मृत्यु-जीवन का अन्तिम अतिथि

June 1959

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(श्री कैलाशनाथ प्रियदर्शी एम.ए)

जीवन की सब से महान एवं अवश्यम्भावी घटना मृत्यु है। इसके आधार पर संसार का प्रत्येक व्यक्ति मानव जीवन की सफलता एवं असफलता पर अपना निर्णय देता है। धर्म शास्त्र तो यह कहते ही हैं कि—यं यं वापि स्मरन् मावं त्यजत्यन्ते कलेववं। तं तं में वे ति कौन्तेय सदा तद्भाव भाविता। अर्थात् मरण काल में जिन-जिन भावों का स्मरण करता हुआ मनुष्य अपने शरीर को त्यागता है उसी-उसी भावयुक्त जन्म को, स्वर्ग को अथवा मोक्ष को प्राप्त करता है। यह बहुत गंभीर बात है। इसका विवेचन धर्म ग्रन्थों में यत्र तत्र सर्वत्र प्राप्त है। किन्तु लौकिक दृष्टि से इस पर सभी विचार करते एवं निर्णय देते हुए पाये जाते हैं।

कानपुर के साम्प्रदायिक दंगे में जिस समय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी, शान्ति का प्रयास करते हुए, मारे गये उस समय गाँधी जी ने इस मृत्यु को महाबलिदान की संज्ञा देते हुए कहा था कि काश मुझे भी इस प्रकार की मृत्यु का सौभाग्य प्राप्त होता। और उनकी इच्छा भी भगवान ने पूर्ण की। उनकी मृत्यु के पूर्व ऐसी अनेक घटनायें घटित हो चुकी थीं जिनसे यह विदित हो गया था कि गाँधी जी की हत्या का प्रयत्न किया जा रहा है। गाँधी जी भी स्वयं यह बात जानते थे। फिर भी, ईश्वर पर अनन्य आस्था रखने वाले, गाँधी जी पूर्ण निर्भय थे और उनका विश्वास था कि जब तक ईश्वर को उनके इस शरीर से काम लेना है तब तक उनका बाल बाँका नहीं हो सकता और जिस दिन इसकी आवश्यकता न रह जाएगी इस जीवन को कोई बचा न सकेगा। उनकी यह निर्भयता, यह आत्म एवं परमात्म विश्वास, यह सेवा भावना, जीव कल्याण में अनुरक्ति आदि सम्पूर्ण भावों का प्राकट्य उनके प्रार्थना सभा में जाते समय ‘हे राम’ शब्द से युक्त मृत्यु से प्रकट हो जाती है।

संसार के सभी व्यक्ति अपने-अपने विश्वासों के अनुसार मृत्यु काल की घटनाओं का विवेचन किया करते हैं। महर्षि दयानन्द की मृत्यु उनकी निर्भीकता एवं सत्यवादिता के कारण विषदान द्वारा हुई। जिस समय उनका मरण काल समीप आया वे मृत्यु शैया पर उठ कर बैठ गये। अत्यन्त निर्बल होते हुए भी उनमें उठकर बैठ जाने का बल आ गया। उन्होंने ईश्वर की प्रार्थना में कुछ वेद मन्त्र कहे और यह कहते हुए प्राण त्याग दिये कि हे ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो। उनकी मृत्यु के इस दृश्य ने गुरुदत्त विद्यार्थी सदृश शिक्षित नास्तिक को आस्तिक बना दिया। उनकी इस मुद्रा में उनके जीवन का तप, त्याग, ब्रह्मचर्य, निर्भीकता, ईश्वर निष्ठा एवं साहस प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होता है।

देश की स्वतंत्रता के लिये दीवाने, अनेक शहीदों का इतिहास उनकी मृत्यु काल में जाज्वल्यमान हो उठा है। भगतसिंह फाँसी के तख्ते पर हँसते-हँसते चढ़ गये। उनके शरीर का वजन पहले से बढ़ गया था। यह जानते हुए कि उन्हें शूली पर चढ़ना है उनका देश प्रेम उन्हें वह मस्ती प्रदान किये हुए था जो तपस्वियों की निधि होती है। फिर भला वे चिन्तित क्यों होते और उनका वजन क्यों न बढ़ता। यही हाल रामप्रसाद बिस्मिल का था। उनके देश प्रेम का गान फाँसी के तख्ते पर भी गूँज उठा था और चन्द्रशेखर आजाद की मस्ती, उनकी दीवानगी आज भी प्रयाग के एलफ्रेड पार्क में पहुँचते ही स्मरण हो आती है।

