त्याग और पवित्रता की अपार शक्ति

September 1959

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(डॉ. चमनलाल गौतम)

मनुष्य किसी भी प्रकार का साधन क्यों न करे, किसी भी धर्म में बतलाई गई उपासना पद्धति को क्यों न स्वीकार करे, दो बातों का होना सदैव आवश्यक माना गया है। वे दोनों हैं—त्याग और पवित्रता। संसार के विभिन्न धर्मों में कितनी ही बातें एक दूसरे के विपरीत जान पड़ती हैं, बाह्य क्रियाकलापों में जमीन आसमान का अन्तर देखने में आता है—एक मत का अनुयायी अपना धर्मानुष्ठान समाप्त होने पर प्राणियों को आहार दान द्वारा संतुष्ट करता है और दूसरे धर्म वाला वैसे ही अवसर पर उनका बलिदान कर देता है—फिर भी यदि उस धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन न किया जाय तो उसमें त्याग और पवित्रता का उद्देश्य अवश्य निहित मिलेगा। क्योंकि आत्मा और परमात्मा का अनुभव मनुष्य को तब तक कदापि नहीं हो सकता जब तक उसके हृदय में सत्य निष्ठा और आन्तरिक श्रद्धा का प्रकाश न हो और ऐसा प्रकाश अधिक से अधिक आत्म समर्पण और आत्मानुशीलता के बिना संभव नहीं है, इस संबंध में एक महात्मा ने कहा है—

“बाह्य प्रकृति ईश्वर की छाया है और अन्तरात्मा, जो अपने आपको ढूँढ़ रहा है, उसका मुख्य और विशिष्ट दर्पण है। यदि ईश्वर की दिव्य सत्ता का सृष्टि की वस्तुओं द्वारा दर्शन करना है, तो इसके लिये सब से बड़ी आवश्यकता यही है कि इस दर्पण को सब प्रकार के मैल और दाग-धब्बों को छुड़ाकर स्वच्छ बना लिया जाय।”

यद्यपि यह उपदेश बड़ा सरल है और संसार के प्रत्येक माननीय धर्मग्रन्थ में किसी न किसी रूप में लिखा हुआ है, पर केवल इसके पढ़ लेने से अथवा इसकी प्रशंसा में बड़ी-बड़ी बातें कह देने से काम नहीं चल सकता, यह तो एक सेवा व्यवहारिक विषय है कि हम जितने अंशों में उसका पालन करेंगे उतना ही फल हमको दृष्टिगोचर होगा। जब तक मनुष्य अपने विचारों और चरित्र की छानबीन करके अपने दोषों को स्वयं न समझ लेगा और उनको वास्तव में त्याग कर अपने जीवन को शुद्ध न बना लेगा तब तक परमात्मा का प्रकाश किसी प्रकार मिलना संभव नहीं। यह सत्य है कि मनुष्य की अधोगामिनी प्रकृति को वश में करना और साँसारिक प्रलोभनों के ऊपर विजय पाना सरल कार्य नहीं है। सज्जनता और साधुता के लिये प्रसिद्ध बहुसंख्यक व्यक्तियों के चरित्र में भी गुप्त रूप से निकृष्ट विषय भोगों की लालसा पर्याप्त परिणाम में पाई जाती है, बड़े-बड़े धर्मध्वजी कहलाने वालों का जब भंडाफोड़ होता है तो उनको नारकीय कीड़े के सिवाय और कुछ नहीं कहा जाता। इसलिए साधारण मनुष्यों से यह आशा करना कि वे एक प्रभावशाली प्रवचन सुनकर अथवा सदुपदेश पूर्ण एक लेख पढ़ कर दोषों को त्याग देंगे और शुद्ध जीवन व्यतीत करने लगेंगे, ठीक नहीं है। पर अगर मन से दोषों की निकृष्टता को समझ कर उन्हें त्यागने का निश्चय कर लिया जाय और फिर नियमों का पालन सचाई के साथ किया जाय तो शीघ्र या विलंब से आत्मोन्नति के लक्ष्य तक पहुँचना सर्वथा संभव है। इस संबंध में चर्चा करते हुये एक संत पुरुष ने कुछ नियम इस प्रकार बतलाये हैं—

(1) अपने निकृष्ट आत्मभाव-अहंकार को मिटा कर जीव-सेवा का व्रत अंगीकार करना।

(2) इस बात का प्रयत्न करना कि किसी पदार्थ या अपने शरीर में भी आसक्ति न रहे। जो कुछ हमारे पास है उसे भगवान का समझ कर परोपकारार्थ लगाने को तैयार रहना और बदले में पाने की इच्छा न रखना।

