आध्यात्मिक शक्ति और मानव

June 1959

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(श्री भगवान सहाय वाशिष्ठ)

मानव सृष्टि में आध्यात्मिक शक्ति अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस शक्ति का मनुष्य के जीवन में भोजन, आराम, लौकिक व्यवहार, कमाई आदि की तरह ही विशेष महत्व है। जिन-जिन भी जातियों में इस शक्ति का विकास हुआ, वे उन्नति की ओर बढ़ीं। भारत के प्राचीन गौरव का एक कारण इसके आध्यात्म शक्ति से सम्पन्न होना भी था। आध्यात्म शक्ति को किन्हीं शब्दों में चरित्र, बल मानसिक बल अथवा आत्म बल भी कहते हैं।

मानव के आध्यात्मिक विकास का स्वयं को भले या बुरे निर्देश देने से बहुत सम्बन्ध है। स्वयं को पवित्रता एवं महानता के निर्देश देने से अथवा अन्तरात्मा के निर्देशों के अनुकूल चलने के संकल्प करना जीवन को उन्नत एवं विकासशील बनाता है। इसी प्रकार अपने आपको बुरे निर्देश देना अर्थात् अपनी अन्तरात्मा के प्रतिकूल कार्य करना पतन एवं विनाश का कारण बनना है, जिससे मनुष्य का जीवन दुःख एवं परेशानियों से खराब होकर नारकीय सा बन जाता है।

एक धन ऐश्वर्य एवं भौतिक सम्पत्तियों से संपन्न व्यक्ति यदि जितना आध्यात्मिक शक्ति से शून्य है उतने ही अर्थ में सब से बड़ा दीन है। क्योंकि वह आध्यात्मिकता से रहित होने के कारण इन भौतिक सम्पत्तियों से उल्टा पतन एवं विनाश का मार्ग अपना लेगा। ईर्ष्या, द्वेष, परपीड़न, शोषण आदि से जीवन अशान्त एवं उद्विग्न बन जायगा। इनसे उसका मानसिक शक्ति का ह्रास हो जायगा जिसके फलस्वरूप पद-पद पर चिन्ता, भय, दुःख एवं अपनी शक्ति हीनता का अनुभव करेगा जो नारकीय यन्त्रणाओं से कम नहीं है। संसार का सब से बड़ा व्यक्ति वह है जो आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न है। वह अपने आध्यात्मिक बल से न केवल स्वयं को ही अपितु समग्र संसार को सुखी बना सकता है। ईश्वर के इस सृष्टि रूपी बगीचे में अपनी कलाकृति की छाप छोड़ जाता है क्योंकि उसका जीवन स्वयं के लिए नहीं होता।

अब यहाँ विचार करना है कि यह महान् आध्यात्मिक शक्ति क्या है, एवं इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है? अपने जीवन को इस अमृत से सराबोर करने वाली महान् आत्माओं ने यह अनुभव करके निर्णय किया है कि इस समस्त सृष्टि में मन रूपी एक तत्व अखण्ड विस्तार से, एक रस से सर्वत्र व्याप्त है। मानव मन उसकी एक इकाई है। किन्तु जब आध्यात्मिक शक्ति से शून्य मानव अपनी देह बुद्धि से इस तत्व का अनुभव करता है तो केवल पंचतत्वों का क्षणभंगुर यह पुतला नजर आता है क्योंकि अपने क्षुद्र ज्ञान के कारण उसका पसरा केवल देह तक ही मालूम पड़ता है। इसी कारण मानव देह या इससे सम्बन्धित भौतिक वस्तुओं की क्षति को ही वह अपनी क्षति समझता है। इस देह पर दुःख आदि पड़ने पर ही स्वयं को दुःखी समझ लेता है। किन्तु ज्यों−ही मानव अपने परोक्ष ज्ञान से, स्वयं को एक रस रूप, सर्वत्र व्याप्त उस अखण्ड ईश्वरीय तत्व की इकाई समझता हुआ एवं उसी में स्थित हुआ अनुभव करता है तो सर्वत्र अपना ही अपना दृष्टिगोचर होता है। अपने पराये का भेद समाप्त हो जाता है। उस चर-अचर व्याप्त तत्व में स्थित हुआ व्यक्ति सृष्टि में हल-चल मचा देने वाली शक्ति की अनुभूति प्राप्त करता है। साधारण विकास कार्यों की तो बात ही क्या है। उस सक्षम ईश्वरीय दिव्य शक्ति से सम्बन्ध स्थापित करने पर महान् एवं चमत्कारी कार्य सम्पन्न होते हैं। प्रकृति भी वहाँ अपनी मर्यादाओं का व्यतिरेक कर विपरीत फल देती है।

