स्वर्ग कहाँ है और कैसा है?

June 1959

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री गिरिजा सहाय व्यास)

हिन्दू शास्त्रों में स्वर्ग का नाम अगणित स्थानों पर आया है। हिन्दुओं के पूजनीय देवता स्वर्ग में है, बृहस्पति देवों के गुरु हैं, शंकर जी के पुत्र स्कन्द सेना पति हैं, कुबेर कोषाध्यक्ष हैं आदि-आदि। वर्तमान समय में भी सौ में से 90 हिन्दुओं का यह विश्वास है कि ऊपर आकाश में कहीं स्वर्गलोक अवश्य मौजूद है, जहाँ पुण्यात्मा लोग मरने के बाद जाते हैं। स्वर्ग-प्राप्ति के लालच से ही बहुसंख्यक व्यक्ति मन्दिर, शिवालय, कुआँ, तालाब, धर्मशाला आदि बनवाया करते हैं, गरीबों को पैसे बाँटते हैं, गौओं को घास खिलाने, बन्दरों को चने डालते हैं, पूजा, पाठ, जप, तप, तीर्थयात्रा आदि करते हैं। साराँश यह है कि वर्तमान हिन्दू समाज में “स्वर्ग” एक बड़ी “प्रेरक” शक्ति है, जिसके प्रभाव से लोग अनेक प्रकार के समाजोपयोगी और परोपकार के कार्य करते रहते हैं।

पर हम यह भी जानते हैं कि स्वर्ग-सम्बन्धी उपर्युक्त विश्वास प्रधानतः अनपढ़ और कम पढ़े लोगों में पाया जाता है। कुछ अधिक शिक्षा-प्राप्त लोग मुँह से स्वर्ग की बात अवश्य कहते हैं। पर उनको इस बात पर दृढ़ विश्वास नहीं होता कि वास्तव में आकाश में ऊपर स्वर्ग और नीचे नर्क लोक इसी प्रकार बसे हैं जैसे हम अपनी इस पृथ्वी को देख रहे हैं। वे कहते हैं कि ‘स्वर्ग-नर्क और कहीं नहीं’ इसी पृथ्वी पर मौजूद हैं और जो व्यक्ति जैसे कर्म करता है उसका स्वर्गीय या नारकीय फल उसे यहीं प्राप्त हो जाता है। इनके अतिरिक्त हिन्दुओं में ही जो एक श्रेणी आध्यात्मवादियों और वेदाँतियों की है और जिसमें प्रायः ऊँचे दर्जे के विद्वान पाये जाते हैं, वे ऐसे स्वर्ग में बिलकुल विश्वास नहीं करते। उनके मतानुसार मनुष्य इसी लोक में इच्छानुसार आत्मोन्नति करके परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त कर सकता है।

इस प्रकार स्वर्ग के विषय में लोगों में अनेक प्रकार के विचार और कल्पनायें प्रचलित हैं। यद्यपि हिन्दुओं के पुराण स्वर्ग की कथाओं से ही भरे-पड़े हैं, पर अब आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से शिक्षित लोगों का विश्वास उनमें बहुत ही कम रह गया है। नई रोशनी के व्यक्ति तो इन बातों को अधिकाँश कल्पित ही मानते हैं।

पर अब थोड़े वर्षों से एक नई विचारधारा का जन्म हुआ है। इसके अनुयायी हिन्दू शास्त्रों और पुराणों की बातों को कपोल कल्पित तो नहीं बतलाते हैं पर वे कहते हैं कि ये वर्णन-रूपक और अलंकारों के द्वारा बहुत बढ़ा-चढ़ा कर किये गये हैं जिससे वास्तविक बातों को न समझ कर लोगों में तरह-2 के भ्रम उत्पन्न हो गये हैं। ऐसे लोगों में सर्व प्रधान थियोसोफिकल समाज का नाम लिया जा सकता है। इन लोगों ने हिन्दू धर्म के सभी सिद्धाँतों की नवीन ढंग से खोज की है और उनके वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डाला है। क्योंकि ये लोग अधिकाँश में विदेशों के निवासी और उच्चकोटि के विद्वान, प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, इसलिए उन्होंने जो कुछ कहा है उसके बुद्धि संगत और विज्ञान के अनुकूल होने का भी ध्यान रखा है।

