साधना में आत्म-समर्पण की आवश्यकता

June 1959

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(योगीराज अरविन्द)

योग-साधन में सबसे बड़ी कठिनाई मन को वश में करने की होती है। इसकी चंचलता और शैतानी का कुछ ठिकाना नहीं। मन बिल्ली की तरह ताक लगाये बैठा रहता है और जैसे ही कोई महान विचार उदय होता है यह उस पर झपट पड़ता है और फिर नई-नई वासनाओं या कामनाओं का पचड़ा आरम्भ कर देता है। इच्छा का स्वरूप भी लगभग ऐसा ही है। हमने प्रायः देखा है कि श्रेष्ठ इच्छा का आगमन होते ही पुरानी इच्छा अपने पुराने अभ्यास के अनुसार उस पर चढ़ बैठती है। थोड़ी दूर चलने पर मालूम पड़ता कि इस विचार या इच्छा में तो कोई भूल थी। तब फिर मन को शान्त अवस्था प्राप्त होती है। इस प्रकार यह मन का विद्रोह बहुत समय तक चलता रहता है। धैर्य धारण करके धीरता के सहारे ही मन के इन भोगों को हटाना चाहिये। इसके पश्चात् मन धीरे-धीरे शिष्ट बनने लगता है।

साधना दो प्रकार की होती है—एक अपने लिये तपस्या करना और दूसरी साधना। इन्हीं को “कर्म योग“ और “ज्ञान योग“ के नाम से पुकार सकते हैं। ज्ञान-योग का स्वरूप साधारणतः यह है कि हम सब से अलग होकर यह निरीक्षण करते रहें कि मन के भीतर कैसी-कैसी आकाँक्षाएँ, प्रभाव और विचार उमड़ रहे हैं और शान्त हो रहे हैं। हमें उदासीन भाव से यह देखना चाहिये कि किस वस्तु से हानि पहुँच रही है। आरम्भ में तो इन वस्तुओं के साथ स्वयं भी मिलना पड़ता है, क्योंकि इसके बिना उन पर दृष्टि ही नहीं पड़ती। धीरे-धीरे अभ्यास हो जाने पर सभी बातें प्रकृति के त्रिगुण की क्रीड़ा-तरंगों से ही उत्पन्न होती हैं। वस्तुतः हम अपनी निजी शक्ति से किसी भी विचार, बोध या कार्य की उत्पत्ति होना नहीं मान सकते। सब प्रकृति का दिया हुआ ही होता है, प्रकृति द्वारा ही इन सब में हमारी प्रवृत्ति होती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि यह सब प्रकृति की ही ठगविद्या या विशेषता है—हम तो सिर्फ उससे मिले हुये ज्ञान रहित होकर पड़े हैं। सुख-दुख, पाप-पुण्य, फलाफल का द्वन्द्व मचा हुआ है। इससे बचने का एक मात्र उपाय यह है कि हम भी इसके विरुद्ध एक तरकीब या चाल से काम लेकर प्रकृति के कौशल को परास्त कर दें। वह चाल है अपना पृथक करण अर्थात् अपने को पूर्णतः प्रकृति से अलग समझना। भीतर का द्रष्टा पुरुष जितने अविचल भाव से स्थित हो सकेगा; उतना ही अधिक बन्धन स्वरूप द्वंद्व ढीला होगा और फिर अन्त में फिर द्वंद्व की इतिश्री हो जायगी। यही “ज्ञान योग“ का सार है। किन्तु इस ज्ञान योग के हो जाने से भी सब काम समाप्त नहीं हो जाता। प्रकृति के तीनों गुणों से अपने को मुक्त कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उन गुणों का रूपांतर हो जाना चाहिये। गीताकार ने भी “निस्त्रेगुण्य” के परे हो जाने का निर्देश किया है, पर उसकी विशेष व्याख्या नहीं की है। अब हमको इस ओर स्वयं ही ध्यान देना चाहिये।