गाँवों में चौपाल पर बैठकर, जाड़े के दिनों में अलाव के आस-पास जब कभी किसी सौभाग्यशाली की मृत्यु की महत्वपूर्ण एवं प्रभावशालिनी चर्चा चल पड़ती है तब एक के बाद एक विलक्षण मृत्युओं की गाथायें गाई जाने लगती हैं। किसी तेरहवीं, श्राद्ध अथवा प्रायः श्मशान घाट पर इस प्रकार की चर्चायें स्वाभाविक ही हैं। मृत्यु के समय साहस की जितनी प्रशंसा होती है उतनी अन्य बातों की नहीं। क्यों न हो मृत्यु भी तो एक महान युद्ध है जिसमें विजय पाना साहस के बिना असम्भव है। यह वह विदाई है जिसके बाद पुनर्मिलन असम्भव है। यह वह यात्रा है जिसका आरम्भ सर्वस्व त्याग पर होता है। सब माया, सब मोह, सब कामनायें समाप्त करने पर इस यात्रा का सुखद समारम्भ होता है। ऐसे समय में जब परिवार छूट रहा हो, धन सम्पत्ति, यश, वैभव सब से अलग हो जाना हो, तब परिवार के छोटे बड़े सब की आँखों में अश्रु, मुख पर उदासी, वाणी में चीत्कार, हृदय में हाहाकार देख, सुन एवं समझ कर भी होठों पर मुस्कान रहे। मृत्यु काल के सहस्र बिच्छुओं के डंक से भी अधिक पीड़ा को सहता हुआ भी मुँह से आह न निकले तो फिर भला ऐसी अलौकिक वीरता एवं साहस की सराहना कौन न करेगा?

किन्तु यह सब मृत्यु काल में ही करने से हो जायगा ऐसा सम्भव नहीं। इसके लिये तो सम्पूर्ण जीवन की साधना भी प्रायः अपर्याप्त हो जाती है। कुछ थोड़े से भाग्यशाली व्यक्ति ही जीवन भर साधना कर के सफल हो पाते हैं और इसीलिये विश्व के इतिहास में इनी गिनी ही ऐसी मृत्युएं हैं जिनकी सराहना सदियों की चर्चा का विषय बन जाती है। हमारा इतिहास तो ऐसे उदाहरणों का ही इतिहास है। राजस्थान का जौहर, जब कि राजपूतों के युद्ध में चले जाने पर उनके घर की नारियाँ विजय की ओर से निराश हो जाने पर जलती ज्वाला में कूद पड़ती थीं, मृत्यु का एक ऐसा अद्वितीय उदाहरण है जिसकी जोड़ का विश्व के इतिहास में कोई वृत्तान्त नहीं है। हमारे पड़ोसी देश जापान ने प्रागैतिहासिक काल में युद्ध के समय खाई पाटने के लिये अपने सहस्रों नवयुवकों को स्वेच्छा से उस खाई में जीवित डालकर विश्व को अपनी वीरता एवं त्याग से चमत्कृत कर दिया था। उसको अभी विश्व भूल भी न पाया था कि इस द्वितीय महायुद्ध में पुनः वहाँ के नवयुवक एवं नवयुवतियों ने अपने अद्वितीय बलिदान का उदाहरण उपस्थित किया। अपने प्राणों की भेंट चढ़ाकर भी, यह जानते हुए भी, कि हमें इस टारपिडो, इस प्लेन अथवा इस गोले के साथ मरना निश्चित है फिर भी उन्होंने मृत्यु का हँसते-हँसते आलिंगन किया और विश्व को चमत्कृत कर दिया। हमारे देश के विभाजन के समय हमारे पंजाब की नारियों ने अपनी सतीत्व रक्षा में जिस बलिदान की झाँकी उपस्थित की उसकी तुलना केवल राजस्थान के जौहर से की जा सकती है। विश्व में अन्यत्र इसकी समता का इतिहास अप्राप्य है। जब एक ओर सतीत्व की रक्षा का प्रश्न था और दूसरी ओर मृत्यु का आलिंगन, तब हँसते-हँसते मृत्यु को गले लगा लेना जीवन के किस महान त्याग की भूमिका है यह समझ कर धर्म प्रेम की महान भावना से हृदय गद्-गद् हो जाता है। यह उन मूक बलिदानों का इतिहास है जिनका नाम व्यक्तिगत रूप से विदित न होकर सामूहिक रूप से अनन्त काल तक प्रेरणा प्रदान करता रहेगा और जिनके अदृश्य चरणों में शीश झुका कर मानव अनन्त काल तक परम शान्ति प्राप्त करेगा।

