हम सब संगठन सूत्र में आबद्ध हो।

September 1959

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(श्री0 गिरिजा सहाय व्यास)

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनाँसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्व सञ्जानाना उपासते॥

(ऋग्वेद 10। 151। 2)

“हे मनुष्यों साथ-साथ मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारी मानसिक भावनायें समान हों, जैसे पहले देवता समान ज्ञान रखकर कार्य करते थे (वैसे ही तुम भी करो)।

उक्त वेद मंत्र में मानव जाति के लिए संगठन बद्ध रहने का आदेश दिया गया है। वैदिक ऋचाओं में कई स्थानों पर परस्पर संगठन बद्ध रहने पर जोर दिया गया है। इससे सिद्ध होता है कि आज से बहुत समय पूर्व वैदिक-काल में ही आर्य जाति ने संगठन का महत्व जान लिया था। यही कारण था कि उनके संगठन बद्ध रहने से देश उन्नति, विकास की ओर बढ़ रहा था। धनधान्य सम्पन्नता, सुख, शान्ति, ज्ञान−विज्ञान, कलाकौशल आदि में भारतीय जनता बढ़ी-चढ़ी थी। वैदिक काल के इस स्वर्ण युग की कल्पना करते ही आज भी हमारे हृदयों में नवीन प्रेरणा जाग उठती है। यह सब उस समय आर्य जाति के संगठन का ही परिणाम था।

संगठन में महान शक्ति होती है। सूत का एक धागा आसानी से तोड़ा जा सकता है जब इस तरह के अनेकों धागे बटकर मोटा रस्सा बना दिया जाता है तो वह नहीं तोड़ा जाता। इसी प्रकार झाड़ू की सींकें बिखर जाएं तो उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता प्रकृति भी सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ को संगठन-बद्ध रहने की सूक्ष्म प्रेरणा देती है। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण पशु-पक्षियों में तथा इतर प्राणियों में देखा जा सकता है मधु-मक्खियों, बर्रे छत्ते बाँध कर संगठित रूप से रहती हैं। यदि वे तितर बितर हो जायँ तो उनकी क्या शक्ति रह जाती है। वे अपने संगठन बल से ही बड़े-बड़े शक्तिशाली मनुष्यों तथा जानवरों को परेशान कर देती हैं। चींटियां, हाथी, हिरण बन्दर आदि संगठनबद्ध सामूहिक रूप से रहते हैं इसमें प्रकृति की मूल प्रेरणा सन्निहित है।

मानव जाति के लिए भी संगठनबद्ध रहना आवश्यक है। क्योंकि संगठन में अनन्त बल, सामर्थ्य, परिश्रम आदि निहित है। उदाहरणार्थ हिन्दू जाति के इतिहास को देखने से पता चलता है जब तक पूर्वकाल में यह संगठनबद्ध रही तो आश्चर्यजनक कार्य किए। विश्व में अपना प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ। ज्ञान-विज्ञान में देश सबसे बढ़ा-चढ़ा रहा। सम्पन्नता ऐश्वर्य शक्ति सामर्थ्य आदि में भी किसी प्रकार कम न था।

खेद है कि कालान्तर में वही हिन्दू जाति अपनी फूट के कारण निरन्तर पतन की ओर चली गई और उसे दुनिया की क्रूरता, अत्याचार, और आक्रमणों का शिकार होना पड़ा। इसकी संस्कृति एवं वैभव संपन्नता, ज्ञान-विज्ञान आदि को आक्रमणकारियों ने कुचल दिया। विदेशी आक्रमणकारियों ने हिन्दू जाति पर इसके असंगठन के कारण जो अत्याचार किये उसकी याद से रोमाँच हो उठता है। उत्तरी पश्चिमी सीमा पर तातारियों के हमले, महमूद गजनवी और गौर के आक्रमण, नादिरशाह द्वारा दिल्ली का कत्लेआम, मुगल, शासक का दमन चक्र और बर्बरतापूर्वक व्यवहार ने हिन्दू संस्कृति, धर्म परम्पराओं को कुचल दिया, ब्रिटिश शासन की तानाशाही, स्वराज्य माँग के बदले में जेल, फाँसी और मशीनगनों की बौछार। इन सबका मूल कारण भारतीयों की संगठन शून्यता ही थी। जिसका अन्त अभी तक भी नहीं हो पाया है।

