आश्रम व्यवस्था से दीर्घ जीवन

September 1959

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(कुमारी बिमला द्विवेदी बी.ए.)

तंचक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रणुयाम शरदः शतं प्रव्रवाम शरदः, शतमदीनाः स्याम शरदः शतं, भूयश्चशरदः शतात् ॥

यजु0 36, 24

“वह परमात्मा देवों का हित करने वाला हो। (जो) अनादि और विशुद्ध ज्ञान का उपदेश करता है। हम सौ वर्ष के जीवन काल में उसका दर्शन कर सकें। सौ वर्ष के जीवन में इसी ध्येय के लिए जीवित रहें। सौ वर्ष तक के जीवन में हम इस परमात्मा का श्रवण और मनन करते रहें। सौ वर्ष तक के जीवन काल में हम इस परमात्मा का गुणगान गाते रहें। सौ वर्ष के जीवन में हम कभी भी दीनता वृत्ति प्रकट न करें। सौ वर्षों से यदि अधिक जीवन भी मिले तब भी हम अपने जीवनकाल में उक्त कार्य करते रहें।

उक्त वेद मंत्र से ज्ञात होता है कि मनुष्य की आयु 100 वर्ष से कम नहीं वरन् अधिक ही है। इस संबंध में भारत के प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने पर पता चलता है कि रामायण और महाभारत काल में मनुष्यों की आयु 100 वर्ष से अधिक होती थी। महाभारत के अधिकतर पात्र 100 वर्ष से अधिक आयु के थे। यहाँ तक कि इच्छामृत्यु के भी उदाहरण मिलते हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्य की आयु 100 वर्ष है। “शतापूर्वे पुरुषाः” यह वेद भगवान की साक्षी है। उस समय केवल सौ वर्ष की आयु ही नहीं होती थी वरन् जीवन की अन्तिम अवस्था तक शरीर में शक्ति, स्फूर्ति, तेज बने रहते थे।

हमारी सौ वर्ष की आयु और उसमें भी शक्ति, सामर्थ्य, तेज, ओज आदि होने का एक कारण यह था कि मानव जीवन को बड़े सुव्यवस्थित एवं मर्यादापूर्ण नियम में बाँधा गया था जिनको धार्मिक माध्यम से प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक निर्धारित किया गया। इनमें आश्रम व्यवस्था भी एक थी। भारतीय ऋषियों ने दूरदर्शिता और बुद्धिमतापूर्वक आश्रम व्यवस्था बनाई थी। जीवन को चार भागों में विभक्त कर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास इन चार आश्रम के विभिन्न धर्मपालन करते हुए 100 वर्ष जीने का मार्ग प्रशस्त हुआ। इन चारों आश्रमों का यथाविधि पालन किया जाय तो मनुष्य को सौ वर्ष की आयु एवं सुन्दर स्वास्थ्य, शक्ति, सामर्थ्य आदि की प्राप्ति हो! प्रत्येक आश्रम में 25 वर्ष तक जीवन बिताना आवश्यक बताया गया है। आश्रम व्यवस्था के अनुसार आचरण करने से जहाँ जीवन में शतायु, शक्ति, बल आदि की वृद्धि होती है वहाँ मनुष्य जीवन के अन्य अंगों का भी विकास होता है। अस्तु प्रत्येक आश्रम के बारे में आवश्यक जानकारी करना चाहिए।

ब्रह्मचर्याश्रम :—ब्रह्मचर्याश्रम जीवन के प्रारम्भिक 25 वर्षों तक पालन किया जाता है। इन 25 वर्षों में मनुष्य के लिए ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने का आदेश है। इसके साथ-साथ अपनी विभिन्न शक्तियों को विकसित करने एवं बढ़ाने का भी अवसर यही है। ब्रह्मचर्याश्रम मानव जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन शतायु होने के लिए अत्यावश्यक बताया गया है। ब्रह्मचर्य ही मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है कहा भी गया है “ब्रह्मचर्यतपसाँ देवा मृत्यु भुपाघ्नतः”। ब्रह्मचर्य तप से देवताओं ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की। अतः ऋषियों ने मनुष्य को शतायु होने के लिए सर्व प्रथम 25 साल तक ब्रह्मचर्याश्रम में रहने की आज्ञा दी जिससे शक्ति संचय, स्वास्थ्य तेज, बल स्फूर्ति आदि की वृद्धि होकर सौ वर्ष तक के सुखी जीवन का निर्माण होता है।

गृहस्थाश्रम :—मानव जीवन की दूसरी अवस्था 25 से 50 वर्ष तक गृहस्थाश्रम में प्राप्त शिक्षा, ज्ञान, स्वास्थ्य, अनुभव आदि से अपने गृहस्थ जीवन को सफल बनाया जाता है। गृहस्थाश्रम में आवश्यक नियमों का पालन कर संयमी, सदाचारी नैतिक एवं पवित्र जीवन बिताना आवश्यक है। गृहस्थाश्रम में आवश्यक नियमों का पालन करता हुआ मनुष्य सौ वर्ष तक जीने का अधिकारी होता है। गृहस्थ संचालन के लिए किये जाने वाले परिश्रम, पुरुषार्थ, व्यस्तता, परस्पर सहयोग, परम पिता परमात्मा के इस सृष्टि उद्यान में उसका युवराज बनकर आनन्द भोग करना आदि मनुष्य जीवन में सरसता, सुन्दर स्वास्थ्य, शक्ति, उत्साह, आत्मविश्वास आदि को बनाये रखते हैं जिससे मनुष्य शतायु को प्राप्त होता है।

