कर्तव्य की महान जिम्मेदारी

June 1959

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(महात्मा गाँधी)

“मैं जिम्मेदार हूँ” “यह मेरा फर्ज है” यह विचार मनुष्य को हिला देता है और अचम्भे में डाल देता है। गैबी आवाज की प्रतिध्वनि सदा हमारे कान में पड़ा करती है—“मानव यह काम तेरा है, तुझे खुद हारना या जीतना है। तुझ जैसा तू ही है, क्योंकि प्रकृति ने दो समान वस्तुएँ कहीं बनाई ही नहीं। जो फर्ज तुझको अदा करना है वह तूने अदा न किया तो दुनिया के सालाना चिट्ठे में घाटा रहा ही करेगा”।

यह फर्ज जो मुझे अदा करना है क्या है? कोई कहेगा कि :—

आदम को खुदा मत कहो आदम खुदा नहीं। लेकिन खुदा के नूर से आदम जुदा नहीं॥

और कहेगा कि इस पद्य के अनुसार मुझे यह मानकर कि मैं खुदा का नूर हूँ चुपचाप बैठे रहना चाहिये। दूसरा आदमी कहेगा कि मुझे अपने आस-पास के लोगों के साथ हमदर्दी दिखाना भाईचारा रखना चाहिये। तीसरा कहेगा कि माँ-बाप की सेवा, बीबी-बच्चों का भरण-पोषण और भाई-बहिन मित्रों के साथ उचित व्यवहार करना चाहिये। पर इन सभी गुणों में मैं खुद अपने प्रति भी उसी रीति से व्यवहार करूं, यह मेरे समस्त कर्त्तव्य का अंग है। जब तक मैं अपने आप को न पहचानूँ तब तक दूसरे को कैसे पहिचान सकूँगा? और जब तक पहचानूँगा नहीं तब तक उनका सम्मान कैसे कर सकूँगा? बहुतेरे यह मानने लगे हैं कि जिन बातों का दूसरों से सम्बन्ध होता हो उनमें तो हमें कायदे से व्यवहार करना चाहिये। पर जब तक हमारे कामों का दूसरों से सम्बन्ध न हो तब तक हम अपनी मर्जी के मुताबिक जैसे चाहें वैसे व्यवहार कर सकते हैं। जो आदमी ऐसा मानता हो वह बिना समझे बोलता है। दुनिया में रहकर कोई भी आदमी बिना अपनी हानि किये खुद मुख्त्यार या स्वच्छन्द होकर व्यवहार नहीं कर सकता।

अब हमने देखा कि हमारा फर्ज खुद हमारी अपनी तरफ क्या है। अव्वल तो हमारे एकान्त के आचरण की खबर खुद हमारे सिवा दूसरों को होती नहीं, ऐसे आचरण का असर दूसरों पर होता है, इसलिये हम जिम्मेदार होते हैं इतना ही सोचना काफी नहीं है। उसका असर दूसरों पर होता है, इसलिये भी हम उसके जवाब-देह हैं। हर आदमी को चाहिये कि अपने उत्साह को काबू में रक्खे। एक महान् पुरुष का कहना है कि किसी भी आदमी की खानगी चाल-चलन मुझको बता दो, मैं तुरन्त बता सकता हूँ कि वह आदमी कैसा होगा और है।

ऐसे ही कारणों से हमारे लिये उचित है कि अपनी इच्छाओं को लगाम देकर रखें। यानी हमें शराब नहीं पीना चाहिये, पेटू की तरह ठूँस-ठूँस कर नहीं खाना चाहिये, नहीं तो अन्त में शक्तिहीन होकर हमें अपनी आबरू गँवानी होगी। जो आदमी विषय मार्ग से दूर रह कर अपने शरीर, मन, बुद्धि और प्राण की रखवाली नहीं करता वह बाहर के कार्यों में सफलता नहीं पा सकता।