महापुरुष इस दृश्य जगत में उस ईश्वरीय तत्व की स्थिति ठीक उसी तरह अनुभव करते आये हैं जैसे माला के भीतर का सूत्र। जब स्थूल नेत्रों से देखा जायगा तो माला में केवल मनिके ही नजर आएंगे और प्रथकत्व की भावना होगी, किन्तु यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो सबको धारण करने वाला सूत्र नजर आयेगा जिसके अभाव में इस दृश्य रूपी माला का अस्तित्व ही नहीं है। हमारे महापुरुष ऋषि-महर्षि आदि इसी तत्व में स्थित होकर आत्मीयता के एक सूत्र में बँधे हुये “वसुधैव कुटुम्बकम” का मधुर संगीत सुनाते रहे हैं। वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों व अन्य ऋषि प्रणीति ग्रन्थों में यह मधुर गान भरा पड़ा है जिससे मानव आत्मविभोर हो उठता है। आत्मीयता के इस चरम विकास को, परमानन्द को, जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर मानव धन्य हो जाता है, कृतार्थ हो जाता है। पूर्ण में पूर्ण मिलकर पूर्ण हो जाता है। इस मधुर अमृत का पान कर हमेशा के लिए अमर हो जाता है।

इस आध्यात्मिक शक्ति के विकास के लिए ठीक उसी तरह मानसिक साधना करनी होगी, जीवन को उसी तरह संयत एवं नियमित करना होगा जिस तरह पहलवान अपने शरीर बल की वृद्धि के लिए करता है। जबकि स्वास्थ्य जैसी भौतिक एवं तुच्छ शक्ति के लिये इस प्रकार के अनेक अभ्यास, साधन, आदि की आवश्यकता होती है तो उस महान् एवं सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न होने के लिए प्रचुर मात्रा में अभ्यास एवं साधना आदि करनी ही होगी। साधना पथ पर अग्रसर होने के लिए सर्वप्रथम ब्राह्ममुहूर्त के महत्व को समझना आवश्यक है। उस समय का शाँत एवं प्राकृतिक वातावरण आध्यात्मिक चिंतन के लिए बहुत ही अनुकूल है। प्रत्येक आध्यात्मिक जिज्ञासु को सूर्योदय से दो घंटे पूर्व उठना आवश्यक है। महान पुरुषों के जीवन चरित्रों को देखा जाय तो ज्ञात होगा कि उनकी दिनचर्या सूर्योदय के दो तीन घंटे पूर्व से आरम्भ होती है।

आध्यात्म शक्ति सम्पादन के पवित्र लक्ष्य की ओर बढ़ने में “दृढ़ संकल्प और अभ्यास” ठीक उसी तरह के आधार हैं जैसे मानव देह में अस्थि पंजर। सर्व प्रथम अपने पवित्र लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए दृढ़ संकल्प और फिर उसके अनुसार अभ्यास करना प्रत्येक आध्यात्म पिपासु के लिये आवश्यक है। महान आशा एवं उत्साह के लिये अपने पवित्र संकल्पों को दृढ़ता के साथ साकार रूप में परिणित करने के लिए स्वतः अभ्यास करते रहना सफलता की कुँजी है। व्यक्त मन, पुस्तकीय ज्ञान, एवं विद्वत्ता की पहुँच, आध्यात्म तृष्णा को शाँत करने के लिये असम्भव सी है अतः केवल इसे ही प्रधानता देना तर्क के बल पर उस महान् शक्ति का विकास एवं अनुभव करना बड़ी भूल है क्योंकि बड़े-बड़े विद्वान, डिग्रियाँ प्राप्त, एक साथ कई विषयों के आचार्य पद प्राप्त करने वाले महानुभाव, कठिनाइयों एवं विपरीत परिस्थितियों में साहस छोड़ देते हैं। अपनी तर्क बुद्धि के बल पर नैतिकता एवं आध्यात्मिकता का उपदेश देने वाले साधारण से लोभ आने पर फिसल जाते हैं। इस तरह बाहरी पुस्तकीय ज्ञान से हमारा बौद्धिक स्तर उन्नत हो सकता है। किन्तु आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता।