(3) पृथ्वी के पदार्थों और संपत्ति की क्षणभंगुरता को अच्छी तरह समझ लेना।

(4) जिस कार्य का निश्चय किया हो उसे पूर्ण श्रद्धा और आत्म विश्वास के साथ करना।

आरम्भ में इन नियमों पर दृढ़ रहने का संकल्प करके अपने भीतर पाये जाने वाले दोषों और त्रुटियों को एक-एक करके दूर करते जाना चाहिये। यह ख्याल करना कि उपयुक्त नियमों का संकल्प करते ही हमको पूर्णरूप से महात्मा बन जाना होगा, नासमझी की बात है। यह तो स्पष्ट है कि अहंकार का मिटाना, सम्पत्ति और शरीर की आसक्ति का न रहना, कोई सहज बात नहीं है। इसका आशय यही है कि इन आदर्शों को अपने सामने रख कर जीवन-यात्रा की जाय और धीरे-धीरे पुराने स्वभाव को छोड़ कर नई आदतें ग्रहण की जायें। जब कभी अपनी कमजोरी या परिस्थितिवश मार्ग च्युत हो जाएं, पतन हो जाय तो उससे जरा भी न घबराकर फिर दुगने उत्साह और प्रयत्न से आदर्श को प्राप्त करने की चेष्टा की जाय। यह भली प्रकार स्मरण रखना चाहिये कि संयम, नियम, त्याग का मार्ग ऐसा सहज नहीं है कि हम सीधे कदम उठाते हुये बिना किसी विघ्न−बाधा के लक्ष्य तक पहुँच जायें। जैसा हम ऊपर कह चुके हैं कि ऐसे भाग्यवान तो करोड़ों में से कोई एक-दो मिलते हैं जो स्वभाव से ही इस मार्ग के पथिक हों और बिना विशेष कठिनाई के आत्मोत्थान की इस ऊर्ध्वगामी यात्रा को समाप्त कर ले। अन्यथा सभी मनुष्यों को इसमें बार-बार गिरना और पुनः चढ़ कर चलना ही पड़ता है। इसीलिये नीति और चरित्र के महान उपदेशक जेम्सऐलन ने एक स्थान पर स्पष्ट शब्दों में लिखा है—

“यदि तुम दस बार हारो तो भी हिम्मत मत छोड़ो; यदि सौ बार हारो तो भी उठो और अपने रास्ते पर चलो। यदि तुम हजार बार हारों तो भी निराश मत होओ। जब तुम ठीक रास्ते को जान गये हो और उस पर चलने लग गये हो तो तुम्हारी विजय निश्चित है, यदि तुम इस रास्ते को ही छोड़ दो तो बात दूसरी है।”

भारतीय धर्म में मनुष्य के लिये, प्रधान रूप से चार पुरुषार्थ बतलाये हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों में मोक्ष ही प्रधान और मुख्य साध्य है। मनुष्य को उसी मार्ग का अवलंबन करना चाहिये जिससे इस उद्देश्य की पूर्ति हो। यहाँ के धर्मशास्त्रों ने यथार्थ मनुष्य को इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करने का उपदेश दिया, पर साथ ही यह भी समझा दिया है कि अर्थ और काम को प्रधान पद न देकर गौण ही समझा जाय। क्योंकि धर्म से तो अर्थ और काम की प्राप्ति हो सकती है। पर अर्थ या काम से धर्म की प्राप्ति सम्भव नहीं। इसलिये सच्चे सुख और शान्ति की कामना रखने वाले व्यक्ति को अर्थ और काम का सेवन इसी विधि से करना चाहिये कि साँसारिक वातावरण में रहने के प्रभाव से उनके प्रति जो प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है वह धीरे-धीरे शान्त हो जाय और धर्म के सेवन में बाधा स्वरूप न बने। इसी तथ्य को दृष्टि में रखकर महाभारतकार ने कहा है—

ऊर्द्धवाहुर्बिरोम्येष न च कश्चित श्रणोति मे। धमदिर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते॥

अर्थात् काम और अर्थ से धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती। काम, मोह को उत्पन्न करता है और अर्थ से मनुष्य के स्वभाव में कृपणता आती है। इसलिये साँसारिक व्यवहार को निभाने के लिये इनका पालन करते हुये भी इनमें लिप्त होना पतन का कारण बतलाया है। इसलिये जहाँ तक संभव हो इनमें लिप्त न होकर धर्म-साधन पर ही ध्यान रखना मनुष्य के लिये कल्याणकारी है। धर्म-साधन के लिये यद्यपि नित्य नैमित्तिक कर्तव्यों का विधान किया गया है, पर उनके द्वारा मोक्षरूपी अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति कठिन है। शास्त्रों में भी धर्म-साधन का फल स्वर्ग प्राप्ति बतलाया है जो कुछ समय बाद समाप्त हो जाता है और मनुष्य को फिर इस पृथ्वी पर कर्मक्षेत्र में संलग्न होना पड़ता है। इसलिये मोक्ष-मार्ग के ज्ञाताओं ने योग, ज्ञान और भक्ति के विशेष साधन बतलाये हैं, जिनके द्वारा जीव सामर्थ्यशाली होकर साधन-शिखर तक पहुँच सकता है। ये साधन अपनी-अपनी रुचि और प्रकृति के अनुसार फलदायक होते हैं किन्तु कोई भी साधन ग्रहण किया जाय त्याग और पवित्रता के दो सर्व-प्रथम सोपानों पर प्रत्येक मुमुक्षु को चढ़ना पड़ेगा। इनके बिना कोई भी साधन फलदायक नहीं हो सकता। सब से पहले साधने की ये दो बातें हैं। इनके कर लेने पर आगे का मार्ग स्वयं ही मालूम होता जाता है।


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