आत्म-कल्याण का महान लक्ष्य

June 1959

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गत दो अंकों में ‘अखण्ड-ज्योति’ के परिजनों को व्रतधारी बनने की प्रेरणा दी गई थी। प्रसन्नता की बात है कि उसका सर्वत्र समुचित स्वागत हुआ है। अधिकाँश स्वजनों ने यह अनुभव किया है कि परमार्थ के विचारों का एक मनोरंजन मात्र सफलता और उस विषय की कुछ पुस्तकें या पत्रिकाएं पर्याप्त नहीं हैं। इतने तक ही सीमित रह जाने से वह प्रगति संभव नहीं—जो किसी धर्मप्रेमी के जीवन की होनी चाहिए।

विचारों का उद्देश्य-कार्य के लिए प्रेरणा देता है। यदि कोई विचार केवल मस्तिष्क के दायरे में ही घूमता रहे और कार्य रूप में परिणत न हो तो उससे इतना ही लाभ है कि खाली दिमाग में बुरे विचार आने की संभावना थी, वह रुक गई। यह तो एक अनिष्टकर आक्रमण का प्रतिरोध हुआ, इससे एक हानि रुकी पर वह लाभ तो न हुआ जो सद्विचार अपनाने के उपरान्त होना चाहिए था। दरवाजे मजबूती से बन्द कर दे—चोरी की गुंजाइश न छोड़े तो इतना ही लाभ है कि चोर जो माल उठा ले जा सकते थे, वह न उठा ले जा सके, पर इतने मात्र से व्यापारिक लाभ या आर्थिक उन्नति का अवसर तो नहीं आया। लाभ तो तब है जब उपार्जन में वृद्धि हो, कारोबार बढ़े, लाभ के स्रोत खुलें। किसान केवल रखवाली करता है और बढ़ाने के लिए खाद, पानी, बीज, नराई, गढ़ाई आदि का प्रबन्ध न करे तो बढ़िया फसल प्राप्त करने का लाभ उसे न मिल सकेगा।

जो सद्विचार हमें सत्साहित्य के स्वाध्याय या श्रेष्ठ पुरुषों के सत्संग से मिलते हैं, वे तभी लाभदायक हो सकते हैं, जब उन्हें क्रिया रूप में परिणत किया जाय। देखा गया है कि यही समस्या नहीं सुलझ पाती। व्यावहारिक जीवन का ढर्रा कुछ ऐसे ढंग से चल पड़ा होता है कि उसमें परमार्थ के विचारों को प्रवेश करना किस प्रकार संभव है यह समझ में नहीं आता। आज के अर्थ संकट युग में शारीरिक और मानसिक शक्तिहीनता के कारण तथा सामाजिक दुर्व्यवस्था के कारण उत्पन्न चिन्ताओं से व्यक्ति इतना व्यस्त और परेशान रहता है कि सामने उपस्थित कार्य ही पूरा नहीं हो पाता, फिर परमार्थ के लिए एक नया शिर दर्द कौन बढ़ावे?

यों प्रत्येक आत्मा की—विशेष तथा धर्म और विवेक में आस्था रखने वाले सत्पुरुषों की आकाँक्षा यह अवश्य रहती है कि चौरासी लक्ष योनियों के बाद एक स्वर्ण सौभाग्य की तरह प्राप्त हुआ यह सुरदुर्लभ मानव जीवन ऐसे ही मिट्टी के मोल बर्बाद न होना चाहिए। इसका कुछ सदुपयोग हो, इसमें कुछ परमार्थिक कार्य भी बन पड़े तो ठीक है, पर इस आकाँक्षा को मूर्तिमान देखने में कोई बिरले ही भाग्यशाली सफल होते हैं अन्यथा अन्य अनेक मनोरथों की भाँति इस मनोरथ को मन में दबाये हुए ही जीवन लीला समाप्त होती है।

बहुत हुआ तो किसी ने अपने संचित धन का एक अंश किसी ऐसे कार्य के लिए दे दिया, जिससे पुण्य परमार्थ दिखाई पड़ता हो, साथ ही कुछ कीर्ति प्रशंसा भी मिलती हो। देखा गया है कि परमार्थ भावनाओं को सत्कर्मों के लिए आत्मा की पुकार की तृप्ति लोग कुछ धार्मिक कर्मकाण्ड करके पूरी करने की कोशिश करते हैं। चारों धाम की तीर्थयात्रा, बड़ा सा ब्रह्म-भोज, भागवत की कथा, व्रत उद्यापन, बच्चों का जनेऊ मुण्डन, बड़े से प्रीति-भोज, बहिन-भानजी की शादी में खर्च आदि अर्थ सम्भव एवं लोक प्रशंसा देने वाले कार्य करके प्रसन्न होते हैं। इसमें भी अधिक कदम किसी ने बढ़ाया तो मन्दिर, धर्मशाला, कुआँ, बावड़ी आदि बनवा दी, जो उसकी धर्म प्रियता का प्रमाण प्रदर्शित करती रहे। उन संस्थाओं को भी लोग दान देते हैं जो उनके गले में फूल माला पहनायें, अभिनन्दन करें, ऊँची कुर्सी पर बिठावें, नाम और फोटो छापें, उनके नाम का पत्थर लगावें। संस्थाओं से सम्बन्धित या एकत्रित व्यक्ति उन से परिचित हों, उन्हें धर्मात्मा मानें ऐसा करना लोग अच्छा व्यापार भी मानते हैं। ऐसा करने से उनकी साख बढ़ती है, नये ग्राहक मिलते हैं व्यापार को चमकने की सम्भावना बढ़ती है।

