मन को भी उचित आहार चाहिए

November 1961

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शरीर का विकास बहुत अन्न पर निर्भर है। जैसा आहार मिलता है उसी के अनुसार शरीर की उन्नति एवं अवनति होने लगती है। अभक्ष्य, गन्दे भोजन से बीमारियाँ होने लगती है। घृणित वस्तु पेट में चले जाने से उल्टी एवं दस्त होने लगते है। कोई विषैला पदार्थ पेट में पहुँच जाय तब तो जीवन ही संकट में पड़ जाता है। इसलिए शरीर की सुव्यवस्था एवं सुरक्षा का जिन्हें ध्यान है वे आहार के बारे में सतर्क रहते है। अभक्ष्य से बचने एवं पौष्टिक सुपाच्य आहार ग्रहण करने की ही उनकी सदा चेष्टा रहती है।

मन का विकास बहुत कुछ विचारों पर निर्भर है। जैसे विचार मस्तिष्क में घूमते रहते है। मन का स्वभाव उसी प्रकार का बन जाता है और फिर वही बातें कार्य रूप में परिणत होने लगती है। मनुष्य का अन्तःकरण गीली मिट्टी के समान है उसे जिस साँचे में ढाला जाय उसी में ढल जाता है। कुम्हार मिट्टी को लेकर विभिन्न साँचों की सहायता से विभिन्न आकृतियों के खिलौने बना देता है। विचारों का प्रवाह मनुष्य की जीवन दिशा को मोड़ता है और उसी के आधार पर कुम्हार के खिलौनों की तरह व्यक्ति का स्वभाव ढल जाता है।

शरीर स्थूल और मन सूक्ष्म है। स्थूल से सूक्ष्म की शक्ति अनेक गुनी अधिक होती है। शरीर से मन की सामर्थ्य भी अनन्त गुनी अधिक है। शरीर के स्वस्थ होते हुए भी मन के दुर्बल होने पर कोई व्यक्ति आशाजनक प्रगति नहीं कर सकता पर मनस्वी व्यक्ति दुर्बल शरीर होने पर भी गाड़ी खींच ले जाता है और उन्नति केक उच्च शिखर पर जा पहुँचता है। महात्मा गाँधी, महामना मालवीय जी आदि के उदाहरण सामने हैं । वे शरीर की दृष्टि से दुर्बल ही थे पर मानसिक सुदृढ़ता के कारण ड़ड़ड़ड़ उतना काम सके जो सैकड़ों पहलवान मिलकर भी नहीं कर सकते मानव प्राणी की सारी भौतिक विशेषता सफलता एवं प्रगति उसकी मानसिक योग्यता पर निर्भर करती है। पारलौकिक उन्नति का भी एकमात्र साधन मन ही है। गीताकार ने मन को ही बन्धन और मोक्ष का कारण माना है।

मन को स्वस्थ एवं सूक्ष्म बनाने के लिए उच्च कोटि के विचारों का आहार चाहिए। शरीर के लिए जिस प्रकार अच्छे भोजन की आवश्यकता है उसी प्रकार मन को प्रेरणाप्रद विचारों का आहार चाहिए इसके अभाव में मानसिक विकास की प्रक्रिया रुकी ही पड़ी रहेगी। स्कूली शिक्षा से मस्तिष्क विकसित होता है। भूगोल, गणित, इतिहास आदि की जानकारी से कुशलता एवं उपार्जन क्षमता बढ़ती है, मानसिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए इतने से काम नहीं चल सकता। उसके लिए उत्कृष्ट प्रकार की विचारधारा का मनः क्षेत्र में प्रवेश होते रहना आवश्यक है। ऐसी ही आत्मिक उत्थान करने वाली विचारधारा को ‘विधा ‘ कहा गया है और उपनिषदों में विधा को ही बन्धन-मुक्ति का एकमात्र माध्यम माना गया है।

