नये वर्ष के शुरू में हर एक देश और जाति के लोग अपने-अपने ढंग से खुशियाँ मनाते हैं और अपने इष्टदेव की उपासना करते हैं, ताकि उनके अगले वर्ष के कार्य सफलतापूर्वक संपन्न हों। इस लक्ष्य की पूर्ति और नवीन शक्ति की प्राप्ति के लिए अनेकों प्रकार के अनुष्ठान किये जाते हैं। हिन्दूधर्म के मतानुसार सृष्टि रचना का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था इसलिए हमारा वर्ष इसी दिन से शुरू होता है जिसका पूर्वार्द्ध छह माह आश्विन कृष्ण अमावस्या को समाप्त होता है और उत्तरार्द्ध भाग आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होता है। वर्ष के इन दोनों भागों के आरम्भ में हमारे पूर्वज महाशक्ति की आराधना किया करते थे। इन्हीं दिनों सर्दी, गर्मी की प्रधान ऋतुओं का मिलन होता है। इसी सन्धि बेला को नवदुर्गा कहा जाता है।
सर्दी-गर्मी की ऋतुओं का मिलन, दिन और रात्रि के मिलने के समान सन्ध्या काल है। पुण्य पर्व है। दिन और रात के मिलन काल-सन्ध्या का समय पूजा, उपासना और आत्म साधन के लिए बहुत ही उपयोगी माना जाता है क्योंकि सूक्ष्म दृष्टि से देखने से पता चलता है कि इस समय किया गया थोड़ा श्रम भी अधिक फलदायक होता है, इसलिए इस समय ईश्वराधन को ही विशेष रूप से महत्ता दी गई है और अन्य कार्य जैसे कि भोजन करना, सोते रहना, यात्रा आरम्भ करना, मैथुन करना आदि वर्जित माने गये हैं क्योंकि इस सन्ध्या के समय इन कार्यों को करने से हानि होती देखी गई है। यही नियम ऋतुओं के मिलन-नवरात्रि पर लागू होता है।
पुराणों में अलंकारिक भाषा का प्रयोग किया गया है। नवरात्रि के संबंध में लिखा गया है कि ऋतुएँ इन दिनों रजस्वला होती हैं। जिस प्रकार से रजस्वला स्त्री का उस काल में आहार-विहार और आचार-विचार में विशेष ध्यान रखा जाता है, उसी प्रकार से हमें भी इन दिनों को विशेष सावधानी के साथ बरतने का आदेश दिया गया है।
आरोग्य शास्त्र के आचार्यों का कहना है कि आश्विन और चैत्र के महीनों में सूक्ष्म ऋतु परिवर्तन के परिणामस्वरूप शारीरिक स्वास्थ्य की दीवारें हिल जाती हैं और अनेकों व्यक्ति ज्वर, जूड़ी, हैजा, दस्त, चेचक आदि रोगों से ग्रस्त देखे जाते हैं। आयुर्वेद के अनुसार शरीर शोधन कार्यों के लिए यह दो महीने बहुत ही उपयुक्त हैं इसलिए इस काल में आहार-विहार में विशेष प्रकार से संयम रखना चाहिए।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर इन नौ दिनों को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक सब प्रकार की उन्नति की दृष्टि से लाभदायक माना गया है इसलिए उपवास आदि विशेष साधनाओं द्वारा अनुष्ठान करने का विधान बनाया गया है। यह समय गायत्री साधना के लिए सब से अधिक उपयुक्त है। आश्विन की नवरात्रि 3 अक्टूबर को आरम्भ होकर 11 अक्टूबर को समाप्त होगी। इन नौ दिनों में उपवास रखकर चौबीस हजार गायत्री मन्त्रों के जाप का या दो सौ चालीस गायत्री चालीसा पाठ या 2400 गायत्री मन्त्र लेखन का अनुष्ठान करना चाहिए। नौ दिन में अनुष्ठान पूर्ण करने के लिए नित्य प्रति 27 माला गायत्री जप, या 27 गायत्री चालीसा पाठ या 267 गायत्री मन्त्र लेखन करने चाहिए।
