बापू के आदर्श महाव्रत

September 1959

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(श्री ज्वालाप्रसाद गुप्त. एम.ए.एल.टी.)

किसी ने सत्य ही कहा है कि गाँधी जी का जीवन इतिहास का एक अद्भुत अध्ययन है जिसे मानव जाति कभी भी भुला नहीं सकती। आपके दिव्य जीवन-प्रसंगों का स्मरण वास्तव में कितना पुनीत है। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद अस्तेय, अपरिग्रह तथा अभय आपके जीवन के अनुकरणीय हैं और उन पर एक विहंगम दृष्टि डालना आवश्यक है।

सत्य—साधारणतया ‘सत्य’ का अर्थ हम सच बोलना ही समझते हैं, परन्तु वास्तव में विचार, वाणी और आधार में सत्य ही सत्य होना चाहिये। इस सत्य को संपूर्णतया समझने वाले को संसार में और कुछ भी जानना नहीं रहता, क्योंकि सारा ज्ञान इसमें समाया है। सत्य शब्द का मूल सत् है। सत् का अर्थ है होना, सत्य अर्थात् होने का भाव । सिवा सत्य के और किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। इसीलिये परमेश्वर का सच्चा नाम सत् अर्थात् सत्य है। अतः परमेश्वर सत्य है, कहने की अपेक्षा सत्य ही परमेश्वर है यह कहना अधिक उपयुक्त है। जहाँ सत्य है वहाँ ज्ञान-शुद्ध ज्ञान है। जहाँ सत्य नहीं वहाँ शुद्ध ज्ञान हो नहीं सकता, इसीलिये ईश्वर नाम के साथ चित्-ज्ञान शब्द जोड़ा गया है। जहाँ सत्य-ज्ञान है वहाँ आनन्द ही आनन्द है, शोक हो ही नहीं सकता। इसी कारण ईश्वर को सच्चिदानन्द कहते हैं। इस सत्य की आराधना के लिये ही हमारा जीवन और हमारी हर एक प्रवृत्ति हो । इस प्रसंग में सत्य हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, रामचन्द्रजी, इमाम हसन, अन्य ईसाई संत इत्यादि के चरित्रों पर विचार कर लेना चाहिये और सभी बालक, बड़े बूढ़े, स्त्री पुरुष आदि को चलते-बोलते, खाते पीते, खेलते अर्थात् हर काम करते हुये सत्य की रट लगाये रहनी चाहिये। बापू का कथन है कि यह सत्य रूपी परमेश्वर उनके लिये तो रत्न चिन्तामणि सिद्ध हुआ है।

अहिंसा—अहिंसा का साधारण अर्थ है हिंसा न करना अर्थात् किसी को कभी न मारना या सताना। परन्तु वास्तव में कुविचार मात्र हिंसा है। मिथ्या भाषण हिंसा है, द्वेष हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा है। अब यह प्रश्न उठता है कि यदि कोई हमें सताये तो उस दशा में हमें क्या करना चाहिये। चोर हमें सताते हैं। उनसे बचने के लिये हम इन्हें दण्ड देते हैं परन्तु इससे चोरी का अंत तो होता नहीं। उनका उपद्रव सहते जाना भी ठीक नहीं क्योंकि इससे कायरता पैदा हो सकती है। वास्तव में हमें उन्हें सुधारने और अपनाने के लिये उपाय सोचने का कष्ट उठाना चाहिये। यह अहिंसा का मार्ग है। इसमें उत्तरोत्तर दुःख ही उठाना पड़ता है। अखण्ड धैर्य धारण करना पड़ता है। और यदि ऐसा हुआ तो अन्त में चोर साहूकार बन जाता है और हमें सत्य के अधिक स्पष्ट दर्शन होते हैं। इस प्रकार अहिंसा मार्ग पर हम जगत को मित्र बनाना सीखते हैं। संकट सहते हुये भी अंत में शान्ति और सुख की वृद्धि होती है। इस प्रकार पूज्य बापू के मतानुसार अहिंसा का अर्थ है सर्वव्यापी प्रेम।

