हम सद्गुणों का उपार्जन क्यों न करें?

June 1959

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(स्वामी शिवानन्द सरस्वती)

संयम एक प्रकार का अनुशासन है जो साधक में वैराग्य लाता है और उसे योग-पथ पर अग्रसर होने में सहायता प्रदान करता है। यम अथवा आत्मनिग्रह का अभ्यास ही संयम है। यही सारे सद्गुणों का अधिष्ठान है।

संयम ही रोगों के विरुद्ध दृढ़तम चहार दीवारी है यही सारी व्याधियों से सुरक्षित रखता है। इससे सुन्दर स्वास्थ्य शक्ति बल तथा वीर्य की प्राप्ति होती है।

एक सप्ताह के लिए चाय, काफी अथवा धूम्रपान करना बन्द कर दो। इससे तुम्हारी इच्छाशक्ति बलवती होगी जिससे संयम कार्य में मदद मिलेगी। अन्य संयम तुम्हारे लिए सरलतर हो जायेंगे।

संयम का लक्ष्य मन को निम्न पाशवीय अभिरुचियों से ऊपर उठाना ही है। इससे निश्चय ही आत्मपरिष्कार में सहायता मिलती है।

नियताहार, संयम, उपवास, आत्मनियन्त्रण, आत्म-निग्रह, आत्मसंयम, परिमितता ये सब पर्यायवाची हैं।

मदोन्मत्तता, आत्यंतिकता, उद्भ्रान्तता, उन्माद, आत्म-तृप्ति, इन्द्रिय परायणता, लम्पटता, ये सब संयम के विपरीतार्थक शब्द हैं।

भोजन बन्द कर देना भोजन से संयम कहलाता है। अल्पाहार करना ही नियताहार है। अनाहार कभी एक बार कर लिया जाता है परन्तु अल्पाहार अभ्यास की वस्तु है। इच्छित वस्तु का परित्याग ही आत्म-निग्रह है। अनिच्छित वस्तु का परित्याग भी संयम ही है। नियमित समय तक, साधारणतः धार्मिक व्रतों में, भोजन न करना उपवास कहलाता है। युक्ति पूर्वक कुछ विशेष वस्तुओं का सीमित सेवन तथा कुछ का पूर्ण परित्याग ही परिमितता है। हम लोग दुर्गुणों में संयम तथा भोजन में मिताहार का प्रयोग करते हैं।

यह एक सुन्दर सद्गुण है कि एक मनुष्य दूसरों के साथ चाहे उनकी प्रकृति कैसी भी क्यों न हो, अपने को व्यवस्थित तथा उपयुक्त बनाता है। जीवन में सफलता पाने के लिए यह सर्वोत्तम तथा अनिवार्य सद्गुण है। शनैःशनैः इसका उपार्जन करना आवश्यक है। बहुसंख्यक-जन इसे नहीं जानते कि किस प्रकार दूसरों के साथ अपने को उपयुक्त बनावें। दूसरों के हृदय पर शासन करने के लिए तथा अन्ततः जीवन संग्राम में विजयी होने के लिए यथा काल व्यवस्था एक विचित्र सद्गुण है।

पत्नी नहीं जानती कि पति के साथ किस प्रकार अनुकूल बर्ताव करना चाहिये। वह सदा अपने पति को अप्रसन्न रखती है, घर में झगड़े का कारण बनती है और अन्ततः पति द्वारा परित्यक्त होती है। किरानी नहीं जानते कि अपने मालिक के साथ किस प्रकार व्यवहार करें। वह उससे झगड़ पड़ता है और शीघ्र ही अपनी करनी का फल भोगता है। शिष्य नहीं जानता कि गुरु के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। व्यापारी नहीं जानता कि किस प्रकार वह ग्राहकों के साथ व्यवहार करे। फलतः वह अपने व्यापार तथा ग्राहकों से वंचित रह जाता है। दीवान यदि नहीं जानता कि महाराजा के साथ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए तो उसको नौकरी से अलग होना पड़ता है। यथा काल व्यवस्था के ऊपर संसार आधारित है। जो इस कला अथवा विज्ञान को जानता है वह संसार में सकुशल निवास करता है और जीवन की सभी परिस्थितियों में सुखी रहता है।

