(श्री0 लक्ष्मीनारायण ‘कमलेश’)
क्यों रुके हो? साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ो!
क्यों प्रगति-पथ में तुम्हारे, हो रहा उत्पन्न भय?
श्रम बिना ही चाहते ही क्यों सफलता पर विजय?
सोचते हो क्या? गिने क्षण ही तुम्हारे पास हैं-
हाथ में आया हुआ क्यों खो रहे हो अब समय?
बढ़ चलो निर्द्वंद्व, कोरी कल्पनाएँ मत गढ़ो!
क्यों रुके हो?......
दूर जाना था, अचानक रुक गये तुम तो यहीं,
इस शिथिलता से तुम्हारा कार्य कुछ होगा नहीं,
गिर पड़े हो, तो सम्भल जाओ, उठो, हिम्मत करो,
कठिनाइयों के पंक में अब फिर न फँस जाना कहीं,
हीनता का दोष अपने शीश पर तुम मत गढ़ो!
क्यों रुके हो?......
कुछ नहीं बिगड़ा, अभी सब कुछ तुम्हारे साथ है,
भाग्य के निर्माण का अवसर तुम्हारे हाथ है,
मुश्किलों को पार कर जो बढ़ गये निज लक्ष्य तक-
विजयी वही हैं, विश्व में ऊँचा उन्हीं का माथा है,
मन रहो आश्रित, स्वयं अपनी कलाओं में गढ़ो!
क्यों रुके हो?......
आपदाएँ आये यदि राह में, परवाह क्या?
ध्येय हो अपना अटल, फिर चोट क्या हैं? आह क्या?
मध्य में ही टूट जाये-वह प्रबल-उत्साह क्या?
वह सके धारा न जिसको-वह अखण्ड-प्रवाह क्या?
नीचे गिरो मत, हर घड़ी ऊँचे उठो, ऊँचे चढ़ो!
क्यों रुके हो?......
रिक्त लौटा है न कोई साधना के द्वार से,
सब समय, सब कुछ मिला, सबको इसी भंडार से,
साम्राज्य सारी सिद्धियों का है सुरक्षित सर्वथा-
फिर तुम्हीं वंचित रहो क्यों दिव्य निज-अधिकार से,
छोड़ो अतीत, भविष्य का इतिहास अब आगे पढ़ो!
क्यों रुके हो?......
*समाप्त*