मानव जीवन की विशेषता उसके आध्यात्मिक विकास में निहित है। आध्यात्मिक विकास से शून्य मानवता पशुता की ओर अग्रसर हो जाती है। ठीक इसी तरह आध्यात्मिक विकास से मानवता देवत्व की ओर विकसित होने लगती है। इस आध्यात्मिक विकास के प्रमुख दो उपाय हैं। (1) तप और (2) त्याग। अभ्यास से तप और वैराग्य से त्याग की वृद्धि होती है।
तपः—तप और नैतिकता का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। नैतिकता तप का पाठ सिखाती है। सभी धर्मों ने तप को स्वीकार किया है क्योंकि इसी से आगे जाकर त्याग की वृत्ति पैदा होती है। बुरी वासनाओं एवं इच्छाओं से अपने आपको रोकना तप कहलाता है। बौद्ध धर्म ने भी पंचशील के सिद्धाँत में झूठ न बोलना, चोरी न करना, निन्दा न करना, व्यभिचार न करना और हिंसा न करना आदि को प्रतिपादित किया है इसी तरह साँख्य शास्त्र में मन को विषयों से खींचना आत्मज्ञान के लिए आवश्यक बताया है। योग की तो जड़ तप ही है। यम और नियम योगी को तप में लगाते हैं। अतः आध्यात्मिक विकास में तप सर्वप्रथम आवश्यक आधार है। इसी से फिर आगे जाकर त्याग भावना का उदय होता है।
मनुष्य को जीभ और कामेन्द्रिय का नियंत्रण करना आवश्यक है। इससे मानसिक शक्तियों का विकास होने लगता है और स्वयं में एक विशेष शक्ति का अनुभव होने लगता है। इन दोनों से मनुष्य की शक्ति का क्षय बहुत बड़ी मात्रा में होता है। इतना ही नहीं, ये उसे पतन की ओर घसीट ले जाते हैं। मनुष्य ज्यों−ही इनका सदुपयोग करने लगता है उसमें उच्चकोटि की वासनाओं का उदय होता है जो उसे कल्याण एवं शाँति की ओर ले जाती हैं। मानसिक शक्तियाँ बढ़ने लगती हैं और वह व्यक्ति न केवल अपने लिए वरन् समाज के लिए बहुत ही हितकर सिद्ध होता है।
इस तरह तप से मनुष्य की मानसिक शक्ति बढ़ती है। इच्छाओं को रोकने से एक विशेष शक्ति का उदय होता है। वह शक्ति फिर उसमें सब कुछ करने का पुरुषार्थ जागृत करती है। समाज सेवा एवं सामाजिक परिवर्तन आदि के लिए तप से उत्पन्न मानसिक शक्ति की परमावश्यकता है। मानसिक शक्ति प्रबल तप से उत्पन्न होती है। तुच्छ वासनाओं पर नियन्त्रण करने से उच्च वासनायें पैदा होती हैं। तुच्छ वासनाएं केवल स्वयं को क्षणिक-भौतिक सुख प्रदान करती हैं किन्तु उच्च वासनाओं के जो भी व्यक्ति संपर्क में आता हैं उसे भी आनन्द प्राप्त होता है। आत्मसन्तोष, शक्ति , प्रफुल्लता, आदि जीवन को अमृत सागर में सराबोर कर देता है। आगे जाकर तो सभी वासनाओं का पूर्ण त्याग कर देना पड़ता है।
अपना सच्चा एवं कल्याणकारी ध्येय निश्चित करके उसके लिए तप (अभ्यास) करना श्रेष्ठ होता है। जब तप का ध्येय आत्मशक्ति एवं ज्ञान प्राप्ति हो तो मनुष्य को पूर्ण शाँति प्राप्त ही होती है। ब्रह्मज्ञान से आत्म कल्याण की मंजिल तय की जाती है किन्तु इसके लिए त्याग का भी त्याग आवश्यक है। अहंकार को त्याग करने पर ही मनुष्य उच्च स्थिति तक पहुँचता है।
ज्ञान पिपासु को, आत्मकल्याण चाहने वाले को तप में अति नहीं करनी चाहिए। उग्र तप से मनुष्य में अहंकार उत्पन्न होता है। इससे अभिमान का उदय होता है जो उसे पुनः पतन के गहरे गड्ढे में ढकेल देता है। मध्यम श्रेणी का तप ही हितकारी होता है। महात्मा बुद्ध भी जब तक उग्र तप में लगे रहे उद्देश्य की पूर्ति नहीं हुई किन्तु ज्यों−ही मध्यम मार्ग का अनुसरण किया तो थोड़े समय बाद तत्व-ज्ञान हो गया। अतः मुमुक्षुओं, समाज सेवियों, विकास की इच्छा रखने वालों को मध्यम मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
