पितृ अमावस्या का रहस्य

September 1959

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

हिन्दू संस्कृति में माता, पिता और गुरु को ब्रह्म, विष्णु और शिव के नाम से संबोधित किया गया है क्योंकि इनके प्रयत्न से ही बालक का विकास होता है। इस उपकार के बदले में बालक को इन तीनों के प्रति अटूट श्रद्धा मन में धारण किये रहने का शास्त्रकारों ने आदेश दिया है। “मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव” इन श्रुतियों में इन्हें देव-नर तन धारी देव-मानने और श्रद्धा रखने का विधान किया है। यह कृतज्ञता की भावना सदैव बनी रहे, इसलिये गुरुजनों का चरण स्पर्श, अभिनन्दन करना नित्य के धर्मकृत्यों में सम्मिलित किया गया है। यह कृतज्ञता की भावना जीवन भर धारण किये रहना आवश्यक है। यदि इन गुरुजनों का स्वर्गवास हो जाय तो भी मनुष्य की वह श्रद्धा स्थिर रहनी चाहिये। इस दृष्टि से मृत्यु के पश्चात् पितृ यज्ञों में मृत्यु की वर्ष तिथि के दिन, पर्व समारोहों पर श्राद्ध करने का श्रुति स्मृतियों में विधान पाया जाता है।

श्रद्धा से श्राद्ध शब्द बना है। श्रद्धापूर्वक किये कार्य को श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है। श्रद्धा को प्रकट करने का जो प्रदर्शन होता है, वह श्राद्ध कहलाता है। जीवित पितरों और गुरुजनों के लिए श्रद्धा प्रकट करने-श्राद्ध करने के लिए, उनकी अनेक प्रकार से सेवा-पूजा तथा संतुष्टि की जा सकती है परन्तु स्वर्गीय पितरों के लिए श्रद्धा प्रकट करने का, अपनी कृतज्ञता को प्रकट करने का कोई निमित्त बनाना पड़ता है। यह निमित्त है—श्रद्धा, मृत पितरों के लिए कृतज्ञता के इन भावों का स्थिर रहना हमारी संस्कृति की महानता को ही प्रकट करता है। जिनके सेवा सत्कार के लिए हिन्दुओं ने वर्ष में 15 दिन का समय पृथक निकाल लिया है पितृ भक्ति का इससे उज्ज्वल आदेश और कहीं मिलना कठिन है।

श्रद्धा तो हिन्दू धर्म का मेरुदंड है। हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डों में आधे से अधिक श्राद्धतत्व भरा हुआ है। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, पृथिवी, अग्नि, जल, कुंआ, तालाब, नदी, मरघट, खेत, खलिहान, भोजन, चक्की, चूल्हा, तलवार, कलम, जेवर, रुपया, घड़ा, पुस्तक, आदि निर्जीव पदार्थों की विवाह या अन्य संस्कारों में अथवा किन्हीं विशेष अवसरों पर पूजा होती है। यहाँ तक कि नाली या घूरे तक की पूजा होती है। तुलसी, पीपल, वट, आँवला आदि पेड़, पौधे तथा गौ, बैल, घोड़ा, हाथी, आदि पशु पूजे जाते हैं। इन पूजाओं में उन जड़ पदार्थों या पशुओं को कोई लाभ नहीं होता परन्तु पूजा करने वाले के मन में श्रद्धा एवं कृतज्ञता का भाव अवश्य उत्पन्न होता है। जिन जड़ चेतन पदार्थों से हमें लाभ मिलता है, उनके प्रति हमारी बुद्धि में उपकृत भाव होना चाहिए और उसे किसी न किसी रूप में प्रकट करना ही चाहिए। यह श्राद्ध ही तो है।

मरे हुए व्यक्तियों को श्राद्ध कर्म से कुछ लाभ है कि नहीं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि होता है, अवश्य होता है। संसार एक समुद्र के समान है जिसमें जल कणों की भाँति हर एक जीवन है। विश्व एक शिला है तो व्यक्ति एक परमाणु। जीवित या मृत आत्मा इस विश्व में मौजूद है और अन्य समस्त आत्माओं से संबंध है। संसार में कहीं भी अनीति, युद्ध, कष्ट, अनाचार, अत्याचार हो रहे हों तो सुदूर देशों के निवासियों के मन में भी उद्वेग उत्पन्न होता है। जाड़े और गर्मी के मौसम में हर एक वस्तु ठण्डी और गर्म हो जाती है। छोटा सा यज्ञ करने पर भी उसकी दिव्य गन्ध व भावना समस्त संसार के प्राणियों को लाभ पहुँचाती है। इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शान्तिमयी सद्भावना की लहरें पहुँचाता है। यह सूक्ष्म भाव तरंगें तृप्तिकारक और आनन्ददायक होती हैं। सद्भावना की तरंगें जीवित मृत सभी को तृप्त करती हैं परन्तु अधिकाँश भाग उन्हीं को पहुँचता है जिनके लिए वह श्राद्ध विशेष प्रकार से किया गया है।

