मनोबल द्वारा रोग का निवारण

September 1959

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री माताप्रसाद पाण्डेय)

चेतनता और मन दोनों एक ही वस्तु हैं, एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न दो नाम हैं। मन, चेतनता, जीवनी-शक्ति सब एक ही हैं। स्मरण रहे, कि जीवनी-शक्ति या मन, विश्वास और संकल्प के ऊपर संसार की सारी वस्तुओं में काया पलट कर सकता है। मन में अपार शक्ति है, मनोबल द्वारा शरीर के तमाम रोग दूर हो जाते हैं। लेकिन उनमें विश्वास की मात्रा किसी हालत में भी कम न होनी चाहिये। भावना सच्ची और प्रखर हो, यद्यपि भावना के अनुसार रूपांतर शनैः-शनैः होता है, तथापि वह अपना असर बिना दिखाये नहीं रह सकती।

अतः आप प्रातःकाल उठते ही सच्चे मन से संकल्प कीजिये कि अमुक रोग हमारा नाश हो जाय और शरीर के प्रत्येक अंगों पर हाथ फेरते जाइये और सच्ची भावना से कहते जाइये, “मैं निरोग हूँ! मेरे शरीर के अन्दर किसी प्रकार का भी रोग नहीं। मैं सुन्दर हूँ। मैं हृष्ट-पुष्ट हूँ। मेरी पाचन क्रिया बिल्कुल ठीक है। मैं जो कुछ भोजन करता हूँ, वह सर्वांश में पच जाता है और इससे शुद्ध खून, माँस, मज्जा एवं वीर्य बनता है, जिससे मैं निरोग और स्वस्थ हो रहा हूँ। मैं वीर्यवान, भाग्यवान, आरोग्यवान् हो रहा हूँ। मेरे शरीर के अन्दर से आरोग्यता झलक रही है”, लेकिन मित्रो! स्मरण रहे, विश्वास की कमी किसी भी हालत में न होनी चाहिये। तत्पश्चात आप शौचादिक क्रिया के लिये चले जाइये। ऐसा संकल्प प्रतिदिन करने से आपके शरीर पर एक विचित्र ही झलक आने लगेगी और आप देखते-2 निरोग और सुन्दर बन जायेंगे और आपके संकल्प के अनुसार आपका मन आपके शरीर के तमाम अणुओं को ऐसा बना डालेगा कि आप सर्वदा के लिये रोग-मुक्त हो जायेंगे और आपके ऊपर रोगों का कुछ भी बस न चलेगा।

विश्वास की दृढ़ता में कमी होने से कुछ अधिक देर लगती है, पर भावना शरीर के अणुओं पर बिना प्रभाव डाले नहीं रुक सकती; मनोबल एक विचित्र बल है। ज्यों ही आप कहेंगे कि अमुक रोग हमारा दूर हो जाय, त्यों ही उस रोग के अणु बदलने लगेंगे, मन में ऐसी शक्ति है कि उसमें आरोग्य की भावना आते ही शरीर के अणु-अणु में एक विचित्र शक्ति पैदा हो जाती है और वह शरीर के प्रत्येक अणु की गति को रोग की ओर से मोड़कर, आरोग्यवान् बना देती है। प्रिय पाठको, याद रहे, रोग का कारण केवल अज्ञान है। रोग भ्रममात्र है। भ्रम क्या है? भ्रम यह है कि लोग यह समझते हैं कि रोग का होना अनिवार्य है, यह भगवान की देन है। भला सोचने की बात है कि “भगवान की देन है”—ऐसा अंध-विश्वास करना क्या हमारे लिये लाभदायक है? कभी नहीं, हम कितनी भूल कर बैठते हैं। धन और प्राण दोनों डाक्टरों को देकर उनका दासत्व ग्रहण कर लेते हैं। लेकिन हम यह नहीं सोचते कि हमारे पास कितनी बड़ी शक्ति उपस्थित है। जिसके द्वारा हम बड़े से बड़े रोग को भी हटा सकते हैं। यह भेद या सच्चा ज्ञान जब तक छिपा रहेगा, तब तक मनुष्य रोग ऐसे भयंकर काल से छुटकारा नहीं पा सकता। सच्चा ज्ञान मनुष्य को सब बन्धनों से मुक्त कर पूर्ण स्वतन्त्र कर देता है।

