मानव-जीवन की महानता एवं उपयोगिता

June 1959

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(डॉ. चमनलाल गौतम)

उस सृष्टि निर्माता की सुन्दर कलाकृति सर्वत्र छिटक रही है। अणु से लेकर ब्रह्माण्ड तक में उसकी सुन्दर रचना निहित है। भगवद्भक्तों एवं योगियों को यही आन्तरिक सुन्दरता उन्हें परमानंद प्रदान करती है। मानव तो उसकी कलाकृति का सर्वोपरि नमूना है। मनुष्य जीवन में सुन्दरता एवं शोभा का भंडार भरा पड़ा है। यही नहीं इसका उद्देश्य भी पवित्र एवं महान् है। सर्वशक्तिमान ईश्वर की रचना पर ध्यान दें तो उसकी अद्भुत कलाकृति पर आश्चर्य चकित एवं मुग्ध हो जाना पड़ता है। मनुष्य की कारीगरी इसके समक्ष नगण्य सी है। भिन्न-2 अंगों की सुन्दरतापूर्ण रचना, उनका सन्तुलन, पृथक-2 क्रियाशीलता आदि कलाकार की मधुर कलाकारी के प्रतीक हैं।

हाथ का कार्य हाथ कर रहे हैं। ठीक उसी तरह कान, आँख, पैर, नाक, मुँह आदि अंग अपने पृथक्-पृथक् निर्दिष्ट कार्य करते रहते हैं। बुद्धि अपने कार्य में लीन हैं। शरीर के भीतरी अंग की सूक्ष्म निर्माण कला तो और भी महत्वपूर्ण है। इन सब पर विचार करते हुए हमारी जिज्ञासा होती है कि बुद्धि में जो प्रकाश है वह कहाँ से आया है? जिस प्रकाश को प्राप्त कर बुद्धि शरीर का एवं भिन्न-2 अंगों का संचालन एवं अनुशासन आदि करती है। यह प्रश्न हमें बहुत गहरे में उतार देता है। जिसके आस-पास योगी एवं भगवद्भक्त केन्द्रित होकर उस तत्व की जानकारी के लिए साधना करते रहते हैं।

इसका निर्णय करने के लिए हमें विशेष उलझनों में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। अपने साधारण अनुभव और जरा तीक्ष्ण बुद्धि से इसका निर्णय करना चाहिए। जो शक्ति समस्त ब्रह्माण्ड का संचालन करती है, वही पिण्ड का भी काम करती है। पिण्ड इस ब्रह्माँड की एक इकाई है। एक ही ईश्वरीय तत्व सर्वत्र एक रस व्याप्त होकर सब का संचालन एवं संरक्षण करता है। उसी प्रकाश से मानव बुद्धि प्रकाशित होती है और इस शरीर का संचालन करती है।

फिर भी क्या कारण है कि हम अपने को दीन, दुःखी विस्मृत सा खोया हुआ महसूस करते हैं? अधिकाँश का जीवन भारस्वरूप क्यों बना रहता है? उस महान् सत्ता का स्पर्श हम क्यों नहीं कर पाते? उस आनन्द के अखण्ड अमृत सागर में हम क्यों नहीं सराबोर होते? हम चेतना विहीन एवं जड़ से क्यों प्रतीत होते हैं?

ठीक इन्हीं प्रश्नों का उत्तर पाने एवं अपनी वास्तविक स्थिति में दृढ़ होने के लिए ही यह जीवन क्रम है। इस विस्मृति का एक कारण यह भी है कि हम रात दिन अपनी क्षुद्र बुद्धि से दुःख, चिन्ता, अवसाद, गरीबी, मृत्यु, कठिनाइयों, जरा, व्याधि आदि की बातें सोचते-सोचते एवं इनसे बचने के लिए लगातार प्रयत्न करते हुए इन्हीं में इतने तन्मय हो गये हैं कि मानव जीवन की शोभा अणु-अणु में व्याप्त परमात्मा का सौंदर्य हमारे दृष्टिपटल से हट सा गया है। इस विषय को हम भूलते जा रहे हैं। इतना ही नहीं हम जीवन का उद्देश्य इतना भूल गये हैं कि आश्चर्य करना पड़ता है कि आखिर हमारे जीवित रहने का क्या लक्ष्य है।

