मनुष्यों! पूर्ण मनुष्य बनो

September 1959

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(श्री. शम्भूसिंह कौशिक)

तन्तुन्तन्वत्रजसो, भानुमन्विहि,

ज्योतिष्मतः पथो रक्षधिया कृतान्।

अनुल्वणं वयस जोगु वामयो

मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्॥

ऋ॰ 10। 5। 3। 6

“साँसारिक कार्य करता हुआ तू तेजस्विता का, प्रकाश का अनुसरण कर। बुद्धि से निर्णय किये गये प्रकाशयुक्त पथ की रक्षा कर। निरन्तर कर्म और ज्ञान की साधना करता हुआ उलझन रहित कर्म का अवलंबन कर। मनुष्य बन और जनसेवक लोगों को पैदा कर।”

ऋग्वेद के उक्त मन्त्र में हमें पूर्ण मनुष्य बनने का आदेश दिया गया है। केवल मनुष्य शरीर धारण कर लेना ही मनुष्यता नहीं है। शरीर तो मनुष्य बनने के लिए एक माध्यम है, साधन है। शरीर साधन के माध्यम से जीवन पर्यन्त निरन्तर साधना ही मनुष्य बनने की उच्च मंजिल तक पहुँचाती है। मानव जीवन हमें इसीलिए प्राप्त होता कि इस अमूल्य अवसर का लाभ उठाकर पूर्ण मनुष्य बन जाय। इस प्रकार की पूर्णता प्राप्त कर लेना ही जीवन लक्ष्य कहलाता है। इसीलिए वेद भगवान आदेश करते हैं “मनुर्भवः” मनुष्य बन।

मनुष्य बनने के तीन साधन उक्त मन्त्र में बतलाये गये हैं जिनका अवलंबन कर मनुष्य बना जा सकता है—पूर्णता प्राप्त की जा सकती है।

(1) भानुम्+अनु+इहि (भानुमन्विहि)—”प्रकाश का अनुसरण कर”। इसके लिए अंधकारजन्य जीवन से निरन्तर प्रकाश, तेज, दिव्यता की ओर अग्रसर होना चाहिए। प्रकाश ही मनुष्य का पवित्र पथ है। इस प्रकाश एवं दिव्यता प्राप्ति के लिए निरन्तर ज्ञान-विज्ञान की साधना की आवश्यकता है। जीवन में प्रकाश का अवलंबन करने के लिए मुख्यता दो बातों की आवश्यकता है। (1) जीवन में अंधकारमय तत्वों को पहचानना, सूक्ष्म निरीक्षण करना और उन्हें छोड़ना। (2) प्रकाश की ओर अग्रसर होना।

जो पतन एवं विनाश की ओर बढ़ाते हों, जीवन बरबाद करते हों उन्हें अंधकारमय तत्व ही समझना चाहिए। साधारणतया मनुष्य को प्रकाश पथ से रोकने के लिए अंधकार में भटकाने वाले छह शत्रु होते हैं।

गर्व, लोभ, काम, मत्सर, मोह और क्रोध ये छह विकार मनुष्य के प्रकाश पथ में बड़े भारी विघ्न हैं। अपने निरन्तर के प्रयत्न से इन शत्रुओं को परास्त करके प्रकाश का अनुसरण करना चाहिए, जहाँ से तेज, दिव्यता, वीरता, असीम पुरुषार्थ एवं अन्य दैविक गुणों की धारायें निसृत होती हैं। अतः इन अंधकारजन्य बुराइयों, विकारों आदि से बच कर सत्पथ, प्रकाश मार्ग का अवलंबन करना मनुष्य बनने के लिए प्रथम आवश्यकता है।

मनुष्य बनने के लिए दूसरा साधन है—”ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान” अर्थात् अपने पूर्वजों के ज्ञान विज्ञान की साधना के लिए किये गये कठोर परिश्रम से विद्या प्रकाश, ज्ञान विज्ञान आदि की रक्षा कर, उनके अनुभवों से लाभ उठाकर उस विद्या भण्डार में अपना भी कुछ भाग डालें। मनुष्य अपने पूर्वजों की भाँति विद्या प्रकाश को अपने नवीन अनुसंधान के आधार पर और भी बढ़ावें तथा अन्धकार जन्य तत्वों से रक्षा करें।

वेद भगवान् के उक्त आदेश के अनुसार मनुष्य के ऊपर समाज सेवा की एक विशेष जिम्मेदारी डाली गई है जिसमें वह अपने विकास और प्रगति के साथ-साथ समाज की प्रगति एवं उत्थान के लिए भी सद्विचार सत्प्रेरणायें देता रहे। पूर्वजों के साधना एवं चिन्तन रूपी असीम पुरुषार्थ के फलस्वरूप विद्या भण्डार की रक्षा करता रहे। और उसमें स्वयं भी नवीन अनुसंधान करके अपना कुछ भाग डालता रहे। हमारे देश में वेद पुराण, मीमाँसा, स्मृति, दर्शन, शास्त्र आदि के रूप में विद्या विस्तार वेद भगवान के उक्त आदेश का परिणाम है।

