(श्री बालकृष्ण अग्रवाल)
‘जहाँ चाह है वहाँ राह है’ यह एक पुरानी कहावत है, परन्तु इसमें बड़ा बल है। मनुष्य की जैसी अच्छी बुरी इच्छा होती है वह उसी के अनुसार अपनी समस्त शक्तियों को लगा देता है और उसमें सफल होता है। मनुष्य की जैसी इच्छा होती है, वह वैसा ही बनता चला जाता है। कवि, लेखक, वक्ता, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनने की इच्छा रखने वाला अपनी क्रियाओं को उसी दिशा में मोड़ देता है और अपनी सारी शक्तियों को एकाग्र करके उस में लगा देता है, परिणामस्वरूप वह वही बन जाता है।
हमारा भविष्य हमारे अपने हाथों में है। उसको बनाने वाले हम स्वयं ही हैं। एक विद्वान् युवकों से कहा करते थे कि “यही समय है जब तुम्हें अपने मार्ग का निश्चय कर लेना चाहिए नहीं तो बाद में पछताना पड़ेगा कि मैंने स्वयं अपने भविष्य को अन्धकारमय बनाया है। इच्छा एक ऐसी वस्तु है जो आसानी से हमारे स्वभाव में आ जाती है। इसलिए दृढ़ इच्छा करना सीखो और उस पर दृढ़ बने रहो। इस तरह से अपने अनिश्चित जीवन को निश्चित बना कर उन्नति का मार्ग प्रशस्त करो।”
जिस मनुष्य में कोई इच्छा नहीं होती, वह क्रियाहीन और निरुत्साही बना रहता है। ऐसे ही मनुष्य संसार में दीन-दीन दशा में देखे जाते हैं। मनुष्य को पिछड़ा हुआ और गिरी हुई परिस्थितियों में रखने वाली कोई वस्तु है तो वह इच्छा शक्ति का अभाव है जिसे हमें दूर करना है। जिस तरह नदी का चलता पानी स्वच्छ व स्वास्थ्यप्रद होता है और एक स्थान पर खड़ा पानी गंदला और स्वास्थ्य विनाशक होता है उसी तरह से इच्छा शक्ति जीवन में आगे बढ़ने और कुछ करने के लिए प्रोत्साहित करती रहती है और इसके अभाव में हमें वर्तमान परिस्थितियों में ही सन्तुष्ट होना पड़ता है। यदि हम आलसी बन कर अपना जीवन बिता देते हैं, तो भगवान के द्वारा दिये गये उत्तरदायित्व को निबाहने से जी चुराते है, अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने से भागते हैं। हम यहाँ जागरुक रहने और दूसरों को जगाये रखने के लिए आये हैं। जब हमारी शक्तियाँ ही गुप्त पड़ी रहेंगी तो हम दूसरों के लिए कुछ करने में कैसे समर्थ होंगे? पहले तो अपनी शक्तियों को जाग्रत करने के लिए इच्छा शक्ति को बढ़ाना चाहिए और अपने जीवन का एक निश्चित मार्ग चुन लेना चाहिए तभी हमें सन्तोष होगा कि यहाँ हम मुर्दों की तरह नहीं बल्कि जिन्दों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
एक संन्यासी कहा करते थे कि “जैसा तुम चाहो वैसे ही बन सकते हो क्योंकि इच्छा शक्ति का दैव के साथ ऐसा घनिष्ठ संबन्ध है कि हम सच्चे दिल से जो कुछ होने की इच्छा करें, वही हो सकते हैं। ऐसा कोई नहीं है जिसकी उत्कट इच्छा आज्ञाकारी, सन्तोषी, नम्र अथवा उदार होने की हो और वह वैसा ही न हो जाये।” महापुरुषों के जीवन चरित्र इस सत्य की गवाही देते हैं। उन्होंने संसार में जितने बड़े-बड़े कार्य किये हैं, उन में इसी महाशक्ति का सहारा मुख्य था। यह तो सभी कार्यों की जड़ है। इसके बिना तो किसी कार्य का आरम्भ होना भी सम्भव नहीं है। अब यह व्यक्ति विशेष की बुद्धि और विवेक पर निर्भर है कि वह अपनी इच्छा शक्ति को किस ओर लगाये। चोर, डाकू भी इसके आधार पर सफल होते हैं और सन्त, महात्मा और महापुरुष भी इसी के सहारे समाज में क्रान्तियाँ करते हैं। धन्य हैं वह जो प्रभुदत्त इस शक्ति को उत्तम मार्ग में लगाते हैं।