यह स्थिति ठीक वैसी है जैसे एक मनुष्य किसी गाँव को जा रहा हो। वह मार्ग में आई कठिनाइयों का निराकरण करने में लग जावे या मार्ग में आये बाग, बगीचे व मन बहलाने के साधनों से अपना मन बहलाने लग जाय और उनमें इतना लीन हो जाय कि वह अपने गन्तव्य स्थान की ओर बढ़ने का विचार ही न करे, यही स्थिति हमारी हो रही है।

उस सृष्टि निर्माता की कलाकृति, जीवन की शोभा को देखने के लिए, लक्ष्य तक पहुँचने के लिए यह आवश्यक है कि उस पथिक की भाँति मार्ग के सुख दुःखों को प्रधानता न देकर उन्हें सहन करते हुये अपने गन्तव्य स्थान की ओर चलते रहना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। साथ ही मार्ग के सुख दुखों के कारण देह बुद्धि को अपने विवेक एवं ज्ञान से समाप्त करना होगा। हमें यह समझना चाहिए कि हम शरीर नहीं हैं। हम मन एवं बुद्धि नहीं हैं प्रत्युत इनसे परे जो है—”वही” हम हैं। जिस आत्मा का सर्वत्र पसारा है वही तो हम हैं। क्योंकि ज्यों ही आत्मा इस शरीर को छोड़ती है तो बुद्धि का व्यापार खतम हो जाता है। शरीर भी अपनी क्रियाशीलता समाप्त कर देता है। केवल बचा रहता है पंच तत्वों का मिश्रण। जिसकी तुष्टि एवं पुष्टि में ही जीवन बिताया उस मृत शरीर की यह गति कि उसका स्पर्श भी लोग घृणित समझें। इस नश्वरता का अनुभव प्रायः हम करते ही रहते हैं। फिर भी हमारा ध्यान वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करने की ओर नहीं मुड़ता। आत्मा के वास्तविक स्वरूप की, सौंदर्य की, जीवन की महत्ता की जानकारी प्राप्त करने की हमारी इच्छा ही नहीं होती। यही कारण है कि हम वास्तविक ज्ञान से परे हैं, सच्चिदानन्द की आनन्द एवं सौंदर्य से पूर्ण सृष्टि को नारकीय रूप में अनुभव करते हैं, दुःख, अभाव, कठिनाइयों एवं विपदा से ही जीवन को दूषित बना रहे हैं। यह हमारी ही भूल है। उस सृष्टि निर्माता ने तो सब कुछ अपने युवराज की सुरक्षा, सुविधा एवं आनन्द का ही सामान जुटाया है। सर्व सुख एवं साधनों से यह बगीचा अपने युवराज के लिए उसकी पूर्ण कलाकारी का उदाहरण है।

आत्मा भिन्न-2 शरीर रूपी साधनों को लेकर अपने परम पिता परमात्मा की ओर बढ़ रही है। उससे मिलकर एक रूप हो जाने की धुन उसे तीव्र जीवनधारा के रूप में बहाये लिये जा रही है। एक शरीर क्षीण एवं जीर्ण हुआ तो उसे छोड़ दूसरे को धारण किया। इस तरह अनेकों शरीरों को छोड़ती धारण करती, अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रही है संसार की कोई चीज उसे लुभा नहीं सकती, उसकी पिपासा को शान्त नहीं कर सकती। वह तो अपने परम प्रभु परमात्मा से मिलकर ही शान्त एवं आनन्दित हो सकती है। मनुष्य अज्ञानवश अपने पवित्र पथ को भुलाकर शरीर सम्बन्धी सुख सुविधाओं को ही अपना लक्ष्य समझता है। जो असत है। शरीर के समाप्त होते ही उनका कोई अस्तित्व नहीं रह जाता।