साधना के साथ उपवास के लिए (1) एक समय बिना नमक का अन्नाहार, (2) एक समय फलाहार, (3) दो समय दूध और फल, (4) एक समय आहार और एक समय फल दूध, (5) केवल दूध का आहार इसमें से जैसी सुविधा हो अपनी सामर्थ्यानुकूल उपवास करना चाहिए। साधना का अधिकाँश भाग प्रातःकाल ही पूरा करना चाहिए। समय के अभाव व अन्य कारणों से सायंकाल को भी किया जा सकता है। इनके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य पालन, भूमिशयन, बाल न कटवाना (दाढ़ी के बाल अपने हाथ से बनाये जा सकते हैं), चर्म के जूतों का त्याग आदि के नियमों का, जहाँ तक सम्भव हो, पालन करना चाहिए। आचार, विचार और व्यवहार को पवित्र रखना चाहिए। उत्तम धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करना और मनन चिन्तन द्वारा उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन का एक अंग बना लेना चाहिए। उपवास और साधना के दिनों में किये गये मनन और चिन्तन का स्थाई प्रभाव हमारे अंतःकरण पर पड़ता है। अंतःकरण की पवित्रता पर ही हमारी सुख शान्ति निर्भर करती है।
अनुष्ठान की समाप्ति पर नवें दिन जप का शताँश हवन, ब्रह्म-भोज, कन्या भोज और प्रसाद वितरण करना चाहिए। ब्रह्म कहते हैं आत्मा को इसलिए आत्मा का भोजन—ब्रह्मदान ही सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म-भोज माना गया है। गायत्री ज्ञान प्रसार के लिए गायत्री चित्र, चालीसा, माला व अन्य साहित्य का वितरण किया जा सकता है।
गायत्री परिवार शाखाओं को इस परम पुनीत पर्व को सामूहिक रूप से मनाना चाहिए। इसकी तैयारी के लिए पहिले से ही धर्मफेरी करके सामूहिक अनुष्ठान में भाग लेने वालों के नाम नोट कर लेने चाहिएं। जो व्यक्ति किन्हीं कारणों से सामूहिक उपासना में भाग न ले सके, उसे अपने घर पर ही करने की प्रेरणा देनी चाहिए। जो लोग पूरा अनुष्ठान न कर सकें, उन्हें 12 माला गायत्री जप या 12 चालीसा पाठ या 108 मन्त्र लेखन करने के लिए प्रोत्साहित करें। इस साधना के साथ अनुष्ठान के विशेष नियम लागू नहीं होते। जो लोग सामूहिक साधना करने के लिए तैयार हो जायें, उन्हें अनुष्ठान के विशेष नियमों की जानकारी करवा देनी चाहिए। साधकों का धोती या दुपट्टा कोई एक वस्त्र पीला अवश्य होना चाहिए।
नवरात्रि गायत्री उपासकों का बहुत ही महत्वपूर्ण त्यौहार है इसलिए इसको धूमधाम के साथ मनाना चाहिए। गायत्री माता की प्रसन्नता के लिए उनके व्यापक ज्ञान प्रसार की योजना बनाना चाहिए। आपके ग्राम व नगर में कोई ऐसा घर न बचे जिसमें आप गायत्री माता का सन्देश पहुँचाने का प्रयत्न न करें। बड़े-बड़े शहरों में निकटवर्ती मुहल्ले में यथाशक्ति प्रचार करना चाहिए। पूर्णाहुति के दिन अधिक से अधिक जनता को बुलाने का प्रयत्न करना चाहिए और स्थानीय विद्वानों द्वारा गायत्री और यज्ञ की महत्ता और इनकी मानव जीवन के लिए उपयोगिता पर प्रवचन कराने चाहिए। जहाँ प्रवचन कर्ता का प्रबंध न हो सके वहाँ गायत्री महाविज्ञान व यज्ञ विधान के पहिले भागों में से उपयुक्त लेखों का सुना देना चाहिए। आशा है शाखाएँ उत्तम रीति से इस पर्व को मनाने का प्रयत्न करेंगी।