धर्म पुराणों की संत कथाएँ

November 1961

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नरक पीड़ितों को पुराण का दान

धर्मराज युधिष्ठिर का वैसे तो सारा जीवन ड़ड़ड़ड़ एक बार उन्होंने अश्वत्थामा के ड़ड़ड़ड़ में आधा झूठ बोला था । इसके दंड स्वरूप ड़ड़ड़ड़ कुछ समय नरक में भी जाना था। युधिष्ठिर को पहले नरक में ले जाया गया ताकि उसे प्राप्त कर वे शेष समय स्वर्ग में रहें। जब वे नरक में पहुँचें तो अनेकों प्राणियों को दुःख दर्द से कराहते देखा । उनका हृदय दया से भर गया और इन्हीं पीड़ितों की सेवा करने के लिये सदा यही निवास करने की उन्होंने इच्छा प्रकट की । देवदूतों ने कहा-ये पापी लोग है इन्हें नरक भुगतना पड़ेगा। आप पुण्यात्मा है इसलिए स्वर्ग जायेंगे।। यहाँ आपका रहना संभव नहीं । तब युधिष्ठिर ने कहा-तो इन्हें भी स्वर्ग ले चलें। देवदूतों ने कहा-यदि आप अपना पुण्य इन्हें दे दे तो ये स्वर्ग जा सकते है। युधिष्ठिर ने खुशी खुशी अपना सारा पुण्य उन दुखियों को दान कर दिया ओर स्वयं सदा नरक में रहना स्वीकार किया।

स्वर्ग के स्वामी इन्द्र उन अकेले नरक में पड़ें हुए युधिष्ठिर के पास आये और कहा-आपने अपना पुण्य दान कर दिया ,उस दान का जो नया पुण्य आपने कमाया है उसके फलस्वरूप अब आप फिर स्वर्ग के अधिकारी हो गये।

उदार हृदय व्यक्ति किसी भी स्थिति में होने पर अपना उदारता का परिचय देते रहते है। उनकी परमार्थ बुद्धि अन्ततः उनके लिए कल्याणकारी होती है।

लोकहित के लिए अस्थि दान

वृत्र सुर ने देवताओं को परास्त कर दिया। तब वे प्राण बचाने जहाँ-तहाँ फिरने लगे। ब्रह्माजी से इस दुर्दशा से त्राण का उपाय पूछा तो उनने कहा-महातपस्वी दधीचि ऋषि की हड्डियों का वस्त्र बने तब असुर का वध हो सकना संभव है। देवता ऋषि के पास पहुँचें। वे संकोच वशं कुछ कह तो न सके पर दधिची ने सब कुछ समझ लिया और वत्व की रक्षाआ के लिए खुशी-खुशी अपनी हडडियाँ निकाल कर देवताओं को दे दी। उनसे वज्र बना, तब इन्द्र ने उसके द्वारा वृत्रासुर को मारा।

महापुरुष लोक हित के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने को भी उद्धत रहते है।

महानतम यज्ञ

महाभारत के बाद पाँडवों का विशाल राजसूय यज्ञ सानन्द पूर्ण हो गया तो एक दिन उस यज्ञ की कीच में लोटने वाला न्यौला निराश होकर रोते हुए देखा गया। लोगों ने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि एक यज्ञ की कीच से लोटने से मेरा आधा शरीर सोने का हो गया था, उठा तब तक कीच सूख गई, इसलिए शरीर का दूसरा भाग सुनहरा न हो सका। मैं इस तलाश में था कि और कोई बड़ा यज्ञ हो तो उसकी कीच में लोट कर शेष शरीर को भी सुनहरा करूं । इसी आशा से इस सर्वविख्यात यज्ञ में लोटने बहुत दूर की कष्ट यात्रा करता हुआ मैं आया था। पर यहाँ कुछ भी फल न मिलने से मैं दुखी हो रहा हूँ।