ब्रह्मचर्य—ब्रह्मचर्य का अर्थ है कि पुरुष और स्त्री एक दूसरे को विषय की दृष्टि से न देखें, एक दूसरे को विषय के विचार से न छुएं; उनके मन में स्वप्न में भी विषय के विचार न उठें। ब्रह्मचर्य का पालन मन, वचन और काया से होना चाहिये। जो शरीर को वश में रखता हुआ जान पड़ता है, पर मन से विकार का पोषण किया करता है, वह मूढ़, मिथ्याचारी है। मन को विकारपूर्ण रहने देकर शरीर को दबाने का प्रयत्न करना हानिकर है। जहाँ मन है, वहाँ अन्त में शरीर भी घसीटाये बिना नहीं रह सकता। हम प्रतिपल यह अनुभव करते हैं कि शरीर तो वश में रहता है पर मन नहीं रहता। यदि हम मन के अधीन हो जायें तो शरीर और मन में विरोध खड़ा हो जाता है, मिथ्याचार का आरम्भ हो जाता है। इसके कारण का पता लगाने से ज्ञात होता है कि ब्रह्मचर्य का संकुचित अर्थ किया गया है। जननेन्द्रिय-विकार के निरोध को ही ब्रह्मचर्य का पालन माना गया है। परन्तु वास्तव में यह अधूरी और खोटी व्याख्या है। विषय मात्र का निरोध ही पूर्ण ब्रह्मचर्य है। जो और-और इन्द्रियों को जहाँ-तहाँ भटकने देकर केवल एक ही इन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करता है, वह निष्फल प्रयत्न करता है। कान से विकार की बातें सुनना, आँखों से विकार उत्पन्न करने वाली वस्तु देखना, जीभ से विकारोत्तेजक वस्तु चखना, हाथों से विकारों को भड़काने वाली चीजों को छूना और साथ ही जननेन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करना, यह तो आग में हाथ डाल कर जलने से बचने का प्रयत्न करने के समान हुआ। इसीलिये जो जननेन्द्रिय को रोकने का निश्चय करे, उसे पहले ही से प्रत्येक इन्द्रिय को उस-उस इन्द्रिय के विकारों से रोकने का निश्चय कर लेना चाहिये। यदि हम सब इन्द्रियों को एक साथ वश में करने का अभ्यास करें तो जननेन्द्रिय को वश में करने का प्रयत्न शीघ्र ही सफल हो सकता है। अतः ब्रह्मचर्य की संकुचित व्याख्या से भ्रमित न होकर हमें ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म की, सत्य की शोध में चर्या, अर्थात् तत्संबंधी आचार। इस मूल अर्थ से सर्वेन्द्रिय-संयम का विशेष अर्थ निकलता है। केवल जननेन्द्रिय-संयम के अधूरे अर्थ को तो हमें भुला ही देना चाहिये। इस संबंध में गृहस्थ में रहने वालों की परिस्थिति पर भी विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। जो विवाहित हैं उन्हें याद रखना चाहिये कि उनकी स्त्री मित्र, सहचरी और सहयोगिनी है, केवल भोग विलास का साधन नहीं। आत्म-संयम जीवन का नियम है। इसलिये मैथुन तभी किया जा सकता है जब कि पति पत्नी दोनों चाहें और वह भी नियमों से शासित होकर जिन्हें दोनों ने शाँत चित्त से तय कर लिया हो। केवल भोग विलास के लिये वीर्य हानि करना और शरीर को निचोड़ना कैसी मूर्खता है?

वैवाहिक जीवन में पूर्ण ब्रह्मचर्य का अनुभव बापू के मतानुसार इस प्रकार संभव है कि विवाहित अविवाहित सा बन जाय और इस दिशा में जो सुन्दर अनुभव बापू ने किया, वह विरले ही किसी ने किया होगा। विवाहित स्त्री पुरुष का एक दूसरे को भाई बहन मानने लगना सारी झंझटों से मुक्त होना है। संसार भर की सारी स्त्रियाँ बहनें हैं, माताएँ हैं, लड़कियाँ हैं, यह विचार ही मनुष्य को एक दम ऊँचा उठाने वाला है। इससे पति पत्नी कुछ खोते नहीं, उलटे अपनी पूँजी बढ़ाते हैं। विकार रूपी मैल को दूर करने से प्रेम भी बढ़ता है और विकासर नष्ट होने से एक दूसरे की सेवा भी अधिक अच्छी हो सकती है तथा एक दूसरे के बीच कलह के अवसर कम होते हैं।