अन्न पेट में पैदा नहीं होता। उसे बाहर से लाकर मुख द्वारा पेट में पहुँचाया जाता है तब भूख बुझती है। कोई व्यक्ति बाहर से अन्न लाने की उपेक्षा करे, और यह सोचे कि जब भूख पेट में लगती है तो आहर भी पेट में ही उपजेगा तो उस व्यक्ति की मूर्ख माना जाएगा।। मानसिक आहार बिहार की आवश्यकता पूर्ति के सम्बन्ध में कितने ही लोग इसी प्रकार की मूर्खतापूर्ण बात सोचते है। उनका ख्याल होता है कि जब भगवान की कृपा हो जायेगी तब अपने भीतर से ही अच्छे विचार उग आवेंगे अथवा भजन करते रहने से सद्विचारों की आवश्यकता अपने आप पूरी हो जाएगी। ऐसे लोगों को थोड़ा समझ से काम लेना चाहिए। जब भजन करते हुए भोजन की आवश्यकता पेट के भीतर ही अन्न उपजकर पूर्ण नहीं हो पाती इसके लिए उन्हें भिक्षा या आजीविका का कोई लौकिक प्रबन्ध करना पड़ता है तो फिर भजन करने वाले की मानसिक आहार-सद्विचार की आवश्यकता अपने आप ही कैसे पूरी हो जाएगी उनके लिए बाह्य प्रयत्न की आवश्यकता क्यो न रहेगी?

आत्मकल्याण की गुत्थी को सुलझाने का एक मात्र माध्यम ‘मन’ है। योगाभ्यास की सारी प्रकृति का उद्देश्य मन को वश में करना है । मन हीं हमारा मित्र और मन हीं शत्रु है। अनियंत्रित मन हमें पतन और नरक के गर्त में पटकने के लिए ले दौड़ता हैं और मन हीं उत्कर्ष के उस शिखर पर ले जाकर प्रतिष्ठित कर देता है। उसी के सध जाने पर जीव जीवन मुक्त स्थिति को प्राप्त कर इस धरती पर ही स्वर्ग जैसे आनन्द का अनुभव करता है और परलोक की शाश्वत शान्ति का अधिकारी बनता है। जीवन का सफल और निष्फल होना निश्चित रूप से मानसिक स्थिति के ऊपर आधारित रहता है। भजन में भी सुसंस्कृत मन हीं लगता है और उस लगन पर ही आत्म-साक्षात्कार की सफलता निर्भर है।

मन की चंचलता को रोकने के लिए कई प्रकार के ध्यान प्राणायाम एवं अभ्यास किये जाते है पर यह सब तो पीछे की बातें है। कुसंस्कारी मन यदि रोक भी लिया गया तो रुकने पर उसकी दुष्टता केन्द्रीभूत होकर और भी अधिक उपद्रव उत्पन्न करेगी। रोकने से पहले तो उसे सुसंस्कारी बनाने की आवश्यकता है। आयुर्वेद के ज्ञाता अनेक रसायन बनाते है, उनमें विष और धातुओं का प्रयोग किया जाता है, पर पहले इनके विषैले अंश का शोधन कर लेते है। यदि अशुद्ध विषों को लेकर औषधियों बनानी आरंभ कर दी जाये तो उससे लाभ तो दूर उलटी हानि होने लगेगी। मन का निग्रह उचित है पर उससे भी पहले उसे सुसंस्कारी बनाना आवश्यक है। जैसे गोमूत्र में पड़ा रखकर भिलावा शोधा जाता है वैसे ही उच्चकोटि के विचारों में निमग्न रखकर मन को सुसंस्कारी बनाया जाता है।

संसार में जो कुछ वैभव और विभूति का दर्शन होता है उस सब के पीछे मानव मन की प्रचंड शक्ति की महत्ता आसानी से देखी और समझी जा सकती है। इस ऊबड़-खाबड़ दुनिया का चित्र भी सुन्दर बनाने में प्रकृति की रहस्यमयी शक्तियों को विज्ञान के माध्यम से वशवर्ती करने में अगणित प्रकार की सुख सुविधा उत्पन्न करने में मानव मन की शक्ति ही काम करती रही है। उसका प्रवाह यदि पतन की दिशा में बहने लगे तो सारी दुनियाँ जलते हुए अँगारे के समान अशान्ति का केन्द्र बन सकती है। क्लेश, कलह, द्वेष, दुर्भाव, रोना, शोक, दन्य, दरिद्र, उत्पीड़न, शोषण जो कुछ नरक में होता है। आँखों के सामने उपस्थित हो सकता है। और यदि यह प्रवाह उलट कर उत्कृष्टता की और अग्रसर होने लगे तो स्वर्गादपि गरीयसी इस धरती माता पर सब लोग देव दुर्लभ आनन्द का रसास्वादन कर सकते है।

