सविता और सत्यनारायण

June 1959

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(डॉ बद्रीनारायण माथुर एम. ए.)

सविता का वरण और सत्यनारायण का व्रत एक ही तत्व का द्विधा वर्णन है। इस रहस्य को कतिपय सुविज्ञ जन ही जानते हैं। सत्यनारायण व्रत करने तथा कथा सुनने का प्रचार आसिन्धु हिमाचल सम्पूर्ण भारत में हैं। यह एक महान् व्रत है। स्वयं भगवान भक्त नारद जी को योगस्थ अवस्था में यह रहस्य बताते हैं “सत्यनारायण स्यवं व्रतं सम्यक् विधानतः, कृत्वा सद्यः सुखं भुक्त्वा परत्र मोक्षमाप्नुयात्” सम्यक् विधान से करने पर यह व्रत भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान कर देता है। इसके पालन से मानव मोह से मुक्त हो परमानन्द प्राप्त कर लेता है उसके अखिल दुःख नष्ट हो जाते हैं।

इस व्रत का अर्वाचीन प्रचलित रूप तो केवल रुढ़ियत्ता मात्र ही प्रतीत होता है आज कल सम्यक् विधान पूर्वक यह व्रत नहीं किया जाता। इस व्रत का मौलिक स्वरूप समझने के लिये प्रथम श्री सत्यनारायण का श्री स्वरूप जानना परमावश्यक है।

सत्यनारायण दो शब्दों का यौगिक है। “यदस्ति त्रिषु कालेषु न बाधते सत् सद् ब्रह्म” जो सत्ता तीनों कालों में एक रस अबाध अखण्ड हो वह सत्य है। जीव और प्रकृति भी अनादि अनन्त होने से सत्य कहलाते हैं; किन्तु ये निर्विकार नहीं, प्रकृति सनातन सत्य होते हुए भी परिवर्तन शील है, ईश्वरीय नियमों में आबद्ध है स्वतंत्र नहीं अतः अनुपास्य है। जीव भी “अजोनित्यं शाश्वतोऽयं” अनादि सत्य है किन्तु यह अल्पज्ञ, अणु; अल्पशक्ति है। इनके अतिरिक्त जो परम सूक्ष्म तत्व नारायण हैं वे ही उपास्य हैं क्योंकि वे पूर्ण सत्य हैं, सर्व तंत्र स्वतंत्र हैं, परमसूक्ष्मता के कारण प्रकृति और जीव दोनों में व्यापक हैं अतएव सर्व प्रेरक और सर्व नियामक, सर्वाधार हैं। अल्पज्ञ अणु जीव उन सर्वज्ञ ‘महतो महीयान’ सच्चिदानन्द से ही कुछ प्राप्त कर सकता है। जड़ प्रकृति से तो जड़ता ही प्राप्त होगी।

बहिर्मुख इन्द्रियों के विषय मनुष्य को बलात् प्रकृति की भुवन मोहनी रूप सज्जा में आसक्त कर देते हैं। प्राकृतिक विषयों का मोह ही समस्त दुःखों का कारण है। मानसकार कहते हैं “मोह सकल संसृति कर मूला” गीताकार भी यही कहते हैं।

“ध्यायते विषयान् पुँसान् संगस्ततेषूपजायते।

संगात् संजायते कामः कामात् क्रोधो ऽभिजायते॥

क्रोधात् भवति संमोहः संमोहात् स्मृति विभ्रमः।

स्मृति भ्रंशात् बुद्धिनाशे बुद्धि नाशात् प्रणश्यति॥

विषयों के ध्यान से मानव उनमें आसक्त हो जाता है यह आसक्ति ही मोह है यही विनाश का कारण है। विषयासक्ति में मनुष्य इतना लीन हो जाता है कि वह भोक्ता है पर भोग्य बन जाता है। कर्त्ता है पर कर्म, दृष्टा होकर भी दृश्य बन जाता है। इस निविड़ अन्धकार में वह आत्मस्वरूप को भूल जाता है। इस अधोगति से वह स्वयं को सँभाल नहीं सकता।

श्री सत्यनारायण का व्रत एवं गायत्री मन्त्र एक स्वर से यही सन्देश दे रहे हैं कि इस मोहान्धकार को त्याग कर परम ज्योति का साक्षात् करो, प्रकृति के मोहनी रूप से ऊपर उठ कर सत्यनारायण सविता देव का वरण करो।

वेद उपनिषद्, और गीता प्रभृति सभी मुहुर्मुहुः यही सन्देश देते हैं कि प्रकृति की जड़ता से परे परम चेतन सत्य को प्राप्त करो।

“उद्वयं तमसस्परिस्वः पश्यन्त उत्तरं, देवं देवत्रा सूर्य भगन्य ज्योतिरुत्तमम्” “तमस् की सीमा से परे आनन्दमय सविता की मंगल ज्योति का साक्षात् करो”

“असतो मा सत गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय।”

असत् से परे सत् की ओर चलो, अज्ञानाँधकार से परे ज्ञान मय निर्मल ज्योति की ओर चलो, जीवन मरण की आवागमनमयी चक्री से निकल कर अमरता की ओर चलो। परमानन्द को प्राप्त करो।