सेवा कार्य में लगना भी एक प्रकार का उच्च श्रेणी का तप है। परमार्थ या सेवा कार्य में लगने से सहज तप स्वतः हो जाता है। आज के युग में सेवा तप बहुत ही महत्व पूर्ण एवं आवश्यक है। यह एक युग की सर्वोपरि आवश्यकता है। इसके कई उदाहरण हमारा मार्ग प्रदर्शन करते हैं। जगद्गुरु शंकराचार्य, रामतीर्थ, विवेकानन्द, ऋषि दयानन्द ने अपनी योग साधना का विचार छोड़कर समाज सेवा का मार्ग अपनाया। विवेकानंदजी से श्री रामकृष्ण परमहंस ने यही कहा “कि ब्रह्मानन्द की कुँजी मेरे पास है समाज सेवा एवं धर्म प्रसार के लिए तैयार हो जाओ” इसी एक आज्ञा से नरेन्द्रदेव विवेकानन्द बन गये और भारतीय धर्म को जागृत किया। इसी तरह शंकराचार्य, गौतमबुद्ध, ईसा, राम, व कृष्ण, आदि-आदि महापुरुषों ने समाज-सेवा से संसार को कल्याण की ओर मोड़ने में जीवन भर लगा दिया। इसके लिये उन्होंने कितना तप किया। राणाप्रताप, शिवाजी गुरु गोविंद सिंह आदि ने भी यही मार्ग अपनाया। जो व्यक्ति दूसरों की सेवा में दत्तचित्त होकर लगे रहते हैं वे दुर्गुणों एवं बुरी वासनाओं से बच जाते हैं। गृहस्थ जीवन की सफलता भी तप पर ही निर्भर है। तपविहीन गृहस्थी नारकीय यंत्रणाओं का सामान जुटाकर स्वयं को दुःख एवं परेशानियों में डाल देता है।
तप से मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास होता है। अतः जीवन के प्रथम भाग में तप की प्रधानता आत्म-विकास, व्यक्तित्व निर्माण आदि के लिये एवं तत्त्वज्ञान प्राप्त कर निर्वाण प्राप्ति के लिए इसकी आवश्यकता होती है। क्योंकि बार-बार अभ्यास एवं प्रयत्न करने पर भी विषय-वासनाओं की ओर मन चला जाता है। अतः इसके लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य को संसार की असारता, अनित्यता, दुःखरूपता का ज्ञान हो जाय। इससे उसमें उपरामता पैदा होकर विषय-वासनाओं से मन हट जाता है। संसार से सहज ही में सम्बन्ध टूट जाता है। फिर मन को विषयों से रोकने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
अपरोक्ष ज्ञान की प्राप्ति के लिये संसार की अनित्यता, दुःखरूपता नश्वरता को समझ लेना आवश्यक होता है। जो मनुष्य स्वयं दुःखी एवं दीन रहता है वही संसार की ओर दौड़ता है। सुख की चाह में इस दुःख से बचने के लिये जो व्यक्ति इधर दौड़ता है वह उल्टा दुःख ही प्राप्त करता है। किन्तु जब बाह्य पदार्थों की दुःख रूपता का ज्ञान हो जाता है तो अन्तर्मुखी हो जाता है। उसकी समस्त बाह्य क्रियायें आत्मा में केन्द्रित हो जाती हैं। वही मन पूर्ण शक्ति से आत्म दर्शन के लिये दौड़ पड़ता है। अन्त में आत्मानन्द प्राप्त होता है। जीवन धन्य हो जाता है।
तप और त्याग इन दोनों से जीवन को विकास की ओर बढ़ाने के लिए अभ्यास की परमावश्यकता है। इन्द्रियों पर नियंत्रण करने के अभ्यास से ही बुरी वासनाओं से बचना सम्भव हो सकता है। साथ ही संसार की अनित्यता दुःख रूपता, नश्वरता, आदि का बार-बार मनन करने से चित्त प्रदेश में इसकी धारणा को पक्का करने के लिए नियमित साधना एवं अभ्यास की आवश्यकता है। अभ्यास के अभाव में न वासनाओं पर नियंत्रण हो सकता है, न तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति हो सकती और बहिर्मुखी वृत्ति अंतर्मुख हो सकती है इन सबके लिए अभ्यास एवं ज्ञान सहित वैराग्य की धारणा परमावश्यक है। योगविज्ञान में भी इनकी ही प्रधानता है।
इस तरह उपरोक्त तप एवं त्याग के पथ पर अभ्यास करते हुये बढ़ने वाला मनुष्य पशुत्व एवं मनुष्यत्व को पार कर देवत्व की ओर अग्रसर होता है। तप और त्याग मानव विकास के महत्त्वपूर्ण अंग है। तप और त्याग से जीवन को महान बनाने वाला व्यक्ति न केवल स्वयं के लिए ही अपितु समग्र संसार के लिए लाभदायक होता है। उसकी इस महानता की शीतल छाया में संसार शाँति, सुरक्षा, कल्याण का अनुभव करता है। एक व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास समस्त मानव जगत का विकास है और एक व्यक्ति का आध्यात्मिक पतन न केवल उसका ही अपितु सारे मानव जगत का पतन है। अतः पतन के मार्ग को छोड़कर विकास के साधन तप एवं त्याग की ओर बढ़ना ही कल्याणकारी है। मानवता का सदुपयोग इसी में है। सौंदर्य है, सब कुछ है।