों से धार्मिक प्रश्नों पर व्यवस्था लेने आते थे। एकनाथ भी बाल्यावस्था से धर्म में अभिरुचि रखने वाले ओर बड़े प्रतिभाशाली तथा मेधावी थे। छोटी अवस्था में ही उन्होंने संस्कृत में बातचीत करने की योग्यता प्राप्त कर ली थी। बारह वर्ष की अवस्था तक उन्होंने रामायण, महाभारत, भागवत्, के अनेक अंश और कितनी ही पौराणिक कथाओं का अध्ययन कर लिया। इससे उनका ध्यान ईश्वर की तरफ जाने लगा और उनमें आध्यात्मिक ज्ञान की अभिलाषा उत्पन्न होने लगी। एक दिन अन्त प्रेरणा से वे घर से निकल पड़े ओर देवगढ़ जाकर जनार्दन स्वामी के शिष्य बन गये। ये जनार्दन स्वामी अपने उच्चकोटि के आध्यात्मिक ज्ञान के कारण ‘स्वामी ‘नाम से प्रसिद्ध थे। वैसे वे चालीस गाँव नामक स्थान के प्रधान अधिकारी थे। उनका विश्वास था कि मनुष्य घर रहकर ही जितनी चाहे आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है और इस बात को उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से पूरा करके भी दिखा दिया था।

जनार्दन स्वामी के पास रहकर एकनाथ छः वर्ष तक आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करके अभ्यास करते रहे। इसके बाद कितने ही मास तक उन्होंने शूलभंज नामक पर्वत पर जाकर एकान्त में तपस्या की। जब गुरु उनको सब प्रकार से योग्य देख लिया तो तीर्थ-भ्रमण के लिये जाने की आज्ञा दी जिससे संसार का व्यवहारिक अनुभव प्राप्त कर सके, भिन्न-भिन्न स्थानों पर सन्तों ओर विद्वानों के सत्संग में रहकर अपने अनुभव ओर ज्ञान की वृद्धि कर सके ओर समाज की परिस्थिति को देखकर अपने कर्तव्य का निर्णय कर सके। उन्होंने दो-तीन वर्ष में भारत के प्रायः सभी तीर्थों की यात्रा की और अन्त में अपने गाँव में पहुँच कर की गृहस्थ आश्रम में रहना स्वीकार कर लिया।

एकनाथ के जीवन कीक अनेक ऐसी घटनाएँ प्रसिद्ध है। जिनसे मालूम पड़ता है कि वे एक महान् आत्मज्ञानी और विद्वान् होने के साथ ही सहिष्णुता और सेवाभावी के मूर्तिमान् अवतार भी थे। कहते है कि जिस मार्ग से वे नित्य गोदावरी में स्नान करने जाया करते थे उस पर एक मुसलमान का घर था जो स्वभाव से बड़ा दुष्ट था। वह जब इनको स्नान से लौटते देखता तो जानबूझ कर ऊपर से कुल्ला कर देता जिससे इनको पुनः स्नान करने जाना पड़ता। एक दिन उसने हद कर दी और एक सौ आठ बार कुल्ला किया। पर धन्य है एकनाथ की सहिष्णुता कि उस पर जरा भी क्रोध किये बिना ये बार बार स्नान करते रहे। अन्त में जब वही थक गया, तो इन्होंने उसे धन्यवाद दिया कि आज तुम्हारे कारण मुझे 108 दफा पवित्र गोदावरी का स्नान करने का पुण्य प्राप्त हो सका। इसके उपलक्ष में इन्होंने उसे अपने घर बुलाकर उत्तम भोजन भी कराया। इससे वह अत्यन्त लज्जित हुआ और फिर शिष्य की तरह इनका आदर समान करने लगा।