इन विद्वानों के मतानुसार स्वर्ग लोक ही नहीं पुराणों में बतलाये सातों लोक अवश्य हैं, पर जैसा समझा जाता है वे हमसे बहुत दूर या सर्वथा पृथक नहीं हैं। उनका कहना है कि ये सब लोक हमारे इर्द-गिर्द ही मौजूद हैं, पर उनमें से प्रत्येक की बनावट भिन्न प्रकार के परमाणुओं की है जिसका हमको न तो ज्ञान है और न हम उन्हें अनुभव कर सकते हैं।

जब यह कहा जाता है कि एक मनुष्य एक लोक से दूसरे लोक को गया तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान को चला गया। इसका अर्थ यही है कि उसने अपनी चेतना को दूसरे लोक की ओर बदल दिया। प्रत्येक मनुष्य में सात में से नीचे के पाँच लोकों की प्रकृति भरी है और उनकी प्रकृतियों से बने कोश भी उसमें रहते हैं, जिनके द्वारा वह उन लोकों में वैसी शिक्षा पाने पर क्रिया कर सकता है। इसलिये “एक लोक से दूसरे लोक में जाने” का अर्थ अपने को एक कोष से हटाकर दूसरे कोष में स्थिर करने का है। जैसे स्थूल शरीर से चेतना खींचकर लिंग शरीर में स्थिर करने से भुवर्लोक का सब ज्ञान मिलने लगेगा, और मनोमय कोष स्थिर करने से मनो लोक का भाव होने लगेगा। प्रत्येक शरीर अपने ही लोक के कर्मों को ग्रहण कर सकता है। इसलिए उसे उसी लोक का ज्ञान होना संभव होता है। इस प्रकार यदि चेतना लिंग शरीर में स्थिर है तो उसे केवल भुवर्लोक का ही ज्ञान होगा। जब चेतना स्थूल इन्द्रियों द्वारा कार्य करती है तो उसे केवल भूर्लोक का ही ज्ञान होता है, यद्यपि ये सभी लोक हमारे आस-पास एक की स्थान में और एक ही काल में वर्तमान हैं। वास्तव में इन सब लोकों को मिलने से एक बड़ा विराट रूप होता है जिसके बहुत ही थोड़े भाग को हम लोग एक बार में देख सकते हैं, क्योंकि हमारी शक्ति वहीं तक सीमित है।

मनुष्य जाति को इस समय जिन पाँच खण्डों या लोकों से सम्बन्ध है वे ये हैं—भूः या स्थूललोक, भुवः या एस्थूल, मनोलोक, बुद्धिलोक , और निर्वाण या काललोक। मनुष्य योनि के आरम्भ की अवस्था को छोड़कर बाकी समय में मनुष्य अपना विशेष काल इस “मनलोक” में ही खर्च करता है। क्योंकि जंगली लोगों को छोड़कर दूसरे मनुष्यों को स्वर्ग में रहने की अवधि पृथ्वी के जीवन काल की अपेक्षा प्रायः बीस गुनी होती है। अर्थात् साधारण सद्गृहस्थ वहाँ 600 से 1000 वर्ष तक रहते हैं और विशेष पुण्यात्मा तथा परोपकारी इससे कहीं अधिक समय तक रहते हैं। उसके पश्चात् वे फिर पृथ्वी पर ही जन्म लेते हैं। इस तरह जीवों का सच्चा और पक्का घर पृथ्वी की अपेक्षा यह मनोलोक ही है। पृथ्वीलोक में जन्म धारण करके आना यह उस जीव के जीवन में छोटी परन्तु मुख्य घटना है। इसलिये हम स्थूल शरीर धारियों को उस लोक का हाल समझने के लिए प्रयत्न करना एक दृष्टि से अति आवश्यक है।

दुर्भाग्य से उस मनोलोक का वर्णन इस भूलोक की भाषा में अच्छी तरह हो ही नहीं सकता। वहाँ की प्रकृति यहाँ की प्रकृति की अपेक्षा इतनी सूक्ष्म (बारीक) है और यहाँ की चेतना (ज्ञान) की अपेक्षा वहाँ की चेतना इतनी अधिक बड़ी तथा भिन्न प्रकार की है कि वहाँ का वर्णन यहाँ की भाषा में कर सकना प्रायः असंभव ही है। उदाहरण के लिये मनोलोक में देश और काल का भान ही नहीं होता। जो बातें यहाँ से दूर के स्थानों में और एक के बाद एक होती हैं वे उस लोक में एक साथ और एक ही स्थान पर होती दिखलाई देती हैं। इसका कारण कुछ भी हो पर वहाँ रहने वाले जीवों को ऐसा ही भान होता है। वहाँ की अवस्था का वर्णन एक महापुरुष ने जो योग-शक्ति द्वारा उस स्थान को देख सकते थे, इस प्रकार किया है।

