(प्रो. ओमप्रकाश गुप्त एम. ए. एल. एल. बी.)
मन की शाँति मिल गई, तो सफलता, सुख, वैभव इत्यादि सब कुछ मिल गया—आज का युग तो काफी सीमा तक अशाँति का युग है। मनुष्य को मालूम नहीं कि वह धर्म का आश्रय ले या विज्ञान का। पुरातन मूल विश्वास, धारणाएँ, काफी हद तक प्राणशून्य हो चुकी हैं और उनका स्थान भी अन्य मूल, विश्वासी और धारणाओं ने जम कर, स्पष्ट रूप में नहीं लिया है। आजकल तो मानों सभी कुछ अस्थिर है। रूढ़िगत धर्म में विश्वास तो बहुत पहले से ही जा चुका था, किन्तु आज तो विज्ञान की उपादेयता में भी काफी संदेह किया जाता है। विज्ञान का सम्बल तो वैसे भी नहीं लिया जा सकता, क्योंकि इसका कार्य ‘मूल्य-निर्धारण’ तो है ही नहीं। रोटी की समस्या भी काफी कठिन हो गई है। परिवार को पालन के लिये बड़े-छोटे सभी को किसी न किसी प्रकार का कार्य धनोपार्जन के लिये करना पड़ता है। संबंधियों में आपस में वह स्नेह-अनुराग भी नहीं रहा जो कदाचित् पहले के समय में रहता हो। मानव की भौतिकता और स्वार्थपरता अपनी सीमा का अतिक्रमण कर चुकी है। सहृदयता, सहानुभूति, सहिष्णुता, उदारता—इत्यादि की सद्वृत्तियाँ मानो लोप हो रही हैं।
आज पैसा ही पैगंबर बन गया है। इस पैसे की दौड़ में हम अपने शरीर, शान्ति, स्नेह—किसी की भी तनिक परवाह नहीं करते। न तो हमें अपनी आरोग्यता का ख्याल रहता है और न हमें अपने बीबी-बच्चों के प्रति ही अनुराग प्रदर्शित करने का समय है।
काम-वासना की भावना के प्रचार और प्रसार ने भी हमें काफी हद तक पथ भ्रष्ट किया है। आज के उपन्यास इस भावना को उत्तेजित करने में काफी सीमा तक सफल हुए हैं। आज के युवक को जीवन में ‘रोमाँच’ चाहिये—कुछ गर्म, रंगीन, सुगन्धित वातावरण अपने चारों ओर युवतियों को अपने जाल में फँसाना तो उसकी एक प्रिय हाबी हो गई है। आप कहीं भी चले जायें—क्लब में, स्टाफ रूप में, साहित्य गोष्ठी में, सेक्स की चर्चा ही प्रधान रूप से मिलेगी।
कहने का अर्थ यह है कि आज चारों ओर अशान्ति, अविश्वास, शुष्कता का साम्राज्य है।
मन की अशान्ति को दूर करने के निम्नलिखित पाँच साधन हैं—
परिस्थिति के अनुरूप अपने को ढालना।
शरीर का पूरा-पूरा ध्यान रखना।
“स्वार्थ-केन्द्रित” न रहना।
आशावादी होना।
परम सत्ता के न्याय में विश्वास रखना।
प्रथमतः हमें चाहिये कि हम अपने आपको परिस्थिति के अनुरूप ढालें और जिस परिस्थिति में हों उससे असन्तोष या घृणा न प्रकट करें। दिन कभी एक से नहीं रहते। पथ कभी सम होता है, कभी विषम। हमें चाहिए कि हम दुःख के विम पथ पर धैर्य न खो बैठें। प्रत्येक परिस्थिति की अपनी-अपनी हानि होती है और अपना-अपना लाभ। संसार की कोई भी ऐसी परिस्थिति नहीं जिसका कुछ न कुछ लाभ न हो। हमें लाभ की ओर ही ध्यान देना चाहिये। जिन मजदूरों को मिट्टी में कार्य करना पड़ता है, स्वास्थ्य भी तो उन्हीं का बढ़ता है। मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि हमें परिस्थिति को बदलने या अनुकूल बनाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। ज्ञान तो केवल यही है कि हमें प्रतिकूल परिस्थिति में हिम्मत नहीं खो बैठना चाहिये और जब हम देखें कि परिस्थिति में तब्दीली आती ही नहीं, तो हमें उस परिस्थिति से संतोष करना चाहिये। नीच वह नहीं जिसका कार्य आप नीच बतलाते हैं, किन्तु नीच वह है जो अपने कार्य में चाहे वह कार्य कितना ही छोटा हो, दिलचस्पी नहीं लेता और केवल काम-चलाऊ काम करता है।
इस जिंदगी में कभी पक्की सड़कें आती हैं और कभी कच्ची। हमें दोनों प्रकार की सड़कों को अपनाना है, सहर्ष और एक जैसे उत्साह से। कभी खीर खानी है; तो कभी चने चबा कर ही काम चलाना है। कभी फूलों के बिछौने पर सोना है तो कभी कंटकों की सेज भी अपनानी है। शान्ति प्राप्त करने का यही प्रथम साधन है कि हम अपने को प्रतिकूल परिस्थिति में विचलित न होने दें।