अस्वाद—यह व्रत ब्रह्मचर्य से निकट संबंध रखने वाला है। यदि इस व्रत का भली भाँति पालन किया जाय तो ब्रह्मचर्य-अर्थात् जननेन्द्रिय संयम बिलकुल सरल हो जाय। अस्वाद का अर्थ है स्वाद न करना। स्वाद अर्थात् रस, जायका। जिस प्रकार दवा खाते समय इस बात का विचार नहीं करते कि वह स्वादिष्ट है या नहीं, पर शरीर के लिये उसकी आवश्यकता समझ कर ही उसे उचित मात्रा में खाते हैं, उसी तरह अन्न आदि को भी समझना चाहिये। इसलिये स्वाद की दृष्टि से किसी भी खाद्य पदार्थ को चखना व्रत का भंग है। स्वादिष्ट पदार्थ को ज्यादा खाने से तो सहज ही व्रत का भंग होता है। इससे यह स्पष्ट है कि किसी पदार्थ का स्वाद बढ़ाने, बदलने या उसके अस्वाद को मिटाने के अभिप्राय से उसमें नमक इत्यादि मिलाना व्रत का भंग करना है। परन्तु यदि हम यह जानकर कि अन्न में नमक की अमुक मात्रा में आवश्यकता है और इसलिये उसमें नमक छोड़ें तो इससे व्रत का भंग नहीं होता। शरीर पोषण के लिये आवश्यक न होते हुए भी केवल मन को धोखा देने के लिये आवश्यकता का आरोपण करके किसी खाद्य पदार्थ में कोई चीज स्वाद के लिये मिलाना वास्तव में मिथ्याचार ही कहा जायगा। इस दृष्टि से विचार करने पर हम देखेंगे कि अनेक वस्तुयें जो हम खाते हैं, वे शरीर रक्षा के लिये आवश्यक न होने से त्याज्य ठहरती हैं और इस प्रकार जो असंख्य चीजों को छोड़ देता है, उसके समस्त विकारों का शमन हो जाता है।

अस्वादव्रत के महत्व को समझ चुकने पर हमें उसके पालन के लिये प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिये अहर्निश खाने की चिन्ता करना आवश्यक नहीं है। केवल सावधानी की जागृति की अत्यधिक आवश्यकता है। ऐसे करने से कुछ ही समय में हमें स्वयं मालूम होने लगेगा कि हम कब और कहाँ स्वाद करते हैं अथवा नहीं। मालूम होने पर हमें चाहिये कि हम अपनी स्वाद वृति को दृढ़ता के साथ धीरे-धीरे कम करते जायँ। इस दृष्टि से संयुक्त पाक यदि वह अस्वाद वृत्ति से किया जाय तो बहुत ही सहायक है। इस व्रत के पालन से ब्रह्मचर्य पालन में बड़ी सहायता मिलेगी।

अस्तेय—अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। दूसरे की वस्तु को उसकी अनुमति के बिना लेना चोरी है ही परन्तु मनुष्य अपनी कही जाने वाली वस्तु को भी चुराता है। उदाहरणार्थ, किसी माता पिता का अपने बालकों के जाने बिना, उन्हें न मालूम होने देने की इच्छा से, चुपचाप किसी वस्तु को खाना। यह कहा जा सकता है कि किसी घर का वस्तु-भण्डार घर के सब प्राणियों का है, परन्तु उसमें से यदि कोई चुपचाप गुड़ की एक डली भी ले ले तो वह चोर है। किसी के जानते हुये भी उसकी चीज को उसकी आज्ञा के बिना लेना चोरी है। यह समझ कर किसी चीज को अपने पास रख लेना कि वह किसी की भी नहीं है, चोरी है। अर्थात् राह में मिली हुई चीज के अधिकारी हम नहीं बल्कि उस प्रदेश का राजा या व्यवस्थापक है। किसी आश्रम या संस्था के समीप मिली हुई कोई भी वस्तु उस आश्रम के मंत्री या व्यवस्थापक को जानी चाहिये और यदि वह आश्रम के किसी व्यक्ति की या आश्रम की न हो तो मंत्री या व्यवस्थापक उसे सिपाही को सौंप कर दर्ज करा दे। सच पूछो तो अस्तेय इससे भी बहुत आगे जाता है। जिस चीज की लेने की हमें आवश्यकता न हो, उसे जिसके पास वह है, उसकी आज्ञा लेकर भी लेना चोरी है।

उक्त समस्त चोरियों को बाह्य या शारीरिक चोरी कह सकते हैं, परन्तु इससे भी सूक्ष्म और आत्मा को नीचे गिराने वाली या पतित बनाये रखने वाली चोरी, मानसिक है। मन से किसी चीज को पाने की इच्छा करना या उस पर जूठी नजर डालना चोरी है। बड़े-बूढ़े या बालक आदि का किसी बढ़िया चीज को देखकर ललचा जाना मानसिक चोरी है। बहुतेरी चोरियों का मूल कारण हमारी यह जूठी इच्छा ही मालूम होगी। आज जिस चीज के लिये केवल विचार ही में जूठी इच्छा है, कल उसे पाने के लिये हम भले बुरे उपाय सोचने लग जायेंगे और जैसे चीज की वैसे ही विचार की भी चोरी होगी।