देखा गया है कि अनेकों वकील और डॉक्टर इसी उद्देश्य को लेकर विभिन्न संस्थाओं में प्रवेश करते हैं कि उनकी परमार्थ प्रियता से प्रभावित होकर लोग उनके ग्राहक बनें। कीर्ति और प्रशंसा प्राप्त करना अच्छी बात है, पर इसी मंजिल पर अटके रहे तो लक्ष तक पहुँचना कठिन हो जायगा। परमार्थ के द्वारा आत्मा को जो असीम आनन्द प्राप्त हो सकता है उसे प्राप्त करने के लिए लम्बी मंजिल तय करनी होती है, कुछ ठोस और गंभीर कदम उठाने होते हैं। उपरोक्त बातें तो प्रारम्भिक संस्थान के बल प्रोत्साहन मात्र हैं।

आत्मा का परम स्वार्थ-बंधन-मुक्ति एवं अनन्त आनन्द-जिस गतिविधि के द्वारा उपलब्ध होता है वही परमार्थ है। परमार्थ की भी हमें साँसारिक स्वार्थों जितनी चिन्ता तो करनी ही चाहिए। आत्मा की भूख, आवश्यकता और महत्वाकाँक्षा को बिलकुल ही ध्यान में न देकर केवल शरीर जन्म समस्याओं में ही उलझे रहना, मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणी को शोभा नहीं देता है। उसकी बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता और विवेकशीलता की कसौटी यही हो कि जीवनयापन की गतिविधि में उसने परमार्थ का कितना समावेश किया। जिसकी गतिविधियाँ जितना परमार्थ पूर्ण हैं, वह उतना ही विवेकवान कहा जा सकता है।

परमार्थ का सही स्वरूप

(1) अपनी व्यक्ति गत दुर्बलताओं को दूर करना—गुण कर्म स्वभाव को सात्विकता से ओत-प्रोत करना तथा (2) दूसरों की अधिकाधिक सेवा सहायता करना। हमारे मनः क्षेत्र में अनेकों दुर्भावनाएँ, दुष्प्रवृत्तियां, बुरी आदतें भरी होती हैं। सामने उपस्थित समस्याओं के रूप को समझने तथा उनका हल सोचने में जिस विशाल दृष्टिकोण की आवश्यकता है, उसके अभाव में ओछी दृष्टि से उनका समाधान भी ओछा ही निकलता है। कुसंस्कारी मन में भरे हुए अनेकों कुविचार तथा ओछे दृष्टिकोण के कारण हमारा सारा क्रियाकलाप औंधा तथा ओछा हो जाता है। परमार्थ मार्ग में यह सब से बड़ी बाधा है।

मानसिक दुर्बलताओं और अपूर्णताओं को समझना और उन्हें सुधारना ही आत्म-निर्माण है। आत्म-निर्माण के लिए ही आस्तिकता एवं धर्मसाधना का सारा ढाँचा खड़ा किया गया था। पर आज तो वह ढाँचा भी लड़खड़ा गया है। आस्तिकता और पूजा का अर्थ आज आत्म-चिन्तन, अपने दोष को ढूँढ़ना और उन से छुटकारा पाने के लिए परमात्मा से आत्म-बल माँगना नहीं रहा। अब तो लोग ईश्वर या देवी देवताओं की मनौती या पूजा इसलिए करते हैं कि उन्हें अमुक भौतिक लाभ मिल जाय। देवी-देवता प्रसन्न होकर उनकी उचित अनुचित तृष्णाओं को पूरा कर दें। पूजा का यह बहुत ही निकृष्ट रूप है। यह परमार्थ नहीं है। इससे आत्म-निर्माण या आत्म-कल्याण का उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता। अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को ढूँढ़ना और उन्हें हटाना ही परमार्थ का प्रथम आधार हो सकता है।

