(श्री 108 स्वामी ब्रह्मस्वरूप जी)
संसार में मनुष्य सब से महत्वपूर्ण प्राणी है। यदि विचार किया जाय तो वह ईश्वर का ही प्रतिरूप है जिसका आदि और अन्त उसी में होता है। प्रत्येक मनुष्य के भीतर सब प्रकार की शक्तियाँ बीज रूप में निहित रहती हैं, जिनके द्वारा अगर दृढ़ निश्चय कर ले तो बड़े से बड़े कार्य को सिद्ध करके दिखा सकता है। पर यह तभी संभव है कि सब से पहले मनुष्य अपनी आत्मा को पहिचाने और उसे साँसारिक विषयों से बचाकर निर्मल तथा शुद्ध बनाने का प्रयत्न करे क्योंकि बिना इसके आत्मा ऊर्ध्वगामी नहीं बन सकती। मनुष्य के भीतर परमात्मा का निवास अवश्य है, पर वह श्रेष्ठ रूप में तभी विकसित हो सकता है जब हम शुद्ध आचार-विचार और निष्कपट आचरण द्वारा उसे प्रभु के आसीन होने योग्य बना लेवें।
जीवन को इस प्रकार के आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर करने की अनेक विधियाँ हैं। ज्ञान, भक्ति और कर्म ये तीनों मार्ग तो बहुत प्रसिद्ध हैं और इनके विषय में सभी मतमतान्तरों और सम्प्रदायों के विद्वानों ने छोटे बड़े ग्रन्थ लिखे हैं। पर इनके सिवाय और भी अनेक विधियाँ ऐसी हैं, जिनसे मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति करता हुआ परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है। योग ग्रन्थों में सोलह प्रकार के योग बतलाये गये हैं जिनमें राजयोग और हठयोग के सिवाय ज्ञानयोग, मन्त्रयोग, लययोग, जपयोग आदि अनेक साधन-विधियों का उल्लेख आता है। भावना-योग भी एक ऐसी ही साधन प्रणाली है जिसके अनुसार मनुष्य ईश्वर के परम प्रेमयुक्त नाम को स्मरण करके उसका साक्षात्कार कर सकता है। हिन्दू-धर्म के “नारद भक्ति -सूत्र” “श्रीमद्भागवत्” आदि ग्रन्थों में इस प्रणाली का उल्लेख किया गया है और अन्य धर्मों में भी इसका महत्व स्वीकार किया गया है। अंग्रेजी में इसे “मिस्टिसिज्म” कहा जाता है जिसका हिन्दी पर्यायवाची “रहस्य योग“ या ‘भावना योग‘ होता है। इसमें न तो राजयोग के समान प्राणायाम, धारणा, समाधि आदि जैसे गम्भीर साधन करने पड़ते हैं न हठयोग के समान षट्कर्म, आसन आदि की कठिन क्रियाओं की आवश्यकता पड़ती है। इसका आधार तो प्रभु की अत्यन्त प्रेमपूर्ण प्रार्थना करना और हृदय से उनकी कृपादृष्टि की आकाँक्षा करते रहना ही है। इस दृष्टि से इसे हम अपने भक्ति -योग का एक अंग कह सकते हैं। पर इस समय भक्ति -साधन में जिस प्रकार अपने इष्टदेव की मूर्ति की षोडशोपचार पूजा की प्रणाली विशेष रूप से चल पड़ी है वह “भावना-योग“ में आवश्यक नहीं। इसका आधार तो अपनी शुद्ध और अकृत्रिम भावना ही है, उसे चाहे जिस किसी विधि से काम में लाया जाय। यही कारण है कि “भावना-योग“ का साधन किसी एक धर्म से सम्बन्ध नहीं रखता। हिन्दू-मुसलमान, ईसाई, यहूदी आदि सभी इसे कर सकते हैं और करते हैं। मुसलमानों के सूफी-सन्त अधिकतर भावना योगी ही थे। ईसाइयों में भी इस साधन का विशेष रूप से प्रचार है और कहा जाता है कि ईसाइयों की धर्म-सभाओं में अनेक बार भावना-योग (मिस्टिसिज्म) की सामूहिक साधना के फलस्वरूप कई व्यक्तियों के जीवन स्थाई रूप से परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रणाली के अनुसार प्रभु की प्रार्थना के स्वरूप और महत्त्व का विवेचन करते हुये एक विद्वान ने लिखा है—
“ईश्वर और मनुष्य के बीच पुल बाँधने का कार्य प्रार्थना से होता है। मनुष्य के हृदय के भीतर चाहे दृढ़ निश्चय होवे कि ईश्वर हमको क्षमा प्रदान करेगा, चाहे उसे पूर्ण भरोसा होवे कि प्रभु कृपा हमें प्राप्त होगी, पर इतने निश्चय मात्र से काम न चलेगा। प्रार्थना ही वह जादू का कार्य है, जिससे पुल बँधता है। प्रार्थना के बिना यह चमत्कार नहीं हो सकता। इसलिये भावना-योग में प्रार्थना पर विशेष महत्त्व रखा गया है और मनुष्य की अपात्रता तथा अयोग्यता पर विशेष जोर इसलिये दिया जाता है कि उसमें अति दीनता का भाव उत्पन्न हो। प्रार्थना द्वारा जो जादू का कार्य होता है, इस दीनता-भाव की प्राप्ति से उसका निश्चय हो जाता है।