वानप्रस्थाश्रम :—मानव जीवन की तीसरी अवस्था 50 से 75 वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम में बिताने की आज्ञा है। जिसमें वह लोक कल्याण, जनहित परोपकार आदि में जीवन बिताये। इस आश्रम में मनुष्य को ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने का भी आदेश है। इस प्रकार परमार्थ साधना में रत, देश और समाज के कल्याण के लिए अथक परिश्रम, आदि मनुष्य जीवन में नवीन उत्साह, स्वास्थ्य, उच्च भावनायें शक्ति आदि को बनाये रखते हैं। साथ ही ब्रह्मचर्य का पालन भी जीवन शक्ति को नष्ट होने से बचाकर बढ़ाने में सहायक होता है। वानप्रस्थ आश्रम में मनुष्य का आत्म संबंध विस्तृत होकर अखण्ड देश प्रेम, समाज सेवा, राष्ट्रभक्ति आदि से मनुष्य में आत्मबल साहस, सहनशीलता, समानता, उदारता, शक्ति पुरुषार्थ की निर्झरिणी बहती रहती है जो उसकी उम्र को बढ़ाती है। यही कारण था कि महात्मा गाँधी कहते थे “मैं 125 वर्ष तक जिन्दा रहूँगा।”

संन्यास आश्रम :—मनुष्य जीवन में अन्तिम आयु 75 से 100 तक संन्यास आश्रम में बिताना चाहिए। इस अवस्था में मनुष्य का आत्म विस्तार समस्त विश्व ही नहीं चराचर मात्र के लिए हो जाता है। उसका जीवन सेवा, परमार्थ एवं कल्याण का प्रत्यक्ष स्वरूप बन जाता है। संन्यासी अपनी शारीरिक आवश्यकताओं, सुख-दुःखों की परवाह न करते हुए निरन्तर जनहित, जनसेवा में प्रवृत्त हो जाता है। उसके अन्तःकरण में प्राणिमात्र की सेवा के लिए प्रबल भावनाएँ जाग उठती हैं जिनके संयोग से उसकी शान्ति, सामर्थ्य, स्वास्थ्य, प्रतिभा अनेकों गुना बढ़ जाती है। प्रकृति भी अपनी मर्यादाओं का व्यतिरेक कर उस सर्वजनहिताय, परमार्थगामी, विश्वबन्धु संन्यासी को अनुकूल परिणाम प्रदान करती है। फलतः उसकी आयु क्षीण नहीं होती और पूर्ण आयु प्राप्त होती है। इस प्रकार वह शतायु को प्राप्त होता है।

आश्रम व्यवस्था की उक्त भूमिका मनुष्य की आयु को 100 वर्ष का माध्यम मान कर की गई है। इससे अधिक होना भी कोई विशेष बात नहीं है। कम से कम सौ वर्ष तक जीने का प्रत्येक को अधिकार है जो इससे कम आयु को प्राप्त होता है उसका उत्तरदायित्व स्वयं उसी पर ही है, न कि अन्य किसी शक्ति पर। 100 वर्ष तक जीना मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है।

खेद है कालान्तर में जिस भारत भूमि में शतायु एवं सौ से अधिक आयु प्राप्त की जाती थी उसकी औसत आयु आजकल करीब 72 वर्ष है। भारतीय जाति अल्पायु हो गई है। जिस जाति का शरीर महान् शक्ति एवं सामर्थ्य का केन्द्र, जिसके चेहरे पर अदम्य उत्साह, तेज, वीरता, झलकती थी वह जाति आज निरुत्साह, निर्बल, तेजहीन होती जा रही है। इसका एक कारण आश्रम व्यवस्था का बिगड़ जाना भी है। आज कम उम्र में ही ब्रह्मचर्य नष्ट होता है, साथ ही प्रकृति विरुद्ध आचरण, असंयम, आहार-विहार आदि अन्य कारण भी हैं। किन्तु इसमें प्रमुख आश्रम व्यवस्था भी बिगड़ जाती है। यदि हम शतायु होना चाहते हैं, शक्तिशाली, सामर्थ्यवान, पुरुषार्थी होना चाहते हैं तो जीवन में आश्रम व्यवस्था को अपनाना होगा। आश्रम व्यवस्था से शून्य निरुद्देश्य भार रूप जीवन शीघ्र ही समाप्त हो जाता है वह अधिक नहीं टिक सकता। अतः जीवन की बारीकियों का सूक्ष्म दृष्टि से अनुशीलन करने वाले तत्वदर्शी ऋषि-महर्षियों की बनाई गई आश्रम व्यवस्था हमारे लिए सुखी जीवन प्रदान करेगी, यह सत्य है, निभ्रान्त है और अनुभव सिद्ध है जिसका बहुत पहले से ही परीक्षण किया जा चुका है। हमें भी दीर्घजीवी बनने के लिए इसी का अवलंबन करना हितकर सिद्ध होगा।


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