यों विचार करते हुए मनुष्य अपनी अन्तर-वृत्तियों को स्वच्छ रख कर सोचता है कि इन वृत्तियों का क्या उपयोग करूं। जीवन में कोई निश्चित उद्देश्य होना ही चाहिये। हम जीवन के कर्त्तव्यों की खोज करके उनके पालन की ओर मन का झुकाव न रखें तो हम बिना पतवार की नाव की तरह भरे दरिया में डूबते-उतराते रहेंगे। हमारा ऊँचे से ऊँचा कर्त्तव्य यह है कि हम मानव जाति की सेवा करें और उसकी स्थिति सुधारने के यत्न में योग दें। इसमें सच्ची ईश्वर स्तुति, सच्ची बंदगी आ जाती है। जो आदमी भगवान् का काम करता है वह भगवान् का जन है; खुदा का बंदा है। खुदा का नाम लेने वाले ढोंगी धूर्त बहुतेरे दुनिया में विचरा करते हैं। तोता भी राम-राम कहना सीख लेता है इससे उसे कोई राम का भक्त -सेवक नहीं कहता। मनुष्य जाति को यथा योग्य स्थिति प्राप्त कराने का उद्देश्य हर आदमी अपने सामने रख और उसका अनुसरण कर सकता है। वकील ऐसे उद्देश्य से वकालत कर सकता है व्यापारी व्यापार कर सकता है। जो आदमी इस व्रत का पालन करता है वह कभी नीति धर्म से डिगता नहीं। उससे विचलित होकर मानव जाति को ऊपर उठाने का उद्देश्य पूरा किया ही नहीं जा सकता।

अब हम ब्यौरेवार विचार करें। हमें सदा यह देखते रहना पड़ता है कि हमारा आचरण सुधार की ओर जा रहा है या बिगाड़ की ओर। बनिज-व्यापार करने वाला हर एक सौदा करते हुए इस बात का विचार करेगा कि मैं अपने आपको या दूसरे को ठग तो नहीं रहा हूँ। वकील और वैद्य ऊपर बताई हुई नीति का अनुसरण करते हुए मुवक्किल और रोगी के हिताहित को अधिक सोचेगा। माँ बच्चे का पालन करते हुए सदा यह डर मन में रखकर चलेगी कि कहीं झूठे स्नेह या अपने दूसरे स्वार्थ से वह बिगड़ न जाय। ऐसा विचार रखकर मजदूरी करने वाला मजदूर भी अपने कर्त्तव्य का ख्याल रखकर कार्य करेगा। इस सारे विवेचन का निचोड़ यह निकला कि मजदूर अगर नीति नियम का पालन करते हुए अपने कर्त्तव्य का पालन करे तो वह अपने आधार व्यवहार में अपने आप को खुद मुख्त्यार मानने वाले धनी, व्यापारी, वैद्य या वकील से श्रेष्ठ माना जायगा। मजदूर खरा सिक्का है और व्यापारी वकील आदि अधिक बुद्धि या अधिक पैसे वाले होते हुए भी खोटे सिक्के जैसे हैं। इस प्रकार हम फिर यह देख रहे हैं कि हर आदमी उपर्युक्त नियम निभाने में समर्थ है। चाहे वह किसी भी स्थिति में क्यों न हो मनुष्य का मूल्य उसके चरित्र, उसके चाल-चलन पर आश्रित होता है, उसके पद-दरजे पर नहीं। उसके चरित्र की परख उसके बाहर के कामों से नहीं होती, उसकी अंतःवृत्ति जानकर की जा सकती है। एक आदमी एक गरीब को अपनी नजर से दूर करने के लिये एक डालर देता है। दूसरा उस पर तरस खाकर, स्नेह से आधा डालर देता है। इनमें आधा डालर देने वाला नीतिमान है और पूरा डालर देने वाला पापी है।

इस सारे विवेचन का सार यह निकला कि जो आदमी स्वयं शुद्ध है, किसी से द्वेष नहीं करता, किसी से नाजायज फायदा नहीं उठाता, सदा पवित्र मन रखकर व्यवहार करता है, वही आदमी धार्मिक है वही सुखी है और वही पैसे वाला है। मानव जाति की सेवा उसी से बन सकती है। खुद दिया-सलाई में आग न हो तो दूसरी लकड़ी को कैसे सुलगायेगी। जो आदमी खुद नीति का पालन नहीं करता वह दूसरे को क्या सिखायेगा? जो खुद डूब रहा हो वह दूसरे को कैसे पार उतारेगा? नीति का आचरण करने वाला दुनिया की सेवा किस तरह करनी होगी यह सवाल कभी उठाता ही नहीं, क्योंकि उसके लिये यह सवाल पैदा ही नहीं होता। मैथ्यू अर्नाल्ड कहता है—”एक वक्त था जब मैं अपने मित्र के लिये स्वास्थ्य, विजय और कीर्ति चाहा करता था, अब मैं वैसी कामना नहीं करता। इसलिये कि मेरे मित्र का सुख दुःख उनके होने न होने पर अवलंबित नहीं। इससे अब मैं सदा यही मनाता हूँ कि उसकी नीति सर्वदा अचल रहे”। इमर्सन कहता है कि “भले आदमी का दुःख भी उसका सुख है और बुरे का तो पैसा, उसकी कीर्ति भी उसके और दुनिया के लिये दुःख रूप है।


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