भावना योग के कुछ साधक अपने पूज्यदेव की नारी रूप में भक्ति करना श्रेष्ठ मानते हैं। जैसे ईसाई धर्म में कुमारी मेरी की, हिन्दू धर्म में काली और राधा आदि की, मिश्र में माँ आइसिस की, ग्रीक-धर्म में पैल्लस अथीनी की पूजा और प्रार्थना विशेष फलप्रद मानी जाती है और बहुसंख्यक लोग उसका अनुसरण करते हैं। ऐसा क्यों होता है यह आत्मा का एक ऐसा गुप्त रहस्य है जिसे केवल वे ही समझ सकते है जो इस भावना-मार्ग को ग्रहण करते हैं। यहाँ हम इतना ही कह सकते हैं कि प्रेम-भावना मार्ग का एक अति सुन्दर और बलवान रूप है जिसमें प्रेमस्वरूप परमात्मा माता, देवी या प्रियतमा के रूप में दीख पड़ता है। ईश्वर या देवी के चरणों में प्रेम और आत्म-समर्पण की धारा के द्वारा अपने हृदय और आत्मा को अर्पण कर देना यही हृदय की एक मात्र अभिलाषा रहती है। इस योग में आत्मा राम-राम करके प्रभु स्वभाव के अनेक रहस्यों को जानती है। इस श्रेणी के साधक प्रार्थना नहीं करते और न कुछ माँगने या कामना करने का कोई भान रखते हैं। फूल की कली सूर्य प्रकाश से कुछ माँगती नहीं है, वह तो खिलती है, पूजा करती है और अपनी सुन्दरता प्रकट करती है। पर उसमें भी पूर्ण प्रबल प्रयत्न की आवश्यकता है! यह पूजा निषेधात्मक प्रयत्नहीनता नहीं है पर इसमें आत्मा का निश्चयात्मक और तेजस्वी समर्पण उपस्थित रहता है।”
भावना योगी का प्रधान लक्षण बाह्य जगत की बातों की अपेक्षा अपने अंतर्जगत को अधिक महत्व देना होता है। उसका जीवन मुख्य रूप से अन्तः प्रवृत्ति पर ही आश्रित रहता है और बाहरी बातों से वह उन्हीं को स्वीकार करता है जो उसकी आन्तरिक भावनाओं के अनुकूल सिद्ध होती हैं। यही कारण है कि अनेक समय धर्मात्मा और भावना योगी में एक विरोध का सा भाव जान पड़ता है। इस विषय का विवेचन करते हुए एक स्थान पर कहा गया है—
“भावना-योगी और धर्मात्मा के अन्तर को हमें भूल न जाना चाहिये। वे दोनों धार्मिक हों और किसी एक ही पंथ या क्रियाकाण्ड में दोनों की एक सी श्रद्धा हो, पर दोनों में एक बड़ा अन्तर स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। धर्मात्मा का प्रमाण उसका पंथ, शास्त्र या उसकी क्रिया ही हैं, पर भावना योगी को ऐसे बाह्य प्रमाणों को अधिक महत्व देना योग्य नहीं जँचता। प्रचलित रूढ़ियों और नियमों के भावना योगी एक काँटा ही बना रहता है क्योंकि बाह्य प्रमाण उसे तब तक ही माननीय रहता है जब तक वह उसकी भावना के अनुकूल होता है। धर्मात्मा मनुष्य अपनी इच्छा को अपने से बड़े की इच्छा के अनुकूल बनाने को तैयार रहता है, पर भावनायोगी अपनी इच्छा का ही पालन करता है। सब प्रकार के भावना-योग मुख्यतः व्यक्तित्व-प्रधान होते हैं,पर सच्चे भावना-योग में ऐसा व्यक्तित्व रहता है जो सारे विश्व को अपने अमर आलिंगन में लिये रहता है।”
इस विवरण से “भावना-योग“ को कोई विशेष पंथ या सम्प्रदाय मान लेना भूल होगी। ये विभिन्न साधन प्रणालियाँ इसी कारण चलाई गई हैं कि उनके द्वारा पृथक-पृथक मनोवृत्तियों और स्वभाव के लोगों को अपने अनुकूल मार्ग छाँट लेने की सुविधा प्राप्त हो सके। “एक ही स्थान को जाने के लिये एक व्यक्ति छह महीने का और दूसरा साल भर का मार्ग पसन्द करता है।” पर इसका यह आशय निकालना कि वे एक दूसरे के विरोधी हैं अथवा इस मत भिन्नता के कारण उनको लड़ना-झगड़ना चाहिये। सब से बड़ी बुद्धिहीनता की निशानी है। वास्तव में शुद्ध आत्मा होने पर सब का लक्ष्य एक ही रहता है और वे मार्ग की भिन्नता को जरा भी महत्व न देकर सबको आत्मस्वरूप मानते हैं। शंकराचार्य जी ने सन्त के लक्षण बतलाते हुये सत्य ही कहा है—
“के संति संतोऽखिल बीतरागाः अपास्तमोहाः शिव तत्व निष्ठाः”।
अर्थात्—”संत कौन है? जिनके सब राग और मोह निकल गये हैं और जो शिवतत्त्व (ईश्वर तत्त्व) के चिन्तन में सदैव लगे रहते हैं वे ही संत हैं।” यह भावना योगी की मान्यता और भावना होती है।