विश्व का कल्याण हो।

September 1959

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(स्वामी श्री सदाशिव जी महाराज)

वर्तमान समय में हम अनेक धर्म प्रेमी व्यक्तियों को “विश्व का कल्याण हो”—”मनुष्य मात्र को अभ्युदय हो” इत्यादि प्रचार-वाक्य कहते हुये सुनते हैं। निःसन्देह धर्म का लक्षण यही है कि प्राणी मात्र को आत्मवत् समझा जाय और प्रत्येक के कल्याण का सदैव ध्यान रखा जाय। भारतीय धर्म शास्त्रों में जहाँ कहीं मनुष्य के कर्तव्यों का विचार किया गया है वहाँ यह नहीं कहा गया है कि तुम अपने सम्प्रदाय अथवा जाति के मनुष्य से तो प्रेम करो और अन्य लोगों को शत्रु समझ कर घृणा करो और उनके नाश का उद्योग करो। दूसरे धर्मों में भले ही अपने से पृथक धार्मिक मतानुयायी को “काफिर” या अधार्मिक कह कर उसे मारने को भी पुण्य बतलाया हो, पर आर्य धर्म में अहिंसा को परम धर्म कह कर सब के हित का ध्यान रखने का ही उपदेश दिया है। पर वर्तमान समय में “विश्व का कल्याण हो” का नारा लगाते रहने पर भी मनुष्यों के हृदय में बड़ी संकीर्णता के भाव दृष्टिगोचर हुआ करते हैं। इसलिये “श्री विश्व हितैषी महामानव समाज” के संचालक स्वामी श्री सदाशिवजी महाराज ने अपनी एक रचना में विश्व कल्याण की व्याख्या करते हुए लिखा है—

वेदान्त की परिभाषा के अनुसार “विश्व” शब्द का अर्थ होता है व्यष्टि, स्थूल शरीर, अभिमान, क्योंकि जागृत अवस्था में हमको नाम और रूप के आधार पर जगत जो कुछ अनुभव जान पड़ता है उसका कारण अपनी स्थूल देह का “अभिमान” अथवा जानकारी ही होती है। जो लोग इस विश्व में रहने वाले सब नाम रूप वाले प्राणियों और पदार्थों का हित चाहते हैं वे ही विश्व हितैषी हैं। अनेक लोग तो “विश्व हित” का नाम सुनते ही डर जाते हैं। अज्ञानता के कारण वे इस प्रकार विचार करने लगते हैं कि “हाय, हाय, हमने अपने और अपने स्त्री, पुत्र, परिवार के सुख शाँति के लिये बड़े परिश्रम से जो धन संपत्ति, विद्या, बुद्धि अथवा पुण्य आदि प्राप्त किया है उसे दूसरों के लिये क्यों खर्च करें? अगर हम उनका उपयोग दूसरों के लिये कर डालेंगे तो फिर अपने लिये क्या करेंगे? क्या कोई दूसरा आदमी हमारा हित साधन करेगा? इस प्रकार अधिकाँश लोग “विश्व” अर्थ न समझ कर केवल माता पिता के रज-वीर्य से उत्पन्न इस स्थूल देह को आत्मा मान कर इससे संबंध रखने वाले स्त्री पुत्रादि को ही अपना मानते हैं और इस भ्रम में पड़ कर अनेक मूर्खतापूर्ण कार्य करते रहते हैं। पर इसका परिणाम यह निकलता है कि वे स्वयं भी दुःखी होते और जिन स्त्री-पुत्रों के लिये वे आत्मानन्द का त्याग करते हैं उन स्त्री-पुत्रादि को भी दुखी बनाते हैं।

विचारपूर्वक देखा जाय तो अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में जो कुछ जड़ वस्तु अथवा स्थूल, सूक्ष्म, कारण देह धारी चैतन्य प्राणी हैं, वे सब अपने-अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये परस्पर सापेक्ष होते हैं। अर्थात् तुच्छ से तुच्छ जीव से लगाकर ईश्वर से सदृश्य शक्ति धारण करने वाले प्राणी को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये (सुख शाँति से जीवित रहने के लिये) एक दूसरे की सहानुभूति की अनिवार्य रूप से आवश्यकता रहती है। इसी भाव को प्रकट करने के लिये भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है—

सहयज्ञः प्रजा सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्य ध्वमेष वोऽस्त्विष्ट कामधुक् ॥