लोगों ने पूछा इस अत्यन्त विशाल यज्ञ से भी बड़ा यज्ञ और कौन सा हुआ था उसका विवरण बताओ। तब न्यौले ने कहा-एक बार बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा। अन्न दुर्लभ हो गया। एक भिक्षा जीवी ब्राह्मण को सात दिन बाद चार रोटी का अन्न मिला। ब्राह्मण, उसकी स्त्री, लड़के तथा लड़की चारों के लिए एक एक रोटी बनी। पर पहले अपने से भी अधिक जरूरत मदं को देकर तब खाना यह धर्म मर्यादा है। इस लिए ब्राह्मण ने छत पर चढ़कर पुकारा कि हमसे अधिक भूखा का इस भोजन में हिस्सा है कोई वैसा हो तो आधे भोजन करे। इतने में एक चाँडाल, जो कठगतं प्राण हो रहा था, आया और उसने अपनी आवश्यकता बताई। ब्राह्मण ने अपनी रोटी दी पर उससे उसकी तृप्ति न हुई। तब ब्राह्मणी,पुत्र तथा कन्या ने भी क्रमशः उस अपना रोटियाँ दे दी। उन्हें खाकर पानी पीने के पश्चात् उस चाँडाल ने जिस जमीन पर कुल्ला किया उस गाली जमीन में मैं कुछ देर पड़ा रहा था। उठा तो अपना गीला आधा शरीर सुनहरा देखा। इसका कारण मालूम करने पर पता चला कि ब्राह्मण का चार रोटी देना एक विशाल यज्ञ के समान पुण्य कार्य था।

अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं की परवा न करके भी जो दूसरों का उपकार करते है उनका भावना के अनुरूप ही पुण्य भी महान् होता है, कार्य चाहे छोटा ही क्या न हो।

क्रोध का प्रतिफल

महर्षि वशिष्ठ के बड़े पुत्र प्रचेता बढ़ें क्रोधी थे। एक दिन वे रास्ते में जा रहे थे कि रास्ता कौन छोड़े, इस विवाद में वे सामने से आने वाले कल्याणप्रद नामक व्यक्ति पर क्रुद्ध हो गये। रास्ता छोटा था-प्रचेता चाहते थे कि सामने वाला व्यक्ति एक ओर हट कर मुझे रास्ता दे। वह सामने वाला भी बड़ा हठी था। मैं ही क्यों हटूँ -आप क्यों न हटे? इस जिद पर वह भी अड़ गया।

बात बढ़, ऋषि को क्रोध भी गया। उसने कल्याणप्रद को शाप दिया-जा तू राक्षस होगा।। शाप के अनुसार वह राक्षस हो गया और अपने स्वभाव के अनुसार उत्पात करने लगा। उसने प्रचेता को भी धर पटका और उन्हें मारकर खा गया।

क्रोधी का क्रोध अन्तः उसके लिए हो घातक बनता है।

जहाँ धर्म वहाँ जीत

गान्धारी ने अनीति के लिए संग्राम करते हुए पुत्र दुर्योधन का भी समर्थन नहीं किया। जब दुर्योधन युद्ध में जाने लगा और माता से आशीर्वाद लेने आया तो उनने उस आशीर्वाद नहीं दिया, वरन् यही कहा -पुत्र ,जहाँ धर्म है वहा जात है यदि विजय चाहते हो तो अनीति को त्याग कर नीति का आश्रय लो ।

विधा का अहंकार

ब्रह्मचारी श्रेतकेतु जब बारह वर्ष गुरुकुल में छै ड़ड़ड़ड़ समेत चारों वेदों को पढ़कर घर लौटा तो उसमें अपनी विद्या का अहंकार आ गया। घर आकर वह बिना पिता को प्रणाम किये ही उनके समीप बैठ गया। तब उसके पिता महर्षि आरुणी ने पूछा तू ऐसा क्या पढ़ आया है जिसके कारण इतना अभिमानी पुरुष के हृदय से तो सारे गुण दूर चले जाते है। और समस्त दोष उसमें अपने आप आ जाते है।

श्रेतकेतु ने अपनी भूल स्वीकार की ओर विधा के अहंकार को भी त्याग दिया।

स्पष्टवादी सत्यकाम

बालक सत्यकाम महर्षि गौतम के गुरुकुल में पहुँचा। आचार्य को अभिवन्दन करके उसने विधा प्राप्त करने की अभिलाषा प्रकट की। महर्षि ने पूछा तुम्हारा वर्ण गोत्र क्या है? उसने बताया-मेरी विधवा माता को गुजारे के लिए अपनी युवावस्था में अनेक पुरुषों की सेवा करनी पड़ी। उसी समय मेरी जन्म हुआ। इसलिए जाति कुल अज्ञात है।

गौतम ने उठाकर बालक को छाती से लगा लिया और कहा-अपनी हानि और निंदा की परवा न करते हुए जो निर्भयता पूर्वक सत्य को कह सकता है वह ब्राह्मण ही है फिर भले ही वह किसी रज वीर्य से पैदा हुआ हो। सौम्य! मैं तुम्हें ब्राह्मण मानकर उपनयन करूँगा और प्रेम पूर्वक शिक्षा दूँगा, चलो मेरे गुरुकुल में प्रवेश करो

सबसे बड़ा कोन?