इस प्रकार एक बार कुछ शरारती लोगों ने एक ब्राह्मण को दो सौ रुपये का लालच देकर इनके पास भेजा कि वह किसी तरह इनको क्रोधित कर दे। जब वह इनके स्थान पर पहुँचा तो ये मन्दिर में पूजा कर रहे थे। वह आकर अचानक इनकी पीठ पर बैठ गया। पर क्रोधित होने के बजाय ये उससे कहने लगे कि वाह भाई मेरे पास इतने व्यक्ति आते है,पर तुम्हारा जैसा प्रेमी कोई नहीं आया जो आते ही लिपट जाय। कुछ देर बाद वह इनके साथ भोजन करने बैठा तो अचानक उछल कर ।भोजन परोसते हुई इनकी पत्नी गिरिजाबाई की पीठ पर बैठ गया। यह देखकर ये हँसने लगे और कहा-देखना यह बड़ा बालक पीठ से गिरकर चोट न लगा ले। “गिरिजाबाई ने भी हँसकर उत्तर दिया कि मुझे बच्चे को पीठ पर लेकर काम करने का अभ्यास है, इससे मैं इसे गिरने न दूँगी। ‘अन्त में अत्यन्त लज्जित होकर उसने पैरों पर गिर कर इनसे क्षमा माँगी, ओर कहा कि मैंने आवश्यकता वश कुछ लोगों के कहने से ऐसा अनुचित व्यवहार किया। एकनाथजी ने स्वयं ही उसकी आवश्यकता की पूर्ति कर दी

भारतवर्ष में अछूत जाति वालों की दशा आज कल भी बड़ी हीन है। कुछ सौ वर्ष पूर्व महाराष्ट्र समाज में उनकी स्थिति और भी शोचनीय था। पर एकनाथ जी उच्चकुल के ब्राह्मण होते हुये भी किसी से घृणा या भद्दा सा व्यवहार नहीं करते थे, वरन सब के साथ आत्मवत सर्वभूतेषु के सिद्धांत का ही पालन करते थे। एक दिन उनके पूर्वजों का श्राद्ध था और इस लिये गिरिजाबाई ब्राह्मण भोजन के लिये उत्तम पकवान बना रही थी। उसी समय कुछ अछूत जाति के व्यक्ति उनके घर की बगल से होकर निकले और पकवानों की खुशबू आने से आपस में चर्चा करने लगे कि ‘हम लोगों का ऐसा भाग्य कहाँ जो ऐसे पकवान पा सके। संयोगवश यह बात घर के एक कमरे में बैठे एकनाथजी के कानों में सुनाई दे गई। उन्हें इन लोगों की दुर्दशा पर बड़ी दया आई और उनको घर में बुलाकर अच्छी तरह भोजन करा दिया। इसके पश्चात् रसोई घर और समस्त बर्तनों को फिर खूब अच्छी तरह साफ करके ब्राह्मणों के लिये दुबारा रसोई बनाई पर उनके लिए बनाया गया भोजन अछूतों को खिला देने की बात सुनकर वे ऐसे नाराज हुये कि उन्होंने खाने से इनकार ही कर दिया। एकनाथजी के बार बार आग्रह करने पर भी वे राजी नहीं हुये तो उन्होंने अपनी लाचारी बताकर पितरों का आवाहन किया। उनकी हार्दिक भावना को देखकर पितर सशरीर वहाँ उपस्थित हो गये और उन्होंने भोजन को ग्रहण किया। यह देखकर हठवादी ब्राह्मण बहुत पछताये और क्षमा प्रार्थना करने लगे।

इसी प्रकार एक बार रान्या नामक अछूत ने एकनाथ को अपने घर भोजन करने की निमंत्रण दिया। उसने कीर्तन करते हुए एकनाथजी को यह उपदेश करते सुना कि प्राणी मात्र में एक ही परमेश्वर का निवास है। “इस पर उसने सोचा कि यदि हम में भी वास्तव में परमेश्वर का निवास है तो एकनाथजी हमारे हाथ का भोजन ग्रहण क्यों न करेंगे ? वैसे भी वह रान्या बहुत ही धर्मनिष्ठ और सदाचारी था तथा कभी मद-मास को छूता भी नहीं था ।एकनाथ ने उसका निमंत्रण निस्संकोच भाव से स्वीकार कर लिया और अन्य ब्राह्मणों के बहुत कुछ बुरा भला कहने पर भी उसके यहाँ जाकर भोजन किया। इसके लिये कट्टरपंथी उनकी बहुत समय तक निन्दा करते रहे, पर उन्होंने इसकी कुछ भी परवाह न की।