अर्थात् “प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भकाल में यज्ञ सहित प्रजावर्ग की उत्पत्ति करके इस प्रकार कहा था कि तुम यज्ञ द्वारा अभिवृद्धि प्राप्त करो और वह यज्ञ ही तुम्हारी कामनाओं की पूर्ति के निमित्त कामधेनु बने।” “यज्ञ” का अर्थ होता है देव पूजा दान और संगतिकरण (संगठन) “देवपूजा” का अर्थ होता है—दिव्य आचरण वाले मनुष्यों का मान, आदर सहित अनुकरण करना, यह नहीं कि उनके प्रतीक स्वरूप धातु, पाषाण आदि की मूर्ति को बाह्याडम्बर सहित पूजा कर संतोष कर लेना। “दान” का अर्थ होता है—”यथायोग्य वितरण” अर्थात् जो व्यक्ति अपनी विद्या बुद्धि के द्वारा प्रचुर अर्थ-संग्रह करने में समर्थ हैं वे उनके द्वारा अन्य बुद्धि विद्या हीन पराश्रयजनों की सहायता करें जिससे वे भी शक्ति के अनुसार स्वावलंबी बन सकें। दान का अर्थ यह नहीं होता कि छल, कपट, प्रपंच द्वारा गरीब लोगों को खूब चूस-चूस कर अपार, धन, सम्पत्ति इकट्ठी करना, उसके द्वारा खूब विलासपूर्ण जीवन व्यतीत करना, और उसमें से झूठन (उच्छिष्ट) की तरह थोड़ी सी सम्पत्ति देश, जाति के नाम पर खर्च करके “दानवीर” की उपाधि ग्रहण कर लेना। इस प्रकार “देवपूजा” और “दान” के लिए शुद्ध हार्दिक भाव की आवश्यकता होती है और अधिकाँश मनुष्य चाहें तो उसे कर सकते हैं। पर तीसरा कार्य “संगतिकरण” अर्थात् एक से विचार रखने वाले व्यक्तियों को एक सूत्र में बाँधकर संगठित करना कठिन काम है, जिसे विशेष विद्या बुद्धि वाले व्यक्ति ही कर सकते हैं।

इसलिये जो लोग विशेष श्रेणी के विद्वान और बुद्धिमान होते हैं, वे ही जनता की रुचि और प्रकृति का ध्यान रख कर संगतिकरण (संगठन) के कार्य में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। यज्ञ के साथ प्रजा की उत्पत्ति और व्यवहारिक जीवन में एक दूसरे का “सहयोग“ अनिवार्य होने से मनुष्य मात्र के लिये देवपूजा, दान और संगतिकरण रूपी ‘यज्ञ’ की उपासना परम कर्तव्य है। इसका मुख्य लाभ आगे के श्लोक में बतलाया गया है—

देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥

अर्थात् “इस यज्ञ द्वारा तुम स्थूल देहाभिमानी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ ऐसे मनुष्य, देवताओं की भावना करते रहो (अर्थात् अपनी भावनाओं को निरन्तर चिन्तन द्वारा दिव्य मूर्तिमान बनाओ) इससे वे सूक्ष्म दैवी भावनाएँ भी तुम्हारी सहायता करती रहेंगी।” इसमें विशेष गूढ़ रहस्य यह है कि सूक्ष्म तथा कारण देहधारी दिव्यात्मा (देव) वायुमंडल में विचरण करते रहने पर भी अगर कोई कार्य कर सकते हैं तो किसी स्थूल देहधारी व्यक्ति के माध्यम से ही ऐसा कर सकना संभव होता है। इसीलिये यह कहावत प्रसिद्ध है कि “भावे हि विद्यते देवो” अर्थात् हमारी दिव्य भावनाओं का अवलंबन करके ही देवगण अपने संस्कारों के अनुरूप हमारा संचालन करते हैं। जिन लोगों की भावधारा विपरीत होती है उसे देवगण प्रभावित नहीं करते। इस प्रकार जो लोग उच्च आदर्शपूर्ण भारतीय संस्कृति के रहस्य को समझते हैं किसी भी हवन यज्ञ आदि के अवसर पर ऊपरी क्रियाकाण्ड को निमित्त बनाकर अपने आस-पास के अभावग्रस्त दीन-दुखी लोगों को अन्न वस्त्रादि देकर उनकी हार्दिक सहानुभूति प्राप्त करते हैं, जो एक सच्चा लाभ है। इसी प्रकार के अपने संस्कारों के अनुकूल विद्वान, बुद्धिमान एवं गुरुजनों को आदरपूर्वक बुला कर उनसे मार्ग-दर्शन की प्रेरणा ग्रहण करते हैं। यह उपर्युक्त श्लोक में “परस्पर भावयन्तः श्रेयः” का वास्तविक अर्थ है। इस प्रकार यज्ञ का अर्थ केवल सामग्री स्वाहा! करके निमन्त्रण खाने का पेशा करने वालों का भोज कर देना नहीं है, वरन् उसका आशय यही है कि हम हवन इत्यादि को निमित्त बनाकर अपने से हीन दर्जे वाले गरीबों की सहायता करें और अपने से अधिक विद्या बुद्धि वाले महापुरुषों से उपदेश ग्रहण करके अपने जीवन को अधिक शुद्ध, पवित्र और सहानुभूति युक्त बनावें।


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