हमारी महान किन्तु सरल परमार्थ साधना

June 1959

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आत्म कल्याण का व्रत धारण करने के पश्चात् यह स्मरण निरन्तर बना रहना स्वाभाविक है कि हमें शरीर यात्रा संबंधी साँसारिक कर्तव्यों का पालन करने के समान ही आत्मा की हित साधना करने का भी ध्यान रखना है और आत्म कल्याण को भी अपना स्वार्थ एवं लाभ उसी तरह मानना है जैसे व्यापार, आहार, स्नान, शयन आदि को आवश्यक मानते हैं। यह निष्ठा मनःक्षेत्र में जमते ही हमारे जीवन क्रम में आश्चर्य जनक परिवर्तन दिखाई पड़ने लगता है। व्रत धारण की महिमा प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने लगती है। तब यह पता चलता है कि व्रत धारण यों कहने और सुनने में बहुत हलकी सी बात थी, पर उसके पीछे कितना ठोस आधार मौजूद था।

आत्म कल्याण के लिए आत्म निर्माण के लिए जिस प्रकार उपासना, आत्म चिन्तन और गुण कर्म स्वभाव का लेखा जोखा रखना आवश्यक है उसी प्रकार यह भी आवश्यक है कि दैनिक जीवन में—परमार्थ के लिए-परोपकार के लिए-लोक सेवा के लिए नित्य ही कुछ नियमित समय और श्रम लगाया जाता रहे। यह भी भजन का ही एक भाग है। सेवा के बिना भजन पूरा नहीं होता। भजन शब्द संस्कृत की ‘भज्-सेवयाँ’ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है सेवा। उपासना, जप, ध्यान पूजन अर्चन की भाँति ही सेवा भी प्रत्येक भजन में आस्था रखने वाले धर्म प्रेमी के लिए आवश्यक है।

जो जप तो खूब करता है पर परमार्थ से लोक सेवा से उदासीन है, उसे व्यर्थ मानता है, ऐसे व्यक्ति को अधकचरा अध्यात्मवादी ही कह सकते हैं प्राचीन काल में जितने भी ऋषि मुनि हुए हैं उनसे साधना से जप तप से लोक सेवा को रत्ती भर भी कम महत्व नहीं दिया है। उनके जीवन क्रम पर गंभीर दृष्टि डालते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वे जितना समय जप तप में लगाते थे, उससे कई गुना समय जन कल्याण की सेवा मय प्रवृत्तियों में भी लगाते थे। सेवा विहीन भजन निश्चय ही अपूर्ण है। अपूर्ण प्रयत्न का फल भी अपूर्ण ही रह जाता है।

परोपकार में आजकल वे कार्य गिने जाते हैं जो आँखों से प्रत्यक्ष दिखाई दें। जैसे मन्दिर धर्मशाला बनवाना, गौशाला बनाना सदावर्त बाँटना, प्याऊ, लगाना, ब्राह्मण भोजन कराना, कथा कीर्तन चिड़ियों का दाना डालना आदि। यह कार्य हर एक को होते दिखाई पड़ते हैं, जिससे करने वाला और देखने वाला दोनों ही अपनी आँखों से अपनी कृति को देख लेते हैं और प्रशंसा प्रसन्नता तथा सन्तोष का अनुभव कर लेते हैं। यह कार्य उत्तम हैं। पर हलके दर्जे के हैं, उनके परिणाम भी हलके ही हैं। कुछ देर के लिए कुछ जीवों को इन कार्यों में सुविधा मिलती है। इतना ही इनका लाभ है। पर इनसे किसी के जीवन की समस्यायें नहीं सुलझतीं। वे कार्य महान पुण्य माने गये हैं जिनसे किसी की समस्याएं सुलझती हैं। ऐसा कार्य विचारदान, ज्ञान-दान ही हो सकता है जो लोगों के दृष्टिकोण को बदल कर उन्हें हीन दशा से उच्च स्थिति में पहुँचा दे। सद्विचार के अभाव में ही संसार में तीन चौथाई दुःख हैं। यदि यह कमी पूरी हो जाय तो स्वल्प साधन होते हुए भी मनुष्य स्वर्गीय सुख शान्ति का रसास्वादन कर सकता है। उसके सामने उपस्थित पहाड़ जैसी कठिन समस्याएं तिनके के समान हलकी हो सकती हैं।

धन से संभव सत्कार्यों की अपेक्षा पसीना बहाकर श्रमदान द्वारा किये जाने वाले शुभ कर्मों का महत्व अधिक है। उनमें भी श्रेष्ठ वे कर्म हैं जो विचारों द्वारा किये जाते हैं। ज्ञान दान, विद्या दान, एवं धर्मोपदेश को संसार का सर्व प्रधान सत्कर्म माना गया है। इसे करने के कारण ही ब्राह्मण को समाज में सर्वोपरि सम्मान दिया गया है।