“स्वर्ग के जीवन के विषय में विचार करते हुये हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि वह बड़े गाढ़े सुख का धाम है। स्वर्ग में सब प्रकार के दुःख और बुराइयाँ छूट जाती हैं और प्रत्येक जीव वहाँ पूर्ण रूप से सुखी रहता है। प्रत्येक जीव वहाँ पहुँचने के कारण उतना आत्मानन्द भोग करता है, जितनी भोगने की उसकी शक्ति होती है।

इस लोक में प्रथम बार कुछ कुछ ज्ञान इस बात का होता है कि ईश्वर किस प्रकार का होगा और वह हमें किस प्रकार का बनाना चाहता है। संसारी मनुष्य को जो सुख के विचार हैं वे यहाँ की ज्ञानदृष्टि में बहुत निरर्थक मालूम होते हैं। यहाँ यह देख पड़ता है कि ये विचार ठीक नहीं है और इनसे सुख प्राप्त नहीं हो सकता। इस लोक में कवियों के विचारों से भी बढ़कर सत्य और सुन्दरता पाई जाती है।

इस लोक में आने वाले को इसका प्रथम लक्षण यह देख पड़ता है कि यहाँ किसी प्रकार का दुःख और विकार तो है ही नहीं, वरन् यहाँ सर्व व्यापक सुख के भोग में लोग मग्न रहते हैं। वह सुख अपना प्रभाव सब के ऊपर अवश्य फैलाता है और जब तक जीव स्वर्ग-वास करता है तब तक उसे छोड़ता नहीं इस लोक में रहने से ही यह आनन्द उत्पन्न होता है। बाकी सब जीवों की पूर्ण खुशी से इसे भी खुशी बनी रहती है। पृथ्वी में ऐसी कोई अवस्था या वस्तु नहीं जिससे उसकी उपमा दी जा सके।

इस मनोलोक की प्रकृति के अणु, परमाणुओं में कम्पन बहुत शीघ्रता से होते हैं। यद्यपि हम सिद्धान्त रूप से यह जानते हैं कि हमारी पृथ्वी के पदार्थ के कारण भी सदैव कामयुक्त रहते हैं, चाहे वे देखने में कैसे भी ठोस जान पड़ते हों इसके बाद जब हमको भुवर्लोक का अनुभव हो जाता है तो यह कम्पन स्पष्ट दिखलाई पड़ने लगते हैं और उनके द्वारा ऐसी-ऐसी चमत्कार-युक्त बातों की सम्भावना जान पड़ती है जिनकी भूलोक में हम कल्पना भी नहीं कर सकते। जब भुवर्लोक की ऐसी स्थिति है तो मनोलोग (स्वर्ग) की क्या स्थिति होगी इसको शब्द किस प्रकार प्रकट कर सकते हैं। यहाँ के अणुओं के कम्पनों से वहाँ के अणुओं का कम्पन करोड़ों गुना अधिक हैं, इसलिये यहाँ की और वहाँ की अवस्था में भी वैसा ही अन्तर हैं।”

इस प्रकार जो लोग समझते हैं कि स्वर्ग में पृथ्वी से बढ़ कर भोग विलास की सामग्री मिलती है, वे बड़ी गलती में हैं। यह सत्य है कि वहाँ का जीवन यहाँ के जीवन से करोड़ों गुना आनन्द पूर्ण है पर वह इन्द्रिय तुष्टि का तुच्छ आनन्द नहीं है, वरन् आत्मानन्द है। पृथ्वी के भोग विलास का अन्त तो थोड़े या बहुत समय बाद ही प्रायः ग्लानि में होता है, पर आत्मानन्द निरन्तर बढ़ता ही जाता है क्योंकि स्वर्ग से ऊपर कई लोक हैं जिनमें जीव उन्नति करके जा सकता है। इन सब लोकों के जीवों की ज्ञान राशि तथा शक्ति असीम है, पर उनका लक्ष्य सदैव परसेवा और प्रेम करना ही होता है। पृथ्वी पर भी इन गुणों को हम अपने भीतर अधिक से अधिक बढ़ा सकते हैं और जब हम वैसा करेंगे तभी हमको स्वर्गीय जीवन का कुछ भान होना संभव है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118