शरीर पर मन का जो प्रभाव पड़ता है, वह किसी से छिपा नहीं है, हम जिस बात की मन से इच्छा करते हैं, वह तत्क्षण होकर ही रहती है। जैसे मैंने सोचा, हाथ सिकोड़ या हाथ फैलाऊँ, वह तुरंत होकर रहता है। आप भी विचार करें, क्या हाथ को फैलाने या सिकोड़ने के लिये कोई दूसरा हाथ होता है। नहीं, तो? केवल इच्छा-शक्ति ही इतना कर दिखलाती है। इच्छा होते ही शरीर का प्रत्येक यन्त्र भौंरे के समान नाचने लगता है। शरीर के प्रत्येक यन्त्र, प्रत्येक अंग, प्रत्येक अणु को चलाने वाली केवल मन की इच्छा-शक्ति ही है। अब आप भली भाँति समझ गये होंगे कि मनोबल कितना बड़ा बल है। मन का प्रत्येक परिवर्तन शरीर के ऊपर बिना प्रभाव डाले नहीं रहता। मन में क्रोध आते ही आँखें लाल हो जाती हैं, मन में भय का संचार होते ही सारा शरीर काँपने लगता है, कभी-कभी अधिक डर जाने से असाध्य ज्वर चढ़ जाता है।

इस पर आँखों से देखा हुआ दृष्टान्त पाठकों के सामने रख रहा हूँ।

आज से 6 वर्ष पहले मैं सुल्तानपुर जिले में, अमेठी तहसील, टीकर नामक जंगल में एक महात्मा की संगति में रहता था, इनका नाम ‘अलापी बाबा’ था, वे अब भी विद्यमान हैं। इस भयानक जंगल में यह महापुरुष अपनी तपस्या के बल पर निवास करते हैं।

