हमारी शिक्षा कैसी होनी चाहिए

June 1959

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(श्री मार्कण्डेय जी)

मानव में मानवता तभी टिक सकती है जबकि उसे ऐसी शिक्षा दी जावे जिससे उसका सतत विकास होता रहे। जीवात्मा स्वभाव से ही ऊँची उठने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहती है।

सुशिक्षा से मनुष्य अपनी कमियों को पूर्ण करता है। चाहे शारीरिक हो मानसिक एवं अध्यात्मिक हो सभी के सतत विकास का माध्यम शिक्षा है।

वर्तमान समय में जो शिक्षा दी जाती है वह हमें पूर्ण विकास के मार्ग पर न लेजाकर अहंकारी, प्रमादी तथा मर्यादा से च्युत करने में सहायक बन रही है। आज के विद्यार्थी, वास्तविक विद्या के अर्थी न होकर केवल सर्टिफिकेट प्राप्त करने वाले हैं। हमारे राष्ट्र नायक शिक्षा में धार्मिता का समावेश करने में हिचकते हैं चाहे उसके अभाव में हमारे बालक चरित्रहीन हों या प्रपंची, अथवा उद्दण्ड स्वभाव वाले ही क्यों न बन जायें।

आज की शिक्षा, शिक्षार्थी तथा शिक्षक तीनों जीवन विकास में किस प्रकार सहायक हों, तथा शिक्षालय में कितना प्रेम सद्भावना आदि विशिष्ट गुण, वातावरण पैदा हों यह समस्या विचारणीय ही नहीं किन्तु परम आवश्यक है। इस समय की वे घटनायें जो आये दिन विद्यालयों में सुनाई दे रही हैं, उनसे शिक्षा के वर्तमान स्वरूप का स्पष्ट चित्र सारे संसार को दिखाई दे रहा है।

आज की शिक्षा में भौतिकवाद का बोलबाला है। शिक्षा के विषय ऐसे चुने गये हैं कि उस विषय की अधूरी ही शिक्षा दी जाती है। शिक्षार्थी की बौद्धिक शक्ति का विकास होता नहीं, वे तोता रटंत या रिकार्ड मशीन की तरह एक विशेष स्थिति में ही रह जाते हैं।

वर्तमान शिक्षा एकाँगी है। वास्तविक शिक्षा वह है जिससे मनुष्य अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों पथ का पथिक बन सके जिससे मनुष्य का तन सबल, मन स्वच्छ हो, वह छल प्रपंच रहित, परोपकारी बुद्धिमान तथा एक सुयोग्य नागरिक बने वही सच्ची शिक्षा कही जा सकती है।

आज अध्यात्मिक शिक्षा भी मनुष्य को पूर्ण अमली ज्ञान कराने में असमर्थ हो रही है। जो कुछ भी अध्यात्म के नाम पर अथवा धर्म कृत्य करने कराने वाली शिक्षा दी जाती है वह भी एक यन्त्रवत क्रिया मात्र ही रह जाती है क्योंकि शिक्षक आध्यात्म तत्व, कर्मकाँड के रहस्य को शिक्षार्थी के अन्तर में नहीं उतार पाते। उधर शिक्षार्थी भी अधूरे ज्ञान एवं उपेक्षित मन से अपूर्ण बातें ही सीखते जाते हैं। आत्मज्ञान, वेदाँत के मर्म को भी सही रूप में नहीं जान पाते।

मनुष्य को शिक्षा जितनी अपने जीवन के प्रारम्भ में मिलती है और जितनी उस अवस्था में ग्रहण कराई जाती है उतनी अन्य काल और अवस्था में ठीक-ठीक सम्भव नहीं। बालकपन में हम एक प्रबल जिज्ञासु होते हैं। उस समय के संस्कार जीवन भर जमे रहते हैं। अतएव शिक्षा किसी भी देश के बालकों को ऊँचे उठाने में समर्थ है। धर्मवान्, कर्तव्य निष्ठ, परोपकारी, ज्ञानवान तथा राष्ट्र के सच्चे सपूत बनाने में अच्छी विकासपूर्ण सुशिक्षा दी जानी चाहिये।

मानव जीवन के उत्थान में वही शिक्षा समर्थ है जो उसके विवेक, पुरुषार्थ, सेवा, कृतज्ञतादि भावनाओं को विकसित करे। मनुष्य को सब अवस्थाओं में सुखी प्रसन्न प्रमादहीन बनाये। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अब शिक्षा के वर्तमान स्वरूप में विकृतियां आ गई हैं। अतः उसमें परिवर्तन करना आवश्यक है। शिक्षा जीवन निर्माण का कारण है। शिक्षा का आदर्श जो हमें आत्मोन्नति की मंजिल में ले जावे एवं हमारे वास्तविक लक्ष्य तथा अभीष्ट की पूर्ति में सहायक हो वैसा ही रक्खा जावे।