मनुष्यता की उच्च मंजिल पर पहुँचने के लिए आवश्यक तीसरा साधन है उलझन रहित कर्म करना अर्थात् अपनी शक्ति एवं परिश्रम को व्यर्थ के कार्यों में खर्च न करके व्यवस्थित ढंग से सत्कार्यों एवं अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने में करना चाहिए। अक्सर मनुष्य अपने समय और शक्ति का तथा कार्य का व्यवस्थित रूप नहीं बना पाते और व्यर्थ के उलझन भरे कार्यों में इन्हें नष्ट कर देते हैं। फलतः जीवन के अन्त तक भी पूर्ण मनुष्य नहीं बन पाते हैं। इतना ही नहीं उनका जीवन भार रूप बन जाता है। अतः उलझन भरे कार्यों से बचना चाहिए क्योंकि इनमें व्यर्थ शक्ति और समय नष्ट होता है। अपनी सामर्थ्य एवं स्थिति को ध्यान में रखते हुए उसी के अनुसार सफलता की ओर अग्रसर होने के लिए श्रम से कदम बढ़ाने चाहिएं। इसमें यदि कोई उलझन भी पैदा हो तो उससे विवेक एवं धैर्य के साथ काम लेकर बचना चाहिए इससे व्यर्थ शक्ति और समय का दुरुपयोग नहीं होता। यही कारण है कि कई महापुरुष अकेले होते हुए भी चुपके-चुपके महान् कार्यों, महान् योजनाओं, को कार्यान्वित करते हैं जिन्हें अचानक देखकर जनता चमत्कार समझ लेती है। अतः सदैव उलझन भरे कर्मों से बचकर अपनी शक्ति, सामर्थ्य एवं स्वरूप का सदुपयोग अपने पवित्र पथ की ओर अग्रसर होने में करना पूर्ण मनुष्य बनने के लिए आवश्यक साधन है।

जीवन में इन तीन तथ्यों को अपनाकर मनुष्य बन जाने से ही संतोष नहीं करना चाहिए वरन् अपने पश्चात् योग्य उत्तराधिकारी भी छोड़ जाना चाहिए जो अपने चलाये हुए इस पवित्र क्रम को आगे भी चलाता रहे। यही कारण है कि प्रत्येक स्त्री-पुरुष निःसंतान रहना पाप समझता है। संतान का वास्तविक तात्पर्य सुयोग्य जनसेवी नागरिक तैयार करके विश्व उद्यान से एक सुरम्य पुष्प पल्लवों से लदा हुआ वृक्ष लगा जाना है। पृथ्वी का बोझ बढ़ाने वाले बहुत सारे पिल्ले-पिल्ली पैदा करते जाना तो समाज के साथ अत्याचार करना है। चाहे अपने घर में चाहे बाहर अपने सद्विचारों की शृंखला को आगे चलाने वाला अनुयायी, शिष्य या उत्तराधिकारी ही वास्तविक संतान है। यही प्रथा वैदिक काल से चली आ रही है। आज भी इस परम्परा को वास्तविक रूप देना चाहिए।

मनुष्य बनने के लिए वेद भगवान के आदेशानुसार बताये गये साधनों का अवलंबन करके पूर्णता प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का पवित्र कर्तव्य है। जो भी इस ओर प्रयत्न करेगा उसे जीवन में पूर्णता प्राप्त होगी। सफलता उसके पीछे-पीछे चलेगी। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे पूर्वज ऋषियों का है। प्रकाश मार्ग का अवलंबन ज्ञान-विज्ञान की निरन्तर साधना एवं विद्या प्रकाश वृद्धि, उलझन भरे कार्यों से दूर रहकर अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य का सदुपयोग अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने में करना योग्य उत्तराधिकारी तैयार करना उनकी जीवनधारा के मूल आधार थे। यही कारण था कि उन्होंने जीवन में पूर्णता प्राप्त की संसार के लिए अमूल्य ज्ञान भंडार का दान किया और जीवन में महान् कार्यों का संपादन किया। आज भी प्रत्येक व्यक्ति वेद भगवान के आदेशानुसार उक्त तथ्यों के आधार पर जीवन का सदुपयोग करे तो वही स्थिति प्राप्त हो सकती है इसमें तनिक भी सन्देह एवं शंका की बात नहीं है।


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