स्थूल वस्तुएं एक स्थान से दूसरे स्थान तक देर में, कठिनाई से पहुँचती हैं परन्तु सूक्ष्म तत्वों के संबंध में यह बात नहीं है। उनका आवागमन आसानी से हो जाता है। हवा, गर्मी, प्रकाश और शब्द आदि को बहुत बड़ी दूरी पार करते हुए कुछ विलंब नहीं लगता। विचार और भाव इससे भी सूक्ष्म हैं। वह उस व्यक्ति के पास जा पहुँचते हैं जिसके लिए वह फेंके जाए। तर्पण का कर्मकाण्ड प्रत्यक्ष रूप से बुद्धिवादी व्यक्तियों के लिए कोई महत्व न रखता हो परन्तु उसकी महत्ता तो उसके पीछे काम कर रही भावना में है। भावना ही मनुष्य को असुर, पिशाच, राक्षस, शैतान या महापुरुष, ऋषि, देवता, महात्मा बनाती है। इसी के द्वारा मनुष्य सुखी, स्वस्थ, पराक्रमी, यशस्वी तथा महान बनते हैं और यही उन्हें दुखी, रोगी दीन, दास और तुच्छ बनाती है। मनुष्य और मनुष्य के बीच में जो जमीन आसमान का अन्तर दिखाई देता है, वह भावना का ही अंतर है। यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने अपने धार्मिक कर्मकाण्डों का माध्यम इसी महान शक्ति को बनाया है।

उपरोक्त कारणों के फलस्वरूप हिन्दू अपने पितरों के प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता प्रकट करने और उनके प्रति अपनी भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए वर्ष में पंद्रह दिन का समय देते हैं। इस वर्ष श्राद्ध आश्विन बदी पड़वा गुरुवार 17 सितंबर 59 से आश्विन कृष्णा 30 शुक्रवार 2 अक्टूबर 59 तक रहेंगे। श्राद्ध को केवल रूढ़िमात्र को पूरा न कर लेना चाहिए वरन् पितरों के द्वारा जो हमारे ऊपर उपकार हुए हैं। उनका स्मरण करके, उनके प्रति अपनी श्रद्धा और भावना की वृद्धि करनी चाहिए। साथ-साथ अपने जीवित पितरों को भी न भूलना चाहिए। उनके प्रति भी आदर सत्कार और सम्मान के पवित्र भाव रखने चाहिए।

श्राद्ध में ब्राह्मणों को अन्न, वस्त्र, पात्र आदि का दान दिया जाता है। इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस व्यक्ति विशेष को आप जो वस्तुएँ दान रूप में दे रहे हैं, वह शीघ्र ही उनके काम आने वाली हों, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली हों। ऐसा न हो कि आप रुपया खर्च करके दान दें और वह वस्तुएं उनके घर पर लंबे समय तक बिना काम के पड़ी रहें।

यह बात युक्तिसंगत नहीं दीखती कि यदि किसी वृद्ध या वृद्धा की मृत्यु हो तो वृद्ध या वृद्धाओं को ही भोजन कराया जाय या दान दिया जाय या विधवा के स्वर्गवास होने पर विधवाओं को ही दान दिया जाय। आवश्यकता को देख कर ही दान की महत्ता और लाभ सिद्ध होता है। भोजन कराते समय निर्धन विद्यार्थियों की फीस आदि के लिए भी स्थान रखना चाहिए। पितरों के लिए दिये गये दान द्वारा उनके जीवन का उत्थान होगा तो उनकी अन्तरात्मा से आपके पितरों के प्रति शान्तिदायक सद्प्रेरणाएँ निकलेंगी। इसी प्रकार से सत्कार्यों में योग देने के लिए दान के अन्य उपाय सोचे जा सकते हैं।

तर्पण तो श्राद्ध में किया ही जाता है। इसके साथ-साथ पितरों की शान्ति के लिए अखण्ड-ज्योति प्रेस द्वारा प्रकाशित “सूक्त संहिता” नाम पुस्तक में वर्णन पितृ सूक्त के मन्त्रों से हवन करना चाहिए क्योंकि हिन्दू धर्म में कोई भी शुभ या अशुभ कार्य हवन के बिना पूर्ण नहीं माना जाता।

देव ऋण, ऋषि ऋण से पितृ ऋण बड़ा माना जाता है इसलिए उक्त ऋण को चुकाना हमारा कर्तव्य है। महापुरुषों, ऋषियों, सन्त महात्माओं और अवतारों के जीवन चरित्रों का मनन करना चाहिए। समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए जो जो महान् कार्य उन्होंने असहनीय कष्ट झेल कर किये हैं, उन पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। यदि अपनी परिस्थितियाँ आगे बढ़ने से रोकती हों तो जिन कठिन परिस्थितियों में उन्होंने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन का उत्थान किया है, इसका अध्ययन करना चाहिए और उनके ऋण को चुकाने के लिए जन कल्याण के लिए सत्संकल्प करने चाहिएं। प्रायः संकल्प के बिना बड़े कार्य सफल नहीं होते। इसलिए इनका हमारे शास्त्रों में विधान रखा गया है। परहित की भावना उत्पन्न होने से अपनी आध्यात्मिक उन्नति का द्वार भी खुल जाता है और जितना उस मार्ग पर वह आगे बढ़ता जाता है, उससे अधिक वह स्वयं को उन्नति पथ पर अग्रसर हुआ पाता है। इसलिए अखण्ड-ज्योति परिवार का कोई भी परिजन ऐसा न रहे जो अपने पितरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए भविष्य में सत्कार्यों के लिए संकल्प न करे।

गायत्री परिवार शाखाओं को पितृ तर्पण सामूहिक रूप से करना चाहिए। इसके लिए पूर्णमासी और अमावस्या के दिन हैं। शाखा मन्त्रियों का कर्तव्य है कि वह अपने साप्ताहिक सत्संगों में या विशेष बैठक बुलाकर सामूहिक पितृ तर्पण की योजना बनाएं। उपरोक्त दो दिन इसके लिए नियत किये गए हैं। इन दिनों निकट के तालाब या नदी (इसके अभाव में कुआँ) पर जाकर आगे बताई गई तर्पण विधि से सामूहिक तर्पण करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118