वेदमाता गायत्री का भी यही संदेश है—कि वही सच्चिदानन्द (भूर्भुवः स्वः) सर्वप्रेरक (सविता) वरण करने योग्य है उपास्य है उसी के लिए आत्म समर्पण कर दो।”

वैदिक साहित्य में तमस, अंधकार, अज्ञान, अविद्या माया, विमर्श, प्रकृति प्रधान, अन्यक्त , विकुण्ठा शक्ति त्रिपुरसुन्दरी वाक् आदि प्रकृति के ही वाचक पर्याय शब्द हैं। इधर सत्य, नारायण, सविता, पुरुष, परमपुरुष, परमात्मा, सत्, ज्ञान, सच्चिदानन्द, ज्योति प्रकाश ब्रह्म, सूर्य आदि नारायण के समानार्थी हैं। जो प्रकृति से परे परम सूक्ष्मतत्त्व के वाचक हैं।

बृहदारण्यक् उपनिषद् में ‘सत्यं, शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार भी बताई गई है स—जीव, ति-प्रकृति यम् शासक नियामक अर्थात् जो सत्ता जीव और प्रकृति दो पर शासन करती है दोनों का नियमन करती है वही ‘सत्य’ है।

‘नारायण’ शब्द भी जीव और प्रकृति में व्यापक सर्व नियन्ता का ही बोध कराता है।

“आपो नारा इति प्रोक्ता, आपो नर सूनवः”

आपः सर्वत्र विस्तृत प्रकृति है, इस प्रकृति में तथा जीव में निवास करने वाला नारायण है।

सत्यनारायण और सविता तत्वतः एक ही हैं। सविता उस उत्पादिका सत्ता का नाम है जो सर्वव्यापक होकर सब में ‘प्रेरणा’ करती है जो जड़ान्धकार से परे निर्मल ज्योति स्वरूप है। प्रसविता होने से सारी सृष्टि उन्हीं के ज्ञान का परिणाम है।

प्राचीन वेदमंत्र भाष्यकारों ने भूर्भुवः स्वः तीनों महाव्याहृतियाँ का अर्थ क्रमशः सत्-चित्-आनन्द किया है। भू का अर्थ सत् है, सत्य। भुवः चित् एवं स्वः आनन्द से चिदानन्द भाव निकलता है जो नारायण का वाचक है इस प्रकार भूर्भुवः स्वः सच्चिदानन्द सत्यनारायण के वाचक शब्द हैं।

भू का सत्तात्मक अर्थ सर्वमान्य है उसी की सत्ता से अखिल ब्रह्माण्ड ठहरा हुआ है जिस प्रकार भूमि उत्पादिका है उसी प्रकार वह शक्ति भी उत्पादिका है प्रसवित्री है जननी है।

संध्या के मन्त्रों में ‘भू’ का सम्बन्ध मस्तिष्क से स्थापित किया है “भू पुनातु शिरसि” वह ईश्वर सविता अपनी सर्वश्रेष्ठ भू विभूति से मेरे शिर को पवित्र करे। पुनः इसी प्रकार में कहा “सत्यं पुनातु पुनः शिरसि” पुनः सत्यं विभूति से मेरे शिर को पवित्र करे। इससे स्पष्ट है कि भू और सत्यं का भाव एक ही है। गायत्री मन्त्र में सात में से तीन ही व्याहृतियों का प्रयोग किया जाता है शेष चार को इन तीन में ही अन्तर्निहित मान लिया है ‘सत्य’ भू व्याहृति में निहित है जैसा उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है।

गायत्री मंत्र का देवता ‘सविता’ है इसका भावार्थ ऊपर दिया जा चुका है। सारी ही व्याहृतियाँ सविता की आत्मरूपा हैं। ॐ भू शीर्ष स्थानीय व्याहृति से इसका सर्वाधिक सम्बन्ध प्रतीत होता है शीर्ष स्थानीय होने से भू प्रेरणाशक्ति भी है जो सविता का अर्थ है। अतः भू सत्य और सविता एक ही अर्थबोधक हैं।

‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ पद में सविता का दर्शक तत् शब्द आया है जो उसकी सूक्ष्मता, अभौतिकता, सर्वव्यापकता और अगोचरता का प्रतीत है। वह जो वां मनसातीत सविता शक्ति है उसके लिए उपनिषदों ने अन्यत्र कहा है “तत्सत्ये प्रतिष्ठतं” वह सत्य में प्रतिष्ठित है। इसीलिए महात्मा गाँधी सत्य को परमेश्वर का श्रेष्ठ नाम मानते थे।

‘भर्गो देवस्य धीमा हे’ उस ज्योतिर्मय पापनाशक सविता के दिव्य तेज को ही धारण करें क्योंकि “सत्यं वै धर्मः” वह सत्य ही धर्म है धारणीय तत्व है ‘असतो मा सत गमय’ उसी की ओर चलना है। ‘सत्यमेव जयते’ उसी की विजय होती है।

वह सविता या सत्यनारायण ही वरेण्यं है वरण करने योग्य है। व्रत लेना और वरण करना एक ही चीज है। पत्नी पति को वरण करने से ही पतिव्रता कहलाती है।


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