लेख बढ़ने के भय से अधिक न लिखकर इतना ही लिख देना पर्याप्त होगा कि एक पहुँचे हुए महात्मा हैं। मैं इनके यहाँ सत्संगति के लिये रुका हुआ था, उस जंगल के पास एक बहुत बड़ा ऊसर है। उस लंबे-चौड़े ऊसर में एक बहुत बड़ा पीपल का वृक्ष भी है। मैं प्रतिदिन शाम को टहलते हुए उसी पीपल की ओर चला जाता, उस पीपल के पश्चिम की ओर एक छोटा-सा सिंगोर का वृक्ष अतीव गछनार मैंने देखा, वह मुझे अतीव भला मालूम हुआ, मैं प्रतिदिन उसी के नीचे जा बैठता और मुँह अँधेरा होते-होते वहाँ से वापिस लौट आता। एक दिन दैव-वशात् मैं वहाँ पर कुछ देरी तक ठहर गया। अँधेरी रात थी, उस भयानक ऊसर में मैं एक झाड़ी में बैठा अपने काम में व्यस्त था, अचानक मेरी निगाह उस पीपल के वृक्ष के नीचे जा पड़ी। मैंने वहाँ पर आपस में दो आदमियों को वार्तालाप करते देखा, जिसमें एक के हाथ में रस्सी से बँधी हुई ठंडी थी, उस हंडी में सुलगती हुई अग्नि मालूम हो रही थी। मेरे देखते-2 वे दोनों आदमी पीपल के पेड़ पर चढ़ गये। मुझे आश्चर्य हुआ, बात क्या है, मुझे प्रतीत हुआ इसमें कुछ कौतूहल अवश्य है। यह कौतूहल देखने के लिये मुझे और कुछ देर रुक ही जाना पड़ा। चारों ओर अंधेरी रात साँय-साँय कर रही थी, बड़ा डर मालूम हो रहा था, मैं टकटकी लगाये उसी पीपल की ओर देख रहा था, अचानक पूर्व की ओर से एक सुन्दर नौजवान को एक झपेली में कुछ लिये आते देखा। वह पुरुष पीपल के तले आकर ठहर गया, देखते-2 उसने अपने सारे वस्त्रों को अलग उतार कर रख दिया, एक लंगोटे के सिवा उसके शरीर पर और कुछ न रहा। अपनी बड़ी सावधानी के साथ पीपल पर जल चढ़ाया, फूल चढ़ाया, धूप-दीप किया, तत्पश्चात् हाथ जोड़कर एक पाँव के सहारे खड़ा होकर ध्यानपूर्वक कुछ प्रार्थना करने लगा। इसी बीच में उसके आगे दहकती हुई आग से भरी हंडियाँ गिरी। वह डर कर “हा माँ” ऐसा कहता हुआ भागा, और कुछ दूर जा कर लड़खड़ाते हुये जा गिरा, पुनः संभाल कर उठा और चिल्लाता हुआ भाग गया। पश्चात पीपल पर से वे दोनों आदमी भी उतर कर उसके कपड़े, पूजा का सामानभयडडडडडड झपोली के लेकर चले गये। मैं भी इस कौतुहल को सोचता हुआ स्वामी जी के पास आकर ज्यों का त्यों कह सुनाया; लेकिन श्री स्वामी जी ने कुछ ख्याल न किया। इसी के 10 वें दिन मैं स्वामी जी के पास बैठा पंखा कर रहा था कि अचानक दो आदमी स्वामी जी के पास आकर रोने लगे और रो-रो कर अपने लड़के की बीमारी का कारण, भूतपूर्व कथानुसार डर जाना बतलाये। मैं समझ गया, हो न हो वही बात है, जो मैंने अपनी आँखों देखी थी। बाद में कुछ बात खुली, वह रोगी भी लाया गया; वे दो आदमी भी बुलाये गये। रोगी के सामने सच्ची घटना का वर्णन प्रमाणों के सहित किया गया; उसके कपड़े दिये गये; अब उसे विश्वास हो गया कि मामला कुछ और ही है। वह रोगी अच्छा हो गया। बाद में पता चला कि वह व्यक्ति प्रतिदिन पीपल के तले जाकर श्मशान देवी की पूजा किया करता था। साथियों के छेड़ने पर उसने कहा कि मुझे जरा भी डर नहीं मालूम होता, जिसके कारण उसके साथियों ने वैसा किया। भला सोचिये तो, भय का परिणाम कितना भयंकर हुआ, जिससे जान पर बन आई। पूर्वोक्त घटना से पाठक भलीभाँति समझ गये होंगे, कि मन में भय का उत्पन्न हो जाना शरीर के लिये कितना घातक है। मनुष्य बैठे-2 कुछ न कुछ सोचा करता है; सोचते समय उसके विचार जैसे परिवर्तित हुआ करते हैं, वैसे उसके मुख की आकृति भी बनती जाती है। उसके हर्ष-विषाद के चिन्ह उसके मुँह पर साफ-साफ दिखाई पड़ते हैं; जिससे अनुभवी मनुष्य तत्काल बता देते हैं कि इसके विचार कैसे हैं। मन की दशा और स्वास्थ्य का कितना घनिष्ठ संबंध है, इसको आप समझ गये होंगे। इसलिये नित्य दुःखी या चिन्तित भी रहना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। जिन लोगों पर व्याधि का वहम चढ़ा रहता है, वे शीघ्र बीमार पड़ जाते हैं। दुःख या रोग का जितना अधिक चिन्तन करोगे, उतना ही अधिक सतायेंगे। रोग का स्मरण ही न करो, उसे अपने पास फटकने तक न दो, स्वप्न में भी उसकी ओर न देखो, उसकी कल्पनामात्र तक न करो। अगर भूल से कोई रोग हो जाय तो संकल्प द्वारा हटाओ, मन की इच्छा-शक्ति द्वारा सभी रोग हट सकते हैं।