अपरिग्रह—जो चीज मूल में चोरी की नहीं है, पर आवश्यक है उसका संग्रह करने से वह चोरी की चीज के समान हो जाती है क्योंकि हम उसका परिग्रह करते हैं परिग्रह का अभिप्राय सञ्चय या इकट्ठा करना है। सत्यशोधक तथा अहिंसक परिग्रह नहीं कर सकता। धनवान के घर उसके लिये अनेक अनावश्यक चीजें भी रहती हैं, मारी मारी फिरती हैं, बिगड़ जाती हैं, जबकि उन्हीं चीजों के अभाव में करोड़ों दर-दर भटकते हैं, भूखों मरते हैं और जाड़े से ठिठुरते हैं। यदि सब अपनी आवश्यकतानुसार ही संग्रह करें तो किसी को अभाव न हो और सब संतोष से रहें। आज तो दोनों अभाव का अनुभव करते हैं। करोड़पति अरबपति होने की चेष्टा करता है तो भी उसे संतोष नहीं रहता। कंगाल धनी बनना चाहता है, उसे पेट भर मिल जाने से ही संतोष होते नहीं दीख पड़ता। परंतु कंगाल को पेट भर पाने का हक है और समाज का धर्म है कि वह उसे उतना प्राप्त करा दे। सच्ची संस्कृति सुधार और सभ्यता का लक्षण परिग्रह की वृद्धि नहीं बल्कि विचार और इच्छापूर्वक उसकी कमी है। हमारा यह आदर्श होना चाहिये कि हम नित्य अपने परिग्रह की जाँच करते रहें और जैसे बने वैसे उसे घटाते रहें। जैसे-2 परिग्रह कम करते हैं, वैसे-2 सच्चा सुख और सच्चा संतोष बढ़ता है तथा सेवा और क्षमता की वृद्धि होती है।

अभय—भगवान ने गीता के 16 वें अध्याय में दैवी संपदा का वर्णन करते हुए इसकी गणना प्रथम की है। वास्तव में बिना अभय के सत्य की शोध कैसी? बिना अभय के अहिंसा का पालन कैसा? अभय अर्थात् समस्त बाह्य भवों से मुक्ति-मौत का भय, धन माल लुटने का भय, कुटुँब परिवार संबंधी भय, रोग का भय, शस्त्र प्रहार का भय, आबरू इज्जत का भय, किसी को बुरा लगने का भय, संबंधियों के वियोग का भय आदि। यों भय की वंशावली जितनी बढ़ावें, बढ़ायी जा सकती है। परंतु सत्यशोधक के लिये इन सब भयों को तिलाँजलि दिये ही छुटकारा है। वास्तव में निश्चय से, सतत् प्रयत्न से और आत्मा पर श्रद्धा बढ़ने से अभय की मात्रा बढ़ सकती है। हमें बाह्य भयों से तो मुक्त होना ही है और साथ ही साथ अंतर में जो शत्रु वास करते हैं उन पर भी विजय पाना है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का भय है। इन्हें जीत लें तो बाह्य भयों का उपद्रव अपने आप मिट जाय। भय मात्र देह के कारण हैं। देह-संबंधी रोग-आसक्ति दूर हो तो अभय सहज ही प्राप्त हो। सभी वस्तुओं के प्रति ममत्व की भावना दूर कर देने पर भय कहाँ रह जाता है? ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा;’ यह रामबाण वचन है। कुटुँब, धन, देह, जैसे के तैसे रहेंगे, पर उनके संबंध की अपनी कल्पना हमें बदल देनी होगी। ये ‘हमारे’ नहीं ‘मेरे’ नहीं, ईश्वर के हैं। मैं भी उसी का हूँ, मेरा अपना इस जगत में कुछ भी नहीं है, तो फिर हमें भय किसका हो सकता है। वह ही हमारी रक्षा करेगा और आवश्यक शक्ति तथा सामग्री देगा तथा जो कुछ करेगा अच्छा ही करेगा, यों यदि हम स्वामी न बन कर सेवक बनें, शून्यवत् रहें, तो सहज ही समस्त भयों को जीत लें और शान्ति प्राप्त करके सत्यनारायण के दर्शन करें। यह है बापू की भावना ‘अभय व्रत’ के संबंध में।

वास्तव में पूज्य बापू ‘महान् से भी महानतम थे। उपरोक्त महाव्रत उनके जीवन के सच्चे आदर्श थे। यदि हम उनका अनुकरण करें तो हम भी अपने जीवन को श्रेष्ठ तथा उन्नत बना सकते हैं।


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