यह सब घटनायें थोड़े समय के लिये रुक कर विचार करने के लिये हमें बाध्य करती हैं। हमें यह सोचने के लिये प्रेरित करती हैं कि हम इनमें से किस प्रकार की मृत्यु को अपनाने की लालसा करें। यद्यपि यह कहना उनके लिये कैसे प्रिय हो सकता है जो मृत्यु को भुलाकर खाने पीने और मौज करने में लीन हैं, चाहे मृत्यु उनके द्वार पर ही क्यों न आ पहुँची हो। किन्तु प्रिय हो अथवा अप्रिय यह तो सत्य है, यथार्थ है और अवश्यम्भावी है। जो बेखबर रहेंगे मृत्यु उन्हें अनायास ही आकर दबा लेगी और वे यही सोचते रह जायेंगे कि हाय, हमें तो यह मालूम ही न था। हम तो अभी इसके लिये तैयार ही न थे। किन्तु जो उसके लिये तैयारी किये रहेंगे उनके सारे जीवन में संयम, दृढ़ता, लगन और सत्य का समागम तो रहेगा ही साथ ही जब मृत्यु आयेगी तो वे मुस्कुरा कर उसका स्वागत करेंगे और कहेंगे आइये, चलें मैं तो तुम्हारी प्रतीक्षा में ही अपने सम्पूर्ण कार्य निबटाये बैठा था। मृत्यु उनके लिये एक खेल हो जायगी। गीता के शब्दों में जीर्ण वस्त्र उतार कर नवीन वस्त्र धारण करना। उपनिषद् की भाषा में काम करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करना अकर्मण्य रहकर नहीं और विश्व के शब्दों में वाह-वाह क्या अच्छी मृत्यु पाई। मरण समय में भी अधरों पर मुसकान जिह्वा पर भगवान और चेहरे पर गंभीरता। सम्पूर्ण जीवन का उज्ज्वल इतिहास मानो स्वर्णिम अक्षरों में लिख गया हो उसी से चेहरा देदीप्यमान हो उठा है। और जो यह समझते हैं कि विश्व के सम्पूर्ण प्राणी मृत्यु को प्राप्त करेंगे किन्तु मैं सदैव जीवित रहूँगा, उनके लिये तो विश्व के सम्पूर्ण महापुरुष, सम्पूर्ण दर्शन सम्पूर्ण इतिहास एवं सम्पूर्ण धर्म-ग्रंथ व्यर्थ हैं। धर्मराज युधिष्ठिर के शब्दों में सब से बड़ा आश्चर्य यह है कि प्रतिक्षण प्राणियों को काल के गाल में जाते हुए देखकर भी शेष प्राणी यह सोचते हैं कि हमें काल के गाल में नहीं जाना है। किन्तु जो जीवन को एक खेल न समझ कर किसी उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त प्राप्त एक संयोग समझते हैं उन्हें इन बातों पर विचार करके अपने जीवन के कार्यक्रम को दत्तचित्त होकर पूर्ण करने में लग जाना चाहिये। मृत्यु की ओर से सदा सावधान रहना भय नहीं अपितु कार्य रत रहने का साहस प्रदान करेगा।


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