यदि आप विश्वास के साथ इच्छा करें कि हम नीरोग हैं, तो आपके विश्वास के साथ वही अणु आपके भीतर जायेंगे, जो आपके शरीर को नीरोग बना देंगे। भोजन या जल पीते समय दृढ़ विश्वास कीजिये कि इस भोजन के कण-कण में आरोग्यता की दैवी-शक्ति कूट-कूट कर भरी हुई है; यह मेरे पेट में जाकर मुझे नीरोग बनाएगी; हमारे सारे रोगों का नाश कर देगी। जो कुछ भोजन कीजिये, जीने के लिये, अधिक भोजन विष बनकर शरीर में अनेकों प्रकार का रोग पैदा कर देता है। भोजन उतना ही करना चाहिये कि जितना हम पचा सकें।

भोजन करते समय जैसे विचार होंगे, तद्वत् भोजन का भी रूप बनता जायेगा। इसलिये भोजन करते समय अपने विचार बिलकुल सात्विक रखो। सात्विक आहार और सात्विक विचार से आप भी सात्विक बन जायेंगे।

मनुष्य इच्छा-स्वरूप है और कुछ नहीं। अनेक इच्छाओं के समूह का नाम मनुष्य है। जैसे-2 उसकी इच्छा विश्वास में परिवर्तित होती जायेगी, वैसे उसका रूप भी एक विचित्र साँचे में ढलता जायेगा। लोग कहते हैं कि ईश्वर करे कि हम नीरोग रहकर अधिक दिन तक जीवित रहें। मनुष्य अपनी तमाम इच्छाओं और आशाओं को दूसरे के बल पर छोड़ देते हैं, वे यह नहीं सोचते कि ईश्वर का वास कहाँ पर है? अगर वे जान जाएं कि इच्छा-शक्ति, विश्वास ही में ईश्वर रहता है, तो शायद वे ऐसी कायरता न दिखलायें। आपका रोग दूसरे के वश में नहीं; वह आपके वश में है। किसी के अनुग्रह की आवश्यकता नहीं। आप स्वयं रोगों पर विजय पा सकते हैं। विश्वास रखते हुए सच्चे मन से प्रतिदिन निरोग होने का संकल्प कीजिये, और बार-2 शरीर पर हाथ फेरते जाइये, आपका मन ही रोग का भी प्रेरक है। आप स्वयं एकान्त मैं बैठकर मनन कीजिये और सोचिये, पक्षपात से रहित होकर देखिये, मन में कितनी बड़ी शक्ति है। उसकी इच्छा-शक्ति कितनी प्रबल है। आप बलवान् और स्वतंत्र बनने के लिये मन की इच्छा-शक्ति से काम लिये हुये उस पर विश्वास रख कर आगे बढ़िये, आप अवश्य नीरोग, वीर्यवान् बन जायेंगे। वास्तव में हमारी आत्मा ही ईश्वर है, जब हमारे शरीर में ईश्वर का वास है, तब हम रोगी कैसे हो सकते हैं ऐसा विश्वास रखते हुये संकल्प करना चाहिये गोस्वामी जी ने कैसा साफ साफ कहा— “भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा- विश्वासरुपिणौ” गोस्वामी जी के पूर्वोक्त वचनों का भावार्थ यह है कि- शंकर अर्थात् परमात्मा विश्वास-रूप ही है। हमारा विश्वास ही सब कुछ करता है। यह स्पष्ट है। यह स्पष्ट है कि बिना विश्वास के ईश्वर भी कुछ नहीं करता अतः सच्चा ज्ञान यही है कि हमारा विश्वास और मन सब कुछ कर सकता है। जो आप चाहते हैं—आप ही की आत्मा, आप ही का विश्वास और आप ही का मन सब कुछ कर सकता है। इसलिये पाठक मित्रो, आप भी आज ही से मनोबल द्वारा सर्व-रोग-निवारण में लग जाइये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118