अच्छी शिक्षा का आदर्श हमें नीति निपुण सर्व आत्मभावना दायक विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति दया, सेवा, भलाई, अपनत्व आदि गुण स्वभाव संस्कार वाले बनाना है।

अच्छी शिक्षा जितनी आवश्यक है उतनी ही उसके उच्च गुण कर्म स्वभाव वाले शिक्षक भी होने चाहियें अथवा बनाने के लिए हमें प्रयत्न करना होगा। योग्य शिक्षक ही तो हममें से दयानन्द, विवेकानन्द, गाँधी तिलक आदि जैसे सच्चे शिक्षार्थी उत्पन्न करते हैं।

अच्छी शिक्षा का ही परिणाम था कि प्राचीन समय में मेधावी, तेजस्वी, मनस्वी और यशस्वी छात्र हमारे देश में होते थे। गौतम, व्यास, पतञ्जलि करणादि, वशिष्ठ जैमिनि जैसे विश्वगुरु भी तो हमारे देश में हुये थे जिनके ज्ञान का आज विश्व ऋणी है।

शिक्षा गुरु को शिक्षक के वास्तविक उद्देश्य तथा मानव-जीवन के परम लक्ष की दृष्टि को जानकर असली राष्ट्र निर्माता के रूप में अपने को एक आदर्श गुरु बनना होगा। हमारी शिक्षा की सफलता योग्य गुरुओं की अपेक्षा रखती है। बालकों के भावी-जीवन तथा समाज की प्रमुख समस्या को स्थिर, प्रेरणा तथा शुद्ध हितकारी वातावरण की ओर जाने में योग्य शिक्षकों की आवश्यकता है।

शिक्षा ऐसी हो जिससे, आत्मा को गति मिले, मानवता का प्रसार हो, शिक्षार्थी की शारीरिक, मानसिक उन्नति हो।

शिक्षा प्रसार संस्थायें अपने इस महत्वपूर्ण कार्य को अच्छी प्रकार से समझें। शिक्षा को किसी विशेष दृष्टिकोण में ही आबद्ध न किया जाय क्योंकि शिक्षा से मनुष्य सब प्रकार की उन्नति करता है। यदि संकुचित बातों में ही शिक्षा का आदर्श और विकास सीमित कर दिया गया तो वह पंगु बन सकती है।

मनुष्य की सुन्दर भावनायें विकसित होती रहें। उनमें दया, प्रेम, उदारता, तथा एक दूसरे को अपना जान सकें ऐसी शिक्षा भी देनी ठीक होगी। कोई भी शिक्षा तब तक अधूरी है जब तक कि वह मानव के विकास में अच्छी प्रकार से प्रमाणित न हो जाय।

वैदिक युग में शिक्षा को इतना महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था कि जीवन का प्रथम भाग इसी में समाप्त हो जाता था। इसी प्रथमावस्था की शिक्षा शिक्षार्थी के भावी जीवन को सुन्दर बना देती थी। गुरुकुलों की शिक्षा, जहाँ पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन कराते हुये दी जाती थी वहाँ विद्याभ्यास के साथ-साथ ही शिक्षार्थीगण नीति शास्त्र, राज्य रक्षा के प्रकार, तथा राष्ट्र के प्रमुख-प्रमुख हितों की महत्वपूर्ण समस्याओं को भी सीख जाया करते थे।

गुरुकुल के विद्यार्थी उस समय राष्ट्र की निधि समझे जाते थे। आचार्यों द्वारा शिक्षा प्राप्त करके शिक्षार्थी एक सफल गृहस्थ, विद्वान, सदाचारी, अध्यात्मतत्त्व, ज्ञानी, आस्तिक होता था और साथ ही मनुष्य भी।

आज की शिक्षा को जब उस वैदिक युग की शिक्षा से मिलाते हैं तो इसी परिणाम पर दृष्टि जाती है कि वर्तमान शिक्षा अधूरी है। माना कि उस वैदिक युग में और इस युग में बहुत अन्तर है। न वैसे शिक्षक हैं न शिक्षा, किन्तु जो कुछ भी प्राप्त है उससे भी शिक्षा का स्तर ऊँचा उठाकर शिक्षा का आदर्श एवं लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा से मानव में पूर्णता आती है। जीवन स्तर और बौद्धिक शक्ति का विकास होता है। राष्ट्र का उत्थान अच्छी शिक्षा प्राप्त होने से हो सकता है। अतएव शिक्षा के सर्वांगीण विकास के मूलतत्व को विकसित करना नितान्त आवश्यक है। शिक्षालयों का वातावरण जिस ओर अधिक अच्छा बनाया जाय उसके लिए प्रत्येक संभव प्रयत्न किया जाय। मनुष्य के मस्तिष्क के साथ ही उसके हृदय को भी विशाल एवं उदार जिस शिक्षा के माध्यम से बनाया जाय, आज वैसी ही शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है।


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