यदि मनुष्य अपने को अनुकूलतः व्यवस्थित करना चाहता है तो उसमें विनम्रता होनी चाहिए। इसके विकास के लिए अधिक ज्ञान अथवा विज्ञान की आवश्यकता नहीं। यदि किरानी अपने मालिक की आदतों, प्रवृत्तियों तथा उसके तौर तरीकों से परिचित है और अपने को उसके अनुकूल सुव्यवस्थित रखता है तो उसका मालिक उसी का गुलाम बन जाता है। कुछ मृदु शब्द तथा स्नेह द्रव्य इन्हीं की आवश्यकता है—स्नेह द्रव्य कोमल बनाने के लिए मधुर भाषी बनो, नम्र बनो। अक्षरशः उसकी आज्ञा का पालन करो। कभी प्रत्युत्तर न दो। इस कहावत को याद रखो कि “आज्ञाकारिता सेवा से भी श्रेयस्कर है” तुम्हारा मालिक थोड़ा सम्मान चाहता है। “हाँ जी, हाँ जी” “जी हजूर” “बहुत अच्छा महाशय” ऐसा कहो। इसमें तुम्हारा मालिक तुम्हारा ही गुलाम बन जाता है। वह अपने हृदय में तुम्हारे लिए सुन्दर स्थान रखता है तुम उसके प्रिय हो जाओगे। जो कुछ तुम चाहोगे वैसा ही वह करेगा। यथा काल व्यवस्था के गुण को विकसित करने के लिए नम्रता तथा आज्ञाकारिता का होना आवश्यक है। अहंकारी तथा अभिमानी मनुष्य के लिए इस गुण का विकास करना बहुत कठिन है। वह सदा कठिनाइयों में पड़ा रहता है। अहंकार तथा घमंड ये ही इस सद्गुण के मार्ग में दो प्रबल बाधाएं हैं।

जब एक छात्र नहीं जानता कि उसी कमरे में रहने वाले दूसरे छात्र के साथ किस प्रकार बर्ताव करना चाहिए तब वैमनस्य होता है और उनकी मित्रता नष्ट हो जाती है। यथा काल व्यवस्था के द्वारा मित्रता चिरस्थाई रहती है। छात्रगण छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए झगड़ पड़ते हैं। एक छात्र कहता है “मैंने मिस्टर ‘क” को बहुत दिनों तक चाय पिलाई। मैंने अपने खर्चे से इन्हें कई दिनों तक सिनेमा दिखाया। परन्तु जब मैंने उनसे वासवेल लिखित “जौनसन की आत्मकथा” पढ़ने के लिए उधार माँगी तब उसने एक दम इन्कार कर दिया। वह किस तरह का मित्र है! मैं उसे बिल्कुल नहीं चाहता।” इस प्रकार मित्रता नष्ट हो जाती है। एक साधारण सी वस्तु मन को असंतुलित कर डालती है यथा काल व्यवस्था ही वह दृढ़ सूत्र है जो सबों को प्रेम तथा मित्रता के बन्धन में स्थित करता है। ऐसा मनुष्य संसार के किसी भी हिस्से में किसी भी व्यक्ति के साथ कुशलपूर्वक रह सकता है। ऐसा मनुष्य अज्ञात रूप से ही सबों का प्रेम पात्र बन जाता है। इससे अत्यन्त शक्ति तथा आनन्द की प्राप्ति होती है। इससे इच्छाशक्ति बढ़ती है।

इस प्रकार के व्यक्ति को कुछ त्याग करना पड़ता है। जिससे त्याग भावना विकसित होती है। इससे स्वार्थ का नाश होता है। वह अपनी वस्तु में दूसरे को भी हिस्सा देता है। उसे अपमान तथा अपशब्दों को सहन करना पड़ता है। उसे जीवन की एकता का दर्शन करना पड़ता है। वैदान्तिक साधना में यह बहुत सहायक है।

जो इस सद्गुण का अभ्यास करता है उसे घृणा तथा बड़प्पन की भावना को विनष्ट करना पड़ता है। उसे सबों को गले लगाना पड़ता है। इस सद्गुण के द्वारा विश्व-प्रेम की भावना विकसित होती है तथा घृणा भाव का नाश होता है।

ऐसे व्यक्तियों को अपने साथियों के निर्मम शब्दों को सहन करना पड़ता है। उसको धैर्य तथा सहिष्णुता का अभ्यास करना पड़ता है। ये सद्गुण स्वतः उसमें विकसित हो जाते हैं जब वह अपने को दूसरों के अनुकूल बनाने का प्रयत्न करता है। वह किसी भी वातावरण में रह सकता है वह एक झोंपड़ी में भी रह सकता है। वह ठंडी जगह में भी निवास कर सकता है। वह मन में संतुलन रखता है। वह अत्यन्त गर्मी तथा सर्दी को भी सहन कर सकता है। इस सद्गुण के द्वारा अन्ततः आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जिसके पास यह सुन्दर सद्गुण है वह इन तीनों लोकों में एक महान् पुरुष है। वह सदा सुखी तथा सफल है।


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