स्वयं को असहाय एवं हीन समझना एक बड़ा भारी विघ्न है। लिखा भी है कि “नायं आत्मा बल हीनेन् लभ्यः” अर्थात् यह आत्मा बलहीनों से प्राप्त नहीं होती। अपने आपको परमपिता परमात्मा का युवराज समझना चाहिए। सर्वशक्ति सम्पन्न, सर्वाधार ईश्वर का युवराज कभी हीन, दुःखी शक्ति हीन क्यों होने लगा। यह केवल हमारा मिथ्या ज्ञान है जो हमें पतन की ओर ले जाता है। अपने पिता की भाँति सर्व शक्तियों से सम्पन्न यह पुरुषार्थी युवराज अपने पुरुषार्थ के बल पर शीघ्र ही अपना आत्मलक्ष्य प्राप्त कर सकता है। साधक को अपनी महानता एवं गौरव की अनुभूति जाग्रत करनी चाहिए? किन्तु सावधानी से सूक्ष्म निरीक्षण करते रहना चाहिये कि कहीं हमारा क्षुद्र अहंकार तो नहीं पनप रहा है जिसकी सीमा इस शरीर एवं इससे सम्बन्धित भौतिक जगत तक ही है। इतना ही नहीं पतन की ओर ले जाने वाला कण्टकाकीर्ण मार्ग है।

साधना पथ पर चलते हुये साधक को विषयों के दल-दल से बचना चाहिये। इस बड़े भारी विघ्न के कारण साधक की समग्र शक्तियों का क्षय होने लगता है और पतन की ओर गिरने लगता है। अपने पवित्र लक्ष्य की ओर प्रगति करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन भी महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इसके साथ-साथ स्वयं को पवित्र एवं परमार्थ कार्यों में लगाये रहना चाहिए। इससे चित्त भी विषयों की ओर नहीं दौड़ता और मानव-जीवन का सदुपयोग भी होता है। साधक को यह ध्यान में रखना चाहिए कि इन विषयों की दौड़ अंत तक उसका पीछा नहीं छोड़ती। जहाँ भी थोड़ी सी अपनी उन्नति देखकर यदि इन्हें ढिलाई दे दी तो ये साधक को अपनी कई गुनी शक्ति से पतन की ओर खेंच ले जाते हैं।

परनिन्दा भी साधक की आध्यात्मिक उन्नति में बड़ी बाधक है। दूसरों की निन्दा करने में न केवल आध्यात्मिक पतन ही होता है वरन् लौकिक व्यवहार में भी ईर्ष्या द्वेष आदि का द्वार खुलता है। जो मानव-जीवन को विषतुल्य बना देते हैं। यह सत्य है कि परनिन्दा करने वाला व्यक्ति अपने जीवन में कई प्रयत्नों के बावजूद भी अध्यात्म चेतना की अनुभूति प्राप्त नहीं कर सकता। अधिक विलास एवं अनर्गल भाषण से भी आध्यात्मिक प्रगति रुकती है और आयु भी क्षीण होती है।

स्वाध्याय एवं सत्संग मानव के अपने पवित्र लक्ष्य की ओर बढ़ने में बहुत बड़े सहायक हैं। इनसे यह ही नहीं कि समय का सदुपयोग होता हो वरन् कुछ समय के लिये उन महान आत्माओं से विचार द्वारा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इससे मानसिक विकास के साथ-साथ हमारा पथ प्रदर्शन भी होता है। इन उपरोक्त नियमों को ध्यान में रखते हुये प्रत्येक व्यक्ति को अपना सुव्यवस्थित जीवन बना लेना चाहिये। फिर उसके अनुसार आध्यात्म शक्ति से सम्पन्न बनने के लिये सत् प्रयत्न करना चाहिये। अमूल्य सुरदुर्लभ मानव जीवन का सदुपयोग अपने इस पवित्र लक्ष्य की ओर बढ़ने में ही है। यदि आज का मानव अपने को भौतिकता, भोग-विलास, हिंसा, शोषण, परपीड़न, बेईमानी के बहाव से बचकर आध्यात्मशक्ति को अपनावे तो निश्चय ही विकास और प्रगति का सुन्दर पथ निर्माण हो जावे। स्वयं को एवं मानव समाज को इस आध्यात्मिक चेतना की ओर मोड़ना प्रत्येक मानव सृष्टि के सदस्य का आवश्यक कर्तव्य है।


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