उद्बोधन गीत (कविता)

November 1961

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छिपा हैं दुःख-रजनी के बीच, मधुर चिर सुख का स्वर्ण विहान!
अरे, तू क्यों जाता हैं भूल, विसर्जन में उसका आवाहन!

मृत्यु उड़ जाती पंख पसार-रम्य नव जीवन तट की ओर।
भटकती पाने अपना नीड़-सिंधु से उस अनन्त की ओर॥

चाहती वह किसका आधार, खोजते किसे थके यह प्राण!
जानकर भी अपना वह रूप, बनी फिरती हैं क्यों अनजान!!

कली क्यों पाती यहाँ उभार-जलधि में होती सरिता लीन।
छेड़ती क्यों शाश्वत संगीत-किसी की नश्वर जर्जर बीन!!

अन्त ही बन जाता क्यों आदि, यहाँ विस्मृति बनती पहिचान!
किसी का बन्धन बनती मुक्ति, भावना बन जाती भगवान!!

हंसो, तुम जग में बनकर फूल-बिखर जाओ निज सुरभि प्रसार।
इसी में निहित सृष्टि का सत्य-विश्व हैं क्षण भंगुर, निःसार॥

भयंकर तूफानों के बीच, अधर पर हो मधुमय मुसकान!
शाप स्वयं बनेगी साध्य, शाप बन जायेगा वरदान!!

- रामस्वरूप खरे “साहित्यरत्न”


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