“कर्म योग“ का रहस्य भी इसी तरह का है। पहले फलाफल को समर्पण करके—अर्थात् फलाफल की आशा त्यागकर कार्य करते जाना चाहिए। हृदय में भगवान है ऐसा समझ कर, उनका स्मरण करते हुये सब कामों को आरम्भ करना चाहिये, जैसे कि गीता में भगवान ने कहा “यथा नियुक्तोऽस्मि” (इनमें भी “मैं” करता हूँ) इसके पश्चात् इस कतृत्व (कर्तापन) के अभिमान का भी त्याग (उत्सर्ग) कर देना चाहिये। फल के साथ ही साथ कर्म का भी समर्पण करना पड़ता है। हमको यह समझना चाहिये कि सब कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार ही होते हैं, इसे पुरुष द्रष्टा भाव से देखता रहे। ऐसा होने से आपको जान पड़ेगा एक विश्वभाव-युक्त शक्ति ही समस्त विचारों, अनुभवों और कार्यों में चल कर सृष्टि का सम्पादन कर रही है। ऐसा होने से ही हमको एक शान्त, समदर्शी और साक्षी की अवस्था प्राप्त होती है। तब भी हमारे भीतर द्वंद्व रहता है, किन्तु वह मन, प्राण और शरीर के ऊपरी भाग में ही रहता है—भीतर तो समता ही स्थिर रहती है। इस अवस्था में बाहर के अन्य लोग इसमें भी दोष गुण, छोटे-बड़े का आस्तित्व ही देखते हैं, किन्तु साधक के भीतर का पुरुष गुणातीत और शाँति मग्न अवस्था में ही रहता है। यह अवस्था निःसंदेह बहुत ऊँची है, फिर भी हमको इससे आगे बढ़ना आवश्यक है क्योंकि पक्की अवस्था तभी मानी जायगी जब गुणों का भी परिवर्तन हो जाय।

हमारे योग—पूर्ण योग की प्रणाली यही है कि हम स्वयं किसी साध्य (विशेष लक्ष्य) को लेकर उसे प्राप्त करने की साधना नहीं करते; बल्कि सब कुछ नारायणी शक्ति ही स्वयं करती है। उन्हीं के हाथ में साधना का सम्पूर्ण भार समर्पण करके स्थिर रहना चाहिये। भगवान अपने आप ही साधना करते हैं। उनकी दिव्य शक्ति ऊपर का केन्द्र स्वयं ही खोल देती है। वैसे तो सब कुछ हमारे ही द्वारा किया जाता है, पर ऊपर से वही देना आरम्भ करते हैं। आत्म समर्पण किये हुये योगी को भगवान विज्ञानमय जगत की नवीन ज्योति ही प्रदान कर देते हैं। उस प्रकृति के सारे गुणों का असली स्वरूप प्रकट हो जाता है। सत्त्व होता है—स्वच्छ और उज्ज्वल दिव्य ज्योति से। सत्त्व की प्रधानता में ज्योति-मण्डल के बीच समस्त ज्ञान, चिन्ता, अनुभव और इन्द्रियाँ तक प्रत्यक्ष सम्पन्न (साधित) हो जाती हैं। रज होता है—दिव्य तप एवं वास्तविक घटनाओं को नियमित करके चलने में। उस दिव्य तप का नाम ही क्रीड़ा है। तम का भी उसी में रूपांतर हो जाता है। तम

होता है—समरस, शान्त और गम्भीर आनन्द की गोद में सदा डूबे रहने से उसी विराट शाँति की गोद में ही समस्त कर्म बिना विघ्न बाधा के साधित होते रहते हैं। और कहाँ तक कहें सोना (शयन करना) भी उसी प्रकाश के समीप होता है। वह अवस्था कितनी शान्तिपूर्ण और सुखमय है उसे हम शब्दों द्वारा कह नहीं सकते। मनुष्य की भाषा और मन बहुत असम्पूर्ण है—उसके द्वारा इस दिव्य राज्य का कुछ भी वर्णन नहीं किया जा सकता। इस दिव्य राज्य में मनुष्य को भगवान स्वयं ही पहुँचा देते हैं। केवल उसका मनोभाव सत्य और निष्कपट होना चाहिये। मनुष्य के दोनों हाथ उठा कर पुकारने से भगवान सहस्र बाहु बढ़ाकर उसे ऊपर खींच लेते हैं।

