क्या हम सब ईश्वर नहीं हैं?

June 1959

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(श्री हेमचन्द्र साहित्य-मनीषी)

यद्यपि भारतीय दर्शन और वैदेशिक दार्शनिकों का अधिकाँश में यही मत है कि हमारा जीवात्मा परमात्मा का अंश है—वह उसी में से निकला है और अन्त में उसी में लय हो जायगा, पर अधिकाँश मनुष्यों ने न तो इस उक्ति की सत्यता को अनुभव किया और न उसके अनुसार आचरण किया। अधिक से अधिक थोड़े से लोगों ने ‘सोऽहं’ अथवा ‘तत्त्वमसि’ कहकर एक आदर्श के रूप में उसे स्वीकार किया तो दूसरी ओर कुछ ढोंगियों ने उसका उच्चारण करके अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने और सीधे-साधे लोगों को फँसाने का जाल रच डाला। इस प्रकार “सोऽहं” अथवा “मैं ईश्वर हूँ” केवल एक मौखिक वार्ता अथवा स्वार्थ-साधन की सी चीज हो रही है। अगर हजारों वर्षों में दस बीस या सौ-पचास व्यक्तियों ने उसे अपने जीवन में चरितार्थ कर दिखाया हो तो उनको अपवाद स्वरूप ही समझना चाहिये।

“सोऽहं” अथवा अद्वैतवाद के विरुद्ध दूसरा सिद्धाँत द्वैतवाद का है जो भारतवर्ष के कितने ही सम्प्रदायों में और ईसाई मुसलमान जैसे प्रसिद्ध मजहबों में भी जड़ जमाये हुये है। इनका कहना यही है कि परमात्मा और जीवात्मा में सदा से अन्तर रहा है और सदा रहेगा। इस मत के अनुसार जीवात्मा एक प्रकार से परमात्मा द्वारा निर्मित है और इसलिये उसका कर्तव्य है कि सदा उसकी पूजा, उपासना, भक्ति किया करे। इससे उसका कल्याण होगा और सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर सकेगा। पर यह कोई विशेष वाञ्छनीय स्थिति नहीं है। जब तक हमारी बागडोर किसी दूसरे के हाथ में रहेगी, तब तक हमारा सुख और कल्याण अस्थायी ही है। जब वह किसी कारणवश असंतुष्ट हो जाय, या हमारी मनोवृत्ति ही किसी अन्य दिशा में मुड़ जाय तो हम फिर कष्ट सागर में तैरने लगेंगे। इस प्रकार की सदा-सदा के लिए परमुखापेक्षी स्थिति किसी भी स्वाभिमानी और विवेकशील जीव को प्रिय नहीं हो सकती। अगर वह कभी सबसे ऊँची स्थिति पर नहीं पहुँच सकता, उसे हमेशा दास, सेवक, अनुयायी ही रहना है तो फिर इतनी खटपट करने और त्याग तपस्या को अपनाने की आवश्यकता ही क्या?

पर सत्य बात यही है कि इस प्रकार सदा-सदा के लिये परमात्मा और जीव की स्थिति को सर्वथा भिन्न मानना न तो तर्क और बुद्धिसंगत जान पड़ता है न वह कोई अधिक अच्छी स्थिति ही कही जा सकती है। आधुनिक विज्ञान, जो कुछ वर्ष पहले ईश्वर के अस्तित्व से सर्वथा इनकार करता था अब उसकी सत्ता को मानने का उपक्रम कर रहा है, पर उसमें द्वैत की तो गुंजाइश ही नहीं है। वह खोज करते-करते यहाँ तक पहुँचा है कि इस विश्व का अंतिम मूल तत्व एक ही है—जड़, चैतन्य सबका उसी में से विकास हुआ है और अंत में उसी में लय हो जायगा। इसलिए मनुष्य ही क्यों प्रत्येक प्राणी और पदार्थ ईश्वर का ही अंश है जो एक दिन उसमें अवश्य मिल जायगा। यह सिद्धाँत पालन करने में ही नहीं समझने में भी कठिन है और इसलिए साधारण मनुष्य जल्दी इस पर विश्वास नहीं कर सकते। जिसके जीवन में युग-युग से दुर्बलता घुस गई है, गुलामी ने दिमाग में डेरा डाल रखा है, वह एकाएक कैसे इस बात पर विश्वास कर सकता है कि वह सर्वशक्तिमान सत्ता का भाई-बन्धु है और चाहे जब जैसा बन सकता है। इस विषय का विवेचन करते हुये एक विद्वान ने ऐसी ही मनोवृत्ति वालों का यथार्थ चित्र इन शब्दों में खींचा है।