दूसरा साधन है शरीर की सुरक्षा। शरीर को स्वस्थ-सुरम्य बनाना तो हमारा प्रथम धर्म है। यदि शरीर में कोई विकार उत्पन्न हो गया, तो मन तो अपने आप विकार-ग्रस्त हो जायेगा। हम भारत के लोग आत्मा-आत्मा का तो नारा अवश्य लगाते रहते हैं, किन्तु तन का विशेष ख्याल नहीं रखते। शरीर के स्वस्थ रहने पर ही, आत्मा स्वस्थ रहेगी। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये यह परमावश्यक है कि हम यथाशक्ति कार्य करें और अधिक पैसा कमाने या विकास का अधिक आनंद लेने की धुन में शरीर का क्षय न करें, कार्य करने के समय कार्य करें और खेलने के समय खेलें। मन बहलाने के साधनों का पर्याप्त एवं उचित प्रयोग करें। चिंता तो शरीर के लिये घोर अनिष्टकारी है। इसका त्याग भी परमावश्यक है। जो शरीर औषधियों का गुलाम बन जाता है, वह कभी भी नीरोग नहीं रह सकता और न पूर्ण रूप से कार्य कर सकता। हमें शुद्ध चीजों का ही सेवन करना चाहिये।
तीसरा साधन यह है कि हम एक सीपी में रहने वाले जीवन की तरह “स्वार्थ केन्द्रित” न हों—सदा अपने स्वार्थ की ही बात नहीं सोचनी चाहिये, समाज, राष्ट्र का भी ख्याल करना चाहिये। उसका मन कभी भी शान्त-सुखद नहीं हो सकता जो सदा अपने ही लाभ के साधन क्रम जुटाता रहता है और जो अपने मित्रों को या अपनी स्त्री को अपने-केवल अपने ही-सुख का साधन-मात्र समझता है। स्वार्थरत प्रवृत्ति के लोग न केवल अपना ही नाश करते हैं किन्तु उन सब लोगों के लिये भी घोर अनिष्टकारी साबित होते हैं जो उनके संपर्क में आते हैं। ऐसे लोगों का पारिवारिक जीवन तो कभी भी सफल नहीं होता। मनुष्य को उदार, परोपकारी, सहानुभूतिमय होना चाहिये। जो आदमी दूसरे के हित की बात सोचता रहता है, उसे अपने दुःखों और अभावों का तो ख्याल ही नहीं रहता। इसीलिये उसके मन की शाँति बहुत कम भंग होती है। जो लोग अपने कमरों में अपने सिरों को झुकाये मुँह फुलाये बैठे रहते हैं और दूसरों से विचार-विनिमय करने के लिये बहुत कम अपने घरों से बाहर निकलते हैं, उनका सुखी और शाँत रहना काफी दुष्कर है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है; उसकी मानसिक एवं आत्मिक उन्नति तभी सम्भव है जब वह समाज में विचरता है और उस से लेन-देन का व्यवहार बनाये रखता है।
चौथी बात यह है कि हमें आशावादी होना चाहिये। जिस प्रकार पतझड़ के पश्चात् बसन्त का आगमन अवश्यंभावी है, उसी प्रकार दुःख के पश्चात् सुख का प्रकट होना स्वाभाविक है। दुःख की घड़ी बैठी नहीं रहती, कुछ समय के पश्चात् गुजर जाती है। दिन एक जैसे नहीं रहते, अच्छे दिन भी आते हैं। मनुष्य को धैर्य से काम लेना चाहिये, समय के साथ बिगड़ी भी बन जाती है। सबर एक बड़ा गुण है। दुःख की घड़ी का भी तो अपना लाभ होता है। वह हमारे “व्यक्तित्व का परिमार्जन करती है, हमारी योग्यताओं को अभिव्यक्ति का अवसर देती है भीषण से भीषण आपत्ति का भी कुछ न कुछ कुछ लाभ अवश्य हो सकता है। यदि दुःख का क्षण टले ही नहीं, तो इस संसार में जीवन ही असम्भव हो जाये।”
पाँचवाँ उपाय है—परम सत्ता के न्याय में विश्वास रखना। हमें कदापि भी नहीं भूलना चाहिये कि यह संसार भी किसी विधान के अनुसार परिचालित है और वह विधान पूर्ण, सर्व हितकारी है। हम प्रतिदिन क्या देखते हैं? यदि किसी की हानि होती है तो उसे लाभ भी होता है। जहाँ मृत्यु है, वहाँ जन्म भी है, इस दुनिया में अंधेर नहीं है। हाँ यदि हम ‘स्वार्थ-को हित’ हो कर सोचना आरम्भ करें, तो हमें चारों ओर अंधेर नजर आयेगा। मनुष्य को चाहिये कि वह सामाजिक दृष्टिकोण से सोचे, दुनिया का नागरिक बने।