इसी प्रकार पैठण में रहने वाली एक वेश्या इनके घर कभी कभी कथा सुनने आ जाया करती थी। एक दिन उसने इनके मुख से भागवत् में वर्णित पिगलाँ नाम की वेश्या का व्याख्यान सुना ,जिससे उसको वैराग्य हो गया। वह बार बार यही विचार करने लगी कि मैं कैसी पापिनी-अभागिनी हूँ जो जीवन भर इन रक्त, मांस, विष्ठा, मूत्र के पिण्ड पर पुरुषों को आलिंगन करने में ही लगी रही और कभी अन्तरात्मा में रहने वाले भगवान का ध्यान भी नहीं किया। इस प्रकार रोती और पश्चाताप करती वह घर में ही पड़ी रही। वह एकनाथजी का स्मरण करने लगी और विचार करने लगी कि क्या वे मुझ जैसी पापिनी को अपनी चरण रज प्रदान करेंगे? एक दिन जब वह इस प्रकार विचार कर रही थी तो उसने उसी समय एकनाथजी को गोदावरी में स्नान करके अपने घर के पास से जाते हुए देखा। वह दौड़ती हुई आई और कहने लगी-महाराज क्या आप इस पापिनी के घर को अपना चरण रज से पवित्र कर सकते है? एकनाथजी ने सहज भाव से कहा-इसमें कौन सी कठिनाई है! “ वे घर के भीतर गये और उनके पहुँचते ही वहाँ का पाप पूर्ण वातावरण नष्ट होकर सात्त्विकी भाव का अनुभव होने लगा। वेश्या ने उनसे राम कृष्णा हरि का मन्त्र ग्रहण किया ओर फिर जीवन के अन्त तक भगवान के ध्यान और पुण्य कार्यों में ही समय लगाती रही।

इस प्रकार एकनाथ जी ने अपने उदाहरण द्वारा अपने समकालीन लोगों को सच्चे ब्राह्मणत्व का आदर्श दिखलाया कि केवल ब्राह्मण शुद्धता और पूजा पाठ से ही मनुष्य ब्राह्मण नहीं बन सकता ,वरन उसका असली कर्तव्य तो नीची दशा में पड़े हुये प्राणियों को ऊँचा उठाकर पुण्य-मार्ग पर चलने की प्रेरणा करना है। जो व्यक्ति समझता है कि नीच या पतित लोगों के साथ संसर्ग में आने से हम भ्रष्ट हो जायेंगे अथवा हमको पाप लगेगा, वे शुद्धता और ज्ञान का ढोंग ही करते है। जो निष्काम भाव से किसी जीव के उद्धार के लिये किसी अवसर पर अशुद्ध अथवा पापयुक्त वातावरण में भी जाता है ,तो उसका उससे कुछ बिगाड़ नहीं हो सकता। किसी गिरते पड़ते को बचाने में थोड़ी देर के लिये हमारे हाथ गन्दे भी हो जाये तो उससे हमारी आत्मा दूषित नहीं हो सकती। एकनाथ महाराज ने आजीवन इसी प्रकार के सत्य-धर्म के पालन का उपदेश देकर अन्त में यह कहते हुये संसार से विदा ली कि-भगवद् भक्तों मेरे चले जाने के बाद तुम भागवत् धर्म का प्रचार जारी रखना और लोगों के विरोध ,निन्दा आदि की परवाह न करके इस पवित्र कार्य के लिये प्राण देने को भी तैयार रहना।”


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