“ऐसी ही हीन वृत्ति हमारी भी है। अनेक काल से भिखारी बने आ रहे हैं। देवता बने, इन्द्र बने, स्वर्ग के सिंहासन पर बैठे पर तब भी भिखारीपन नहीं मिटा। क्षुद्र पोखर विराट सागर की कल्पना भी कैसे कर सकता है? यदि छोटे पोखर से कहा जाय कि कुछ दूर पर अनन्त जल राशि का विशाल लहराता सागर ठाठें मार रहा है तो वह उसे मजाक ही समझेगा। जुगनू के लिए प्रकाश पुँज की कल्पना असंभव है। क्षुद्र अपनी क्षुद्रता के घेरे को तोड़कर आगे बढ़ने का साहस ही नहीं कर सकता। किसी भी विराट रूप की कल्पना उसके लिए केवल सिर दुखाना है। जो तुच्छता में बन्द हैं, तंग दायरे में कैद हैं यदि वे विराट के तथ्य को न समझ सकें या अपने से विशाल के अस्तित्व को संदेह की नजरों से तौलें, तो कोई आश्चर्य नहीं। जातिवाद, वर्गवाद, पथबाद की तंग दीवारों में जीने वाले के लिए अखिल मानव स्पष्टि में एकत्व के दर्शन पाना असंभव नहीं तो अशक्य अवश्य है। ऐसे लोगों से सच्चा आत्म ज्ञानी यही कहेगा कि तुम ईश्वर की सजीव मूर्तियाँ हो। तुम सबमें वह विराट चेतना जल रही है, किन्तु उस आग पर राख पड़ी है। उसकी ज्वाला बुझी नहीं है, दब गई है। आवश्यकता है राख को दूर करने की। राग-द्वेष के कूड़े कर्कट को दूर करो तो जान जाओगे कि तुम स्वयं ईश्वर हो।”

“मानव उस क्षुद्रता की कैद से इतना चिपट गया है कि जात-पाँत और अन्य भेदों के क्षुद्र घेरों से ऊपर उठ कर सोचने समझने की ताकत ही उसमें नहीं रही है। वह जिस क्षेत्र में जाता है वहाँ भी उस वेद को साथ में लिये जाता है। ब्राह्मण अपने नाम के पीछे शर्मा लगाना कभी न भूलेगा। वैश्य अपने नाम के बाद गुप्ता लगाना उतना ही आवश्यक समझता है जितना कि रोटी खाने के बाद हाथ धोना। उसकी यह क्षुद्र घेरे में जी सकने की आदत सह अस्तित्व में सब से बड़ी बाधा है। सेवा के क्षेत्र में भी जाति-पाँत की दीवारें उसे तंग कर रही हैं। सामाजिक जीवन की स्वतंत्रता में ये दीवारें रुकावट डाल रही हैं।”

अपने को परमात्मा से भिन्न दीन, हीन तुच्छ जीव मात्र समझने से केवल आत्मिक विकास का मार्ग ही रुद्ध नहीं होता, वरन् मनुष्य का मानसिक और सामाजिक विकास भी रुक जाता है और उसके सभी व्यवहारों में संकीर्णता क्षुद्रता का प्रवेश होने लगता है। और तो और ऐसे अनेक मनुष्यों में मानवता के स्वाभाविक गुणों का भी लोप हो जाता है। वह सम्प्रदाय भेद होने से अपने साथी को भी गैर समझता है और आवश्यकता होने पर उसकी साधारण सेवा भी नहीं कर सकता।

चाहे सिद्धान्त की दृष्टि से, चाहे तर्क की दृष्टि से और चाहे उपयोगिता की दृष्टि से द्वैत की अपेक्षा अद्वैत की भावना रखना ही श्रेष्ठ और कल्याणकारी है। सदा परमात्मा के आगे यह रोना रोते रहने से कि हम पापी हैं, पाखंडी हैं दीन, हीन, मलीन हैं, आप हमको शरण में लेकर हमारा उद्धार करें। इसके मनुष्य का उपकार तो कम और अपकार ज्यादा होने की संभावना है। इससे उसके भीतर ऐसी दुर्बलता का भाव घुस जायगा कि उससे कभी कोई महान कार्य होना संभव ही न होगा। इसके बजाय अपने को सर्वशक्तिमान ईश्वरीय सत्ता का अंश मानने से मनुष्य कैसी भी अच्छी या बुरी परिस्थिति में रहे उसका दृष्टि बिन्दु उच्च रह सकेगा और वह अवसर आने पर अवश्य ऊँचा उठेगा। मनोविज्ञान की दृष्टि से भी हीनता की मनोवृत्ति रखना कभी श्रेयस्कर नहीं हो सकता, चाहे हम उसे कैसे भी धार्मिक शब्द में लपेट कर पेश करें। इसलिये हमको संसार में दिखलाई पड़ने वाली विभिन्नता से भ्रमित न होकर समस्त सृष्टि और परमात्मा के एकत्व में ही विश्वास रखना चाहिये। उपनिषद् में उच्च स्वर से इस तथ्य की घोषणा की गई है—

यथोदकं वृष्टं दुर्गे पर्वतेषु निधावति।

एवं धर्मान्पृथक् पश्यं स्ताने वानुधावति॥

यथोदकं शुद्धेशुद्ध मासिक्तं तादृगेवभवति।

एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम॥

अर्थात्—पर्वत शिखर पर बरसने वाला जाने अनेक धाराओं में विभाजित होकर पर्वत की चारों दिशाओं में बहता है। इसी प्रकार, अज्ञानी पुरुष एक से अनेक रूप देखता है तो शिखर पर गिरने वाले जल के समान भ्राँत हो जाता है। पर पानी में डाला हुआ पानी उसके साथ मिलकर एक हो जाता है। यही बात ज्ञानी की आत्मा के सम्बन्ध में भी है, जो अनेक रूपों में एक रूप का दर्शन करता है।


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