ऊपर उठना चाहिये, इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई ऐसा विशेष स्थान है जहाँ सब प्रपंच छोड़ कर उठ जाना होगा। इसका मतलब यही है कि हमारा वर्तमान स्वभाव बड़े बुरे ढंग का हो गया है; इसलिये उन बुराइयों को दूर करने की आवश्यकता है। तात्पर्य यह कि आगे इस शारीरिक ज्ञान, इस जड़ बुद्धि, और देह सम्बन्धी भावना को छोड़ कर उठे बिना सूक्ष्म-सत्य अथवा अध्यात्म-सत्य का कुछ भी अनुभव नहीं किया जा सकता। जिस तरह इस जड़ शरीर के पीछे सत्य अन्न-कोष है, उसी प्रकार आत्म श्लाघा के पीछे एक विराट आत्म-कर्म है। योरोप निवासी जिसे बोधातीत या अव्यक्त मन कहते हैं, वही हमारा हिरण्यगर्भ है। इस सूक्ष्म मानस-लोक का विकास या उपाय जिस मनुष्य में जितना ही अधिक रहता है, उसके भीतर उतनी ही काव्यप्रतिभा, शिल्प प्रतिभा आदि प्रकट होती देखी जाती है। हमारी सूक्ष्म आन्तरिक आँखें सूक्ष्म कान आदि इन्द्रियों की सत्ता स्वतन्त्र होती है और उनका पृथक रूप से सुधार भी किया जा सकता है।

भागवत आनन्द भी इसी प्रकार का है। भगवान को जिसमें आनन्द होता है वही होता है और उसका धीरे-धीरे होना अनिवार्य है। हम तो सुख दुःख के रूप में द्वंद्व का अनुभव करते हैं, किन्तु वास्तव में दोनों ही आनन्द के विभिन्न रूप हैं। हम सहन करने की शक्ति को नष्ट करके इन्द्रिय-ज्ञान से दुख ही पाते हैं। किन्तु यह युग सनातन या पुराना नहीं है। कई बार ऐसा देखा गया है कि कठिन दुख भी अनायास ही आनन्द में परिणित हो गया है। इसका कारण यही है कि जिसे हम दुख कहते हैं वह भी आनन्द ही है। क्योंकि निश्चित की हुई चरम मात्रा लाँघ जाने पर उसके भीतर का आनन्द ही मिलकर बाहर प्रकट हो जाता है।

भारत की साधना में एक सुन्दर क्रम-धारा देखी जाती है। पहले वैदिक युग था, उस समय ऋषि लोग आध्यात्मिक और अलौकिक अनुभव-योग द्वारा ऊपरी सत्य में प्रवेश करते थे। वह युग बड़ा ही महत्वपूर्ण था। उस समय लोग देव लोक में जाते थे और देवताओं को भी जीवन-दान देते थे। उस समय के लोग आन्तरिक अनुभवी थे। इसके पश्चात् लोग इस वैदिक ज्ञान से हाथ धो बैठे। ब्राह्मण लोग सब कुछ छोड़ कर उप कथाओं में भिड़ गये। जान पड़ता है उस समय मनुष्यों को असली सत्य का रूप ही भूल गया। उपनिषद् काल में लोगों ने फिर एक बार सत्य की खोज की थी। अब की बार वह खोज आध्यात्मिक अनुभव द्वारा नहीं बल्कि अंतर्ज्ञान द्वारा की गई थी। इसी से उपनिषद् का सत्य बड़ा ही उदार और महान है। वे छोटे से छोटे अनुभव का बड़े से बड़े अनुभव के प्रकाश से शोधन करते थे और शुद्ध भाव से सत्य की ओर अग्रसर होते थे।


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