ईश्वर का यह युवराज, अपने परमपिता का ही तो अंश है। यह अमृतपुत्र है। अमृत ही इसका भोजन है। यह पूर्णरूपेण अमृत से ही सराबोर है किन्तु भूल से, अज्ञान से, यह अमृत छोड़ विष का संचय कर रहा है। फलस्वरूप इसका जीवन दुःखी, अशाँत, हीन बन रहा है। जरा आधि-व्याधि, जन्म-मरण का दुःख, विपत्ति से उसका जीवन नारकीय बन रहा है। अपने आनन्द केन्द्र जीवन को दुःखों का केन्द्र बना रखा है।

मानव जीवन का वास्तविक उद्देश्य, प्रभु मिलन ही है। खाने-पीने मौज उड़ाने में इसका सही कल्याण निहित नहीं है। इस जीवन को धारण कर वह प्रभु मिलन के लिए ही अवतरित हुआ है। इस संसार का पसारा भी उसके इस पवित्र लक्ष्य की ओर अग्रसर होने में सहायता के रूप में ही है। इसको बन्धन का रूप मनुष्य स्वयं अपनी भूल एवं अज्ञान से ही देता है। यह व्यायाम शाला जो कि सर्व साधनों से सम्पन्न है हमारे ध्येयपथ में बढ़ने के लिये ही रची गई है। संसार के प्रलोभन एवं आकर्षण हमारी आध्यात्मिक दृढ़ता को परिपक्व बनाने के लिए ही हैं। कहीं ये वैभव, ऐश्वर्य भोगविलास आदि आकर्षण हमारे जीवन के केन्द्र न बन जायें। कहीं हमारे आत्म पथ से भटक कर हम इन्हें अपना लक्ष्य न बना लें। इसका ज्ञान एवं दृढ़ता आवश्यक है।

तैरना सीखना बिना किसी जलाशय अथवा नदी आदि के असम्भव है। इसी प्रकार इस संसार एवं इसके प्रलोभन आकर्षण हमें आध्यात्मिक मार्ग को तय करने के लिए तैरना सिखाते हैं। अपने आपको ध्येयपथ पर बढ़ाना भिन्न परिस्थितियों में स्वयं को परखना, जीवन में सूक्ष्म निरीक्षण करते रहना यह सब इस संसार की पाठशाला में सम्भव होता है। इसी कारणवश कई महात्मा जिन्होंने एकाँत में संसार के वातावरण से दूर रहकर ईश्वर प्राप्ति का प्रयत्न किया उनमें से कई असफल हुये। अप्सराओं द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कई कथायें भी प्रचलित हैं।

अपने आप पर अधिकार पाना आवश्यक है। इससे सारी परिस्थितियाँ स्वयं काबू में आ जाती हैं। आवश्यक साधन स्वतः चले आते हैं। अभाव नाम की कोई बात सृष्टि निर्माता की सृष्टि में नहीं है। केवल अभाव हमारे मनों में बसा हुआ है। जो हमारी मानसिक कमजोरी का परिणाम है।

पवित्र जीवन की महत्ता एवं उद्देश्य प्रेम और सेवा है। सर्वत्र प्रभु की स्थिति को ध्यान में रखकर प्राणी मात्र से शुद्ध आत्मीय प्रेम का सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये। सब प्राणियों में परमात्मा का पवित्र अंश स्थित समझकर उसी भाव से उनकी सेवा करना चाहिए। इस प्रेम और सेवापथ पर चलता हुआ व्यक्ति सच्चिदानन्द की अनुभूति प्राप्त कर सकता है। विशुद्ध आत्मीय प्रेम में फिर अपने पराये के भेद का कोई भी स्थान नहीं रहता। कोई वस्तु अपनी नहीं रह जाती। इसी लिए तो कहा है कि “सौ हाथों से कमा और हजार हाथों से दान कर”। सेवा के पवित्र अवसरों की खोज में लगे रहना चाहिये। सेवा प्रेम एवं सेवा ही मानव का भूषण है इसी से वह सुन्दर लगता है। इसी से अपनी मंजिल तय करता है। प्रभु से मिलन करता है।


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