यों सद्विचारों की सदा ही मनुष्य को आवश्यकता रहती है। इसके बिना किसी भी युग में बालकों का स्वस्थ विकास और युवाओं का नियंत्रण एवं वृद्धों को सेवा मार्ग में लगना संभव नहीं होता। यह तो शाश्वत आवश्यकता हुई। आज की स्थिति में तो चारों ओर अनैतिकता का साम्राज्य छाया हुआ है और दुष्प्रवृत्तियाँ इतने विकराल रूप में ताण्डव नृत्य कर रही हैं कि यदि स्थिति में हेर फेर न हुआ तो मनुष्य जाति को सामूहिक आत्म-घात करना पड़ेगा। द्वापर के यदुवंशियों की तरह सारी दुनिया आपस में ही लड़ मर कर समाप्त हो जायगी। यह दुष्प्रवृत्तियाँ हर व्यक्ति के अन्तःकरण को-हर घर को-नरक बनाये हुए हैं। सामाजिक सुव्यवस्था की मर्यादाएं टूटती जा रही हैं। इन परिस्थितियों में भौतिक सुख साधन कितने ही क्यों न बढ़ा लिए जाय। सुख शान्ति की दिशा में रत्ती भर भी प्रगति संभव न होगी।

इन परिस्थितियों में हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सेवा कार्य यही हो सकता है कि—धार्मिक वातावरण पैदा करने के लिए पूरी शक्ति से लगें। इस वातावरण को उत्पन्न करके दृष्टता को सज्जनता में परिणत किया जा सकता है। अनीति और अन्याय पाप और पशुता की उत्पीड़ा से कराहती हुई मानवता को सन्तोष की साँस लेने का अवसर मिल सकता है।

गायत्री संस्था के सम्मुख नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान की जो विशाल योजना है। उसका एक मात्र उद्देश्य लोगों के अन्तः प्रदेश में धार्मिक आदर्शों की प्रतिष्ठापना कराके जन साधारण को कर्तव्य परायण सदाचारी एवं समाज सेवी सभ्य नागरिक बनाना है। जीवन के प्रत्येक पहलू को सन्मार्ग के पथ पर विकसित करने की इस योजना के अंतर्गत पूरी-पूरी चेष्टा की जायगी। पर अभी हाल में—आन्दोलन के प्रारम्भ काल में—कुछ सरल कार्यक्रम उसी प्रकार हाथ में लिये गये हैं जिस प्रकार परीक्षा के समय विद्यार्थी सबसे पहले उन्हीं प्रश्नों को हल करता है जो उसे अधिक सरल दीखते हैं। इस संस्था में भी अभी 20 कार्यक्रम हाल में लिए हैं 10 रचनात्मक 10 निषेधात्मक।

रचनात्मक यह है—(1) सेवा भावना (2) सामूहिकता (3) मितव्ययिता (4) स्वच्छता (5) सादगी (6) शिष्टाचार (7) समता (8) स्वास्थ्य संवर्धन (9) स्वाध्याय (10) आस्तिकता। इन दस प्रवृत्तियों को लोगों के भावना क्षेत्र में उतारने के लिए समझना, इन्हें चरितार्थ करने के लिए हर व्यक्ति की स्थिति के अनुसार कार्यक्रम देना तथा इनके प्रतिकूल जो आदतें पड़ गई हों उन्हें सुधारना।

निषेधात्मक यह है—(1) माँसाहार (2) नशेबाजी (3) शारीरिक और मानसिक व्यभिचार, अश्लीलता (4) जुआ-चोरी (5) आलस्य (6) अन्ध विश्वास (7) भ्रष्टाचार (8) दहेज अनमेल विवाह (9) मृतक भोज (10) पशु-पीड़न। यह बुराइयाँ हमारे सामाजिक जीवन को बुरी तरह अस्त व्यस्त किये देर ही हैं। इनके दुष्परिणामों में से जन साधारण को परिचित कराना इनके प्रति घृणा उत्पन्न कराना और इन्हें छोड़ने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना।

व्रत धारी के परमार्थ कार्यक्रम में इन 10 रचनात्मक और 10 निषेधात्मक कार्यों का समावेश रहेगा। इन बातों का महत्व उसे स्वयं समझना है और अपने 7 धर्म साथियों को समझाना है। इस संस्था में प्रकाशित होने वाले चारों अंक प्रति सप्ताह इस शिक्षण की पर्याप्त सामग्री लेकर व्रतधारी के घर उपस्थित हुआ करेंगे। इनको पूरे ध्यान के साथ स्वयं पढ़ना और अपने धर्म साथियों को पढ़ने में प्रवृत्त करना उसका आवश्यक कार्य होगा।