परमार्थ का दूसरा आधार सेवा है। दूसरों के प्रति उदारता, दया, करुणा, सहायता, मैत्री आत्मीयता एवं सद्भावना रख कर अधिकाधिक उदार व्यवहार करने से ही साधुता चरितार्थ होती है। इन्हीं गतिविधियों से आत्मा में पुण्य के, धर्म के, सात्विकता के संस्कार जमते हैं और उन्हीं के द्वारा लोक-परलोक सुधरता है। यों आज कुपात्रों की संख्या बहुत है। किसी उदारता का अनुचित लाभ उठाने और उसका दुरुपयोग करने वाले लोग बहुत हैं, उन से सावधानी रखना आवश्यक है। फिर भी सच्ची सेवा के लिए भी बहुत क्षेत्र पड़ा हुआ है। दूसरों को हमारी सहायता की बहुत आवश्यकता है। जो कुछ हमारे पास है वह निश्चय ही हमारी आवश्यकता से अधिक है।

परमात्मा ने मनुष्य को जो शरीरबल, बुद्धिबल, धनबल, प्रदान किया है वह उसका पेट पालने जितना ही नहीं वरन् उस से कहीं अधिक है। सृष्टि के अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य को जो असाधारण प्रतिभाएँ एवं क्षमताएँ दी हैं उनका उद्देश्य यह नहीं कि व्यक्ति वासना और तृष्णा की पूर्ति में उन्हें लगाये रहे वरन् यह है कि अपने से हीन स्थिति के मनुष्यों तथा प्राणियों की सेवा सहायता करता हुआ अधिक पुण्य एवं आत्म सन्तोष उपार्जित करे। यही उपार्जन उसके जीवनोद्देश्य को पूरा करने को इसका महत्वपूर्ण साधन माना गया है।

आत्म निर्माण और परमार्थ के मानवोचित आदर्शों को व्यवहारिक जीवन में कैसे घुलाया जा सके? इस समस्या का एक व्यवहारिक एवं समयानुकूल हल ‘व्रतधारी’ आन्दोलन है। जिन शिक्षाओं को ‘अखण्ड-ज्योति’ गत 21 वर्षों से देती रही है, अब वह समय आया कि वह शिक्षायें मूर्ति रूप धारण करें। स्वाध्याय और सत्संग के द्वारा जिन आत्माओं में आध्यात्मिक चेतना एवं धार्मिकता उत्पन्न हुई है अब उसके चरितार्थ करने का समय आ गया। शिक्षा वही है जो क्रिया में परिलक्षित हो। अन्यथा तोता रटना तो एक मनोरंजन मात्र है।

इस संस्था के प्रत्येक सदस्य को धार्मिक माना जा सकता है। जहाँ तक विचार क्षेत्र की धर्म भावनाओं का सम्बन्ध है हम में से प्रत्येक सदस्य अपने को धार्मिक सिद्ध करने का पूर्ण अधिकारी है। क्योंकि अखण्ड-ज्योति ने गत 21 वर्षों में जिस विवेकसम्मत धार्मिकता का प्रतिपादन किया है उसे संकीर्ण साम्प्रदायिक या भ्रान्त नहीं कहा जा सकता। वह सार्वभौम, सर्वमान्य, मानवता के आदर्शों के अनुरूप धार्मिकता है। उसे जिन लोगों ने पसन्द एवं स्वीकार किया है वे धर्म के निष्कर्षों तक पहुँच चुके हैं यह मानने में किसी को आपत्ति न होनी चाहिए, पर इतने से ही काम न चलेगा। मान्यताओं को आचरण में लाना आवश्यक है।

आत्म-निर्माण और सेवा-साधना यह हमारे मन और शरीर को पवित्र बनाने वाले माध्यम हैं। इन दोनों माध्यमों को जीवन के अन्य आवश्यक एवं दैनिक कार्यों से जोड़ने के लिए व्यवहारिक कदम उठाना ही व्रत धारण है। व्रतधारी का उद्देश्यपूर्ण विचारों को कार्यान्वित करने के लिए अग्रसर होना, यह सक्रियता प्रत्यक्ष परिणाम उपस्थित करेगी। धर्म भावना से ओत-प्रोत व्रतधारी जब अपनी श्रद्धा को क्रियान्वित करेगा तो उसके द्वारा वही सब होगा जो संसार की महान विभूतियाँ कहलाने वाले महापुरुषों के द्वारा होता रहा है। हमारे व्रतधारी परिजनों में से अगले ही दिनों इतिहास को उज्ज्वल करने वाली विभूतियाँ सामने आवें और युग निर्माण की महत्व पूर्ण भूमिका प्रस्तुत करें तो इसमें किसी को आश्चर्य न होना चाहिये। सद्विचारों से सुसम्पन्न आत्माओं को जब कभी सत्कार्य करने में प्रवृत्त होने का अवसर मिला तो उन्होंने संसार को एक नया प्रकाश दिया है। नैतिक और साँस्कृतिक पुनरुत्थान की —युग निर्माण की योजना को सफल बनाने के लिए जिस उत्साह से, जिन लोगों ने व्रतधारण किये हैं उसे देखते हुए आशाजनक भविष्य की उत्साहवर्धक कल्पनाएँ करना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं कहा जा सकता।


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