एक बार सब देवताओं में यह प्रतिस्पर्धा हुई कि हम में से कौन बड़ा है। सभी अपने को बड़ा बताते थे। आखिर मामला ब्रह्माजी तक पहुँचा। उनने सब देवताओं को बुलाया ओर कहा जो कोई सारी पृथ्वी की परिक्रमा सबसे पहले लगाये उसी को बड़ा माना जाएगा। सब देवता अपनी-अपनी सवारियों पर बैठ कर चल दिये। बालक गणेश ने सोचा-पिता माता का गौरव सारी पृथ्वी से भी अधिक है। इसलिए क्यों न उन्हीं की परिक्रमा करी जाय? उन्होंने शंकर और पार्वती की परिक्रमा बड़ी श्रद्धा से की और सबसे पहले ब्रह्माजी के पास पहुँच गये। माता-पिता के प्रति उनकी इतनी अगाध श्रद्धा देखकर ब्रह्माजी ने उन्हें ही सबसे बड़ा माना। शुभ कार्या में पहले गणेश का ही पूजन होता है।

मात-पिता और गुरु क्रमशः इस पृथ्वी के सजीव ब्रह्मा,विष्णु,महेश है। इनके प्रति देवभाव ही रखना चाहिये।

दानी रन्तिदेव

राजा रन्तिदेव की कथा प्रसिद्ध है। वे अपने दरवाजे पर आये हुये किसी सत्पात्र अतिथि को खाली हाथ नहीं जाने देते थे। दान करते करते जब राज्य कोप खाली हो गया तो वे जंगल में जाकर तप करने लगे। वहाँ जो कुछ कन्दमूल फल मिल जाते उसी पर गुजारा करते। अतिथि वहाँ भी खाद पदार्थों का अभाव हो गया। बहुत दिन भूखे रहने के बाद एक दिन जब रन्तिदेव को कुछ आहार प्राप्त हुआ तो वे पहिले अतिथि को ढूँढ़ने लगे। इतने में एक ब्राह्मण, एक चाँडाल तथा कई कुत्ते भूख से पीड़ित सामने आ गये। रन्तिदेव ने अपना तथा स्त्री बच्चों का भोजन इन अतिथियों को देकर स्वयं फिर भूखा रह जाना स्वीकार किया।

दानशीलता उनके लिये उच्चकोटि की तप, साधना बनी और इसी के आधार पर रन्तिदेव ने जीवन लक्ष प्राप्त किया। दान स्वयं एक महान् तप है।

एकाग्रता से सफलता

द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को बाण विधा सिखा रहे थे। उनने एक लकड़ी की चिड़ियाँ पेड़ पर टाँग दी और कहा कि इसकी गरदन पर निशा लगाओ । बारी बारी से शिष्यों को बुलाते और निशाना लगाते समय पूछते तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है? शिष्य बताते कि पेड़, उसकी डाली, पत्ते ,चिड़ियाँ से बँधी हुई रस्सी आदि सभी दीखती है। उन्हें अनुत्तीर्ण घोषित करके गुरु बिना निशाना लगाये ही लौटा देते अन्त में अर्जुन आये ओर उनसे वही प्रश्न पूछा गया तो उनने कहा-मुझे केवल चिड़िया की गर्दन दीखती है, इसके अतिरिक्त ओर कुछ नहीं।। तो द्रोणाचार्य ने उन्हें तीर चलाने की आज्ञा दे दी। निशाना ठीक जगह पर लगा।

एकाग्रता ही समस्त सिद्धियों की आधार शिला है। पूरा मन लगाकर जो कार्य किया जाता है उसमें समस्त शक्तियाँ केन्द्रित हो जाती है ओर सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।

शिष्टाचार की रक्षा

महाभारत युद्ध में जब दोनों पक्ष की सेनाएँ लड़ने खड़ी थी शत्रुता अपने पूर्ण वेग पर थी ,तब भी युधिष्ठिर ने शिष्टाचार को नहीं भुलाया। वे आचार्य द्रोण, कृपाचार्य ,भीष्म पितामह ओर मामा शकुनि के चरणों में प्रणाम करने ओर उनसे आशीर्वाद माँगने गये।


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