राही! बीत चला अब दिन
बहुत सो लिया
अब तो उठ चल धूप सुनहरी घटती प्रतिपल
दूर नगर है कठिन डगर है
किरणें हैं कुछ छिन, राही बीत चला अब दिन, राही
सुरभित उपवन, सुन्दर छाया पाकर जिसको पंथ भुलाया
लख तो तत्क्षण घटती प्रतिक्षण
धूमिल हुआ विपिन, राही बीत चला अब दिन, राही
चल अब क्यों करता है देरी रुक जाना जब घिरे अंधेरी
सुख के सपने
साथी अपने एक एक मत गिन, राही बीत चला अब दिन, राही
—त्रिलोकीनाथ बजवाल पिलानी