खाद्य समस्या की सबको चिन्ता रहती है। अपने घरों में हम सबसे पहले खाद्य पदार्थों की चिन्ता करते है। सरकार भी खाद्य उत्पादन के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करती है। ठीक भी है तरीकों को यदि ठीक स्थिति में रखना है तो अन्न की और समुचित ध्यान दिया ही जाना चाहिए। पर साथ ही यह न भुला देना चाहिए कि शरीर से भी अधिक महत्व मन का है और मन को सद्विचारों का आहार जुटाने में लापरवाही न की जाय। मन को यदि उसका आहार नहीं मिला तो वह न तो स्वस्थ रह सकेगा और न सूक्ष्म।

कुविचारों के, कुकर्मों के दृश्य और उदाहरण हमारे चारों और प्रचुर मात्रा में फैले पड़े है, जब उचित आहार न मिलेगा तो मन उस अनुचित आहार को ही ग्रहण करने लगेगा। भूखा अभक्ष्य को भी खाने लगता है। मन के सामने यदि सुसंस्कारित विचारधारा प्रस्तुत न होगी तो कुसंस्कारों को ही यह अपने चारों तरफ से समेट लेगा। दर्पण के सामने जो कुछ आ जाता है उसी की छाया उसमें दीखने लगती है। कुरूप दृश्य सामने उपस्थित नहीं है तो दर्पण को यह दोष देना उचित नहीं कि उसमें कुरूप दृश्य दिखाई देते है। मन तो बेचारा दर्पण मात्र है जैसे विचारों से उसे घिरा रखा जाय वह वैसा ही तो बनेगा, वैसा ही तो बनेगा ,वैसा ही तो दीखेगा।

मन को सुसंस्कृत बनाने की समस्या हमारे जीवन की सर्वोपरि समस्या है। जीवन का उत्थान पतन सभी कुछ इस पर निर्भर है। और यह कार्य तभी सम्पन्न हो सकता है जब सद्विचारों का संग्रह उचित मात्रा में मन के सामने प्रस्तुत रखा जाय। स्वाध्याय और सत्संग का यही उद्देश्य है। प्राचीनकाल में प्रेस का माध्यम न होने से पुस्तकें दुर्लभ थी। सज्जनों का बाहुल्य सर्वत्र होने से सत्संग सुलभ था। इसलिए उस जमाने में सत्संग की ओर अधिक ध्यान दिया जाता था। आज स्थिति उलटी है। सत्संग का आयोजन करने वालों के पास न तो नेकनीयत है और न युग के अनुरूप विचारधारा, इसलिए आज के सत्संग खतरे से भरे हुए है। फिर आज की व्यस्त परिस्थितियों में वह सब के लिए सुगम भी नहीं रहा। दूसरी और प्रेस की सुविधा ने श्रेष्ठतम व्यक्तियों का सत्संग पुस्तकों के माध्यम से सरल भी बना दिया है और सस्ता भी। इसलिए आज की स्थिति में मानसिक विकास के लिए स्वाध्याय ही एक प्रमुख माध्यम रह जाता है।

स्वाध्याय के नाम पर प्राचीन ग्रन्थ कथा पुराण स्तोत्र आदि का पाठ करने से काम नहीं चल सकता। जीवन की अत्यन्त समस्याओं को आज की परिस्थितियों में हल करने का मार्ग-दर्शन करने वाले साहित्य से ही स्वाध्याय की आवश्यकता पूरी होती है। जो हमारे विचारों को उच्चस्तरीय भूमिका में विकसित करे, दुष्प्रवृत्तियों से दुर्भाव और दुष्कर्मों से बचाते उसे ही स्वाध्याय साहित्य कह सकते है। हमारे नित्य के जीवन में स्वाध्याय के लिए समुचित स्थान होना चाहिए। सद्विचारों का आहार मानसिक भूख को बुझाने के लिए प्रस्तुत करना हमारी एक प्रमुख आवश्यकता है। इसकी ओर से मुँह मोड़कर उपेक्षा वृत्ति अपना कर कोई भी आत्म-विकास नहीं कर सकता है चाहे वह कितना ही भजन रोज करना हो।

लोहे को लोहे से काटा जाता है विचारों का समाधान विचारों से होता है। बन्धनों में बँधने वाले विचारों का शमन उन्मुक्त विचारधारा ही कर सकती है। शरीर और मन को शुद्ध आहार देना आत्मिक प्रगति के लिए अत्यन्त आवश्यक कार्य है। अन्नमय और मनोमय-कोश के अनावरण के लिए आहार शुद्धि और विचार शुद्धि नितान्त आवश्यक हैं। हम उनकी उपेक्षा न करे।


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