यह चिन्ता करने की जरूरत नहीं कि—”हमारा कार्यक्षेत्र सीमित है। इतने बड़े समाज सुधार के कार्य तो कोई नेता, प्रचारक या फालतू समय वाले लोग कर सकते हैं। हमारे पास जब अपने निज के कार्य के लायक भी समय नहीं हो तो अन्यान्य लोगों को समझाते बुझाते फिरना या किसी की मर्जी के विरुद्ध उसे कहने पर व्यर्थ का झगड़ा मोल लेने का कार्य हमसे न हो सकेगा। हम इस झंझट में क्यों पड़ें।”

वस्तुतः कठिनाई वैसी नहीं है जैसी समझी जा रही है। हमारे पास ठोस विचार हों, और इन्हें रुचि पूर्वक सुनने समझने मात्र के लिए यदि कुछ लोगों को तैयार किया जा सके तो निश्चय ही उनके विचारों में परिवर्तन होगा। विचार बदलने के साथ साथ कामों में भी हेर फेर अवश्य होता है। एक छोटा सा संगठित गुट यदि एक प्रकार के विचारों से प्रभावित दीखता है तो देखा-देखी और भी अनेक लोग उस प्रवाह में बहते हैं। एक को देखकर दूसरे का प्रभावित होना यही दुनिया की चाल है। अनिच्छा होते हुए भी देखा देखी के कारण यदि हानिकारक बातों को अपनाये रहने को विवश होते हैं तो अच्छे अनुकरणीय, विवेक संगत तथ्यों से लोग प्रभावित न हों ऐसा नहीं हो सकता। जमाने को बदलना एक आदमी के लिए कठिन हो सकता है, पर जनशक्ति की चण्डी जिस ओर मुड़ जाय उसी ओर लोक मानस का मुड़ जाना सहज है।

युग निर्माण की योजना काफी कठिन और बड़ी मालूम देती है, पर यदि अपना व्रतधारी परिवार इसके लिए कृत संकल्प हो जाय तो यह पूर्ण निश्चय है कि कुछ ही दिनों में वातावरण बदलने में आश्चर्य जनक सफलता मिल सकती है। गायत्री मंत्र ब्राह्मण के अतिरिक्त दूसरे न पढ़ें, यज्ञ में स्त्रियों न बैठें, इन दो बातों का संकीर्णतावादी लोग आज से तीन चार वर्ष पूर्व ही घोर विरोध करते थे। लड़ाई झगड़े तक पर आमादा होते थे। पर इन थोड़े ही दिनों से इस संस्था के प्रयत्न ने वातावरण बदल दिया। अब इस प्रकार का विरोध करने वालों की संख्या पाँच प्रतिशत भी नहीं रही है। विरोधी भी समर्थक बन गये हैं। देखा देखी में बहुत काम होता है, वातावरण बदलता है और युग पलट जाते हैं।

परमार्थ का सबसे बड़ा सेवा कार्य व्रतधारी को यही सोचा गया है कि वह फिलहाल उपरोक्त 20 कार्यक्रमों का और आगे चलना धार्मिकता की बहुमुखी प्रवृत्तियों को सुविस्तृत करने के लिए अपनी मनोभूमि तथा आदत तैयार करे साथ ही जितने अधिक लोगों तक इन विचारों को पहुँचा सके जितने अधिक लोगों को इस प्रभाव से प्रभावित कर सके उसके लिए प्रयत्न करे। आरंभ में सात धर्म साथी बनाने की बात रखी गई है पर पीछे तो यह संख्या अनेक गुनी बढ़ाई जानी चाहिए—स्वयं ही बढ़ेगी।

हर मनुष्य का बीसियों पचासों आदमियों से संबंध रहता है। व्यापार, नौकरी, या जो भी कार्य क्षेत्र अपना हो इससे संबंधित अनेकों लोगों से मिलना जुलना होता ही रहता है। इनमें से उन लोगों को पहले छाँटना चाहिए जिनमें थोड़ी विचारशीलता और सज्जनता दिखाई पड़ती हो। अन्य वार्तालाप के साथ साथ यदि उस व्यक्ति के उपयुक्त कुछ विचार मौखिक रूप से या अपने अंक एवं पुस्तिकाएं पढ़ने देकर धर्म प्रचार कार्य आरंभ किया जा सकता है। झिझक और संकोच की कमजोरी जब दूर हो जाती है तो साधारण स्थिति के लोग भी अनेकों लोगों को प्रभावित कर सकने में सफल होते हैं। संस्थाओं के कार्य ऐसे ही पूरे होते हैं। लोग अपने कारोबार करते हुए थोड़ा सा ध्यान और समय यदि किसी सत्प्रवृत्ति को बढ़ाने में लगाते हैं तो वह निश्चय ही बढ़ती और फैलती है। काँग्रेस, आर्य समाज आदि के मिशन शिक्षित कामकाजी लोगों ने ही थोड़ा समय देकर आगे बढ़ा दिये हैं।


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