आज भी भारतीय जनता तरह-तरह के मत भेद, जाति भेद, सांप्रदायिकता, अन्ध परम्पराओं, विभिन्न दलों, फिरकों आदि में छिन्न-भिन्न हो रही है। इन दीवारों ने 40 करोड़ भारतीय जनता की महान शक्ति, सामर्थ्य एवं पुरुषार्थ को छिन्न-भिन्न कर दिया है। यदि यही स्थिति चलती रही तो इस विज्ञान के युग में भारत पिछड़ा हुआ ही रह जायगा।

यदि हमें पुनः उस प्राचीन गौरव को प्राप्त करना है, अपने कदम प्रगति और विकास की ओर अग्रसर करने हैं, इस विज्ञान के युग में अपना अस्तित्व कायम रखना है तो 40 करोड़ भारतीय जनता को संगठनबद्ध होकर चलना होगा। संगठन की शक्ति महान होती है। अकेला तिनका आसानी से तोड़ा जा सकता है किन्तु अनेक तिनकों से बंटा हुआ रस्सा नहीं तोड़ा जा सकता। शरीर को सुव्यवस्थित रूप में चलाने के लिए इसके प्रत्येक अंग का सम्यक् कार्य करना आवश्यक है। यदि इसके अंगों का सहयोग और ताल मेल बिगड़ जाय तो शरीर का अस्तित्व नहीं रह सकता है। ठीक यही बात किसी जाति, समाज, राष्ट्र पर लागू होती है। समस्त राष्ट्र, जाति एक शरीर होती है। इसके विभिन्न अंग सम्प्रदाय, वर्ण जाति आदि का एक संगठनबद्ध जीवन भी होना चाहिए। अर्थात् अनेकता में भी एकता होना आवश्यक है तभी जाकर इसका बल; सामर्थ्य एवं प्रतिभा का उपयोग प्रगति उत्थान एवं विकास के लिए हो सकता है।

संगठन के इस महान् रहस्य को जान कर ही ऋषियों के हृदय में वेद भगवान् का पवित्र आदेश झंकृत हुआ—हे मनुष्यों साथ-साथ चलो तुम्हारे मनों के भाव एक हों। जैसे पहले देवता सम्यक् ज्ञान रख कर कार्य करते ये वैसे तुम भी करो।” निश्चय ही वेद भगवान का यह आदेश हमारे लिए संगठनबद्ध रहने के लिए है। साथ-साथ चलने में कितनी शक्ति है यह तो किसी विशाल सेना या किसी विशाल जुलूस को देखकर किया जा सकता है। यदि साथ-साथ चलकर भी प्रत्येक मनुष्य की मनोभावना अलग अलग हो, उद्देश्य अलग-अलग हो, तो भी वह संगठन किसी काम का नहीं। अतः साथ-साथ चलने के साथ मनोभावनायें उद्देश्य, विचार एक होने चाहिएं। जिस प्रकार पूर्व समय में देवताओं ने अपने संगठन और एक उद्देश्य से महान् शक्तिशाली असुरों को परास्त किया और स्वर्गीय जीवन प्राप्त किया।

वर्तमान समय में भारतीय जाति के लिए संगठनबद्धता की महान् आवश्यकता है। कुछ समय पूर्व स्वतन्त्र हुए इस महान् राष्ट्र की शक्तियाँ अभी प्रायः बिखरी हुई हैं। विचार भावनायें पृथक-पृथक हैं जिनके फलस्वरूप, राजनैतिक आन्दोलन, प्रान्तीयता, भाषा आन्दोलन, साम्प्रदायिकता, जातिवाद आदि का दूषित वातावरण फैल रहा है। यह हमारी प्रगति, विकास, उत्थान एवं सुख-शान्ति के लिए भारी विघ्न है, जो हमें ही खाये जा रहा है। अतः सभी देशवासियों को इसके रहस्य को जान कर परस्पर संगठन, सामूहिकता, एकता को अपनाना चाहिए। उक्त दूषित तत्वों से बचकर संगठन के लिए आवश्यक तत्वों को प्रोत्साहन देना चाहिए। इसी में हमारी उन्नति, प्रगति सम्भव है। “संघे शक्ति कलौयुगे” में संगठन का महान् रहस्य छिपा हुआ है आज जिसका संगठन है वही शक्तिशाली है। संगठन रहित कितनी भी शक्ति संपन्नता, बल वैभव क्यों न हो उसका आज कोई मूल्य नहीं है—


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