संसार की वर्तमान परिस्थिति और वेदान्त

July 1959

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(श्री शम्भूसिंह कौशिक)

वर्तमान युग विज्ञान-प्रधान माना गया है। इसमें सबसे बड़ी शक्ति विज्ञान की ही स्वीकार की जा रही है और अपनी उन्नति के लिये सब कोई उसी का आश्रय ग्रहण कर रहे हैं। कारण यह है कि इस समय विज्ञान का सम्बन्ध केवल भौतिक पदार्थों और भौतिक शक्तियों से है और इसलिये उसका परिणाम हर श्रेणी के लोगों को प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ जाता है। विज्ञान के द्वारा लोग तरह तरह के आविष्कार करके अपनी शक्ति बढ़ा रहे हैं, सुख-सुविधा प्राप्त कर रहे हैं, व्यापार-वाणिज्य का विस्तार करके अपनी सम्पत्ति की वृद्धि कर रहे हैं। इन प्रत्यक्ष लाभों को देख कर संसार सब से अधिक महत्व विज्ञान को ही देता है और उसके आगे अन्य सभी विषय फीके पड़ गये हैं।

पर विज्ञान जहाँ सुख सुविधाओं की वृद्धि कर रहा है वहाँ उसने नाशक शक्तियों को भी खूब बढ़ाया है और ये शक्तियाँ परमार्थ ज्ञान से शून्य मनुष्यों के हाथ में आकर बर्बादी का कारण बन रही हैं। शक्ति के मद से अन्धा होकर मनुष्य सत्य और न्याय के नियमों को भूल गया है और चाहता है कि मैं ही सर्वोपरि बन कर संसार भर का कर्ता-धर्ता बन जाऊँ। जब ऐसी शक्ति कई राष्ट्रों के हाथ में आ जाती है और वे संसार पर प्रभुत्व जमाने की प्रतिद्वन्द्विता में शक्ति का प्रदर्शन करने लगते हैं तो स्वभावतः संसार की शाँति और सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है और दुनिया उत्थान के बजाय पतन की ओर अग्रसर होने लगती है। तब विचारशील व्यक्ति कोरे विज्ञान की वृद्धि को हानिकारक मानकर किसी ऐसे मार्ग की खोज करते हैं जिससे विज्ञान की ध्वंसकारी शक्ति नियंत्रण में रहे और मनुष्य उसका उपयोग मानव-सभ्यता पर ही कुठाराघात करने में न करें।

ऐसा मार्ग या साधन जिसे वर्तमान संसार अपने सर्वनाश से भयभीत होकर खोज रहा है, बहुत पहले से ढूँढ़ा जा चुका है और मनुष्य उसे जानते भी हैं। वह साधन धर्म है, जिसका ध्यान रखने से मनुष्य शक्ति पाकर भी संयम नियम में रह सकता है और दूसरों के स्वत्त्वों को अपहरण करना एक जघन्य कार्य मानता है। जब तक मनुष्य इस दृष्टिकोण को सम्मुख करता है तब तक संसार की शाँति को कोई खतरा नहीं रहता। उस समय विशेष शक्ति सम्पन्न व्यक्ति की प्रतिभा और प्रयत्न का उपयोग समाज के अन्य अल्प शक्ति वाले लोगों के हितार्थ होता है और इसके बदले में वह “समाजसेवक” या “समाज के नेता” का गौरव प्राप्त करता है।

पर दुर्भाग्यवश सौ दो सौ वर्ष से यह दृष्टिकोण बदल गया है। यह मुख्य रूप से व्यापार व्यवसाय की प्रधानता का युग है और विज्ञान की बागडोर खास कर उद्योगपतियों के हाथ में ही आ गई है। वे अपने धन-बल के द्वारा वैज्ञानिकों को अपने प्रभाव में रखते हैं और उन्हें विशेष रूप से वही आविष्कार करने को प्रेरित करते हैं जिससे उनका आर्थिक लाभ हो। जब तक संसार में ऐसे उद्योगपतियों की संख्या कम थी और अनेक अविकसित भूभाग उनके विस्तार के लिये पड़े थे, तब तक तो इस व्यवस्था के दोष अधिक भयंकर रूप में सामने नहीं आते थे और लोग प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की प्रसन्नता में विज्ञान के गुण ही गाया करते थे। पर जब एक दूसरे का अनुकरण करके उद्योगपतियों (जो अब संसार के धन कुबेर बन बैठे हैं) की संख्या बढ़ गई और अविकसित क्षेत्रों के कम पड़ जाने से उनके स्वार्थ टकराने लगे, तो परिस्थिति की वास्तविकता प्रकट हुई। इस समय चूँकि शासन की बागडोर इन्हीं धनकुबेरों के हाथों में थी और धर्म से उसका सम्बन्ध विच्छेद कर दिया गया था, इसलिये वे न्याय-अन्याय की अथवा निर्दोष जनता के कष्टों की कुछ भी परवाह न करके एक दूसरे को दबाने का प्रयत्न करने लगे। आजकल हम संसार में इसी संघर्ष का चरम स्वरूप देख रहे हैं और उसके फल से उत्पन्न सर्वनाश की काली छाया सभी विवेकशील लोगों के हृदय को कम्पित और व्याकुल कर रही है।

अब प्रश्न होता है कि ‘धर्म’ किस प्रकार इस समस्या को हल कर सकता है और नाशक-कार्यों में प्रवृत्त शक्ति को जन-कल्याण की दिशा में मोड़ सकता है? यहाँ पर ‘धर्म’ का आशय किसी विशेष मतमतान्तर से नहीं वरन् सत्य और न्याय के शुद्ध व्यवहार से ही है। अगर हम इसका आश्रय लें तो विज्ञान और शासन (राजनीति) में जो दोष व्यापारिक स्वार्थपरता के कारण उत्पन्न हो गये हैं उनका शीघ्र ही परिहार हो सकता है। इस विषय में विवेचन करते हुये भारत के सुप्रसिद्ध तत्वज्ञ और राजनीतिक श्री राजगोपालाचार्य ने अपने एक लेख में कहा है—

“जो वस्तु विज्ञान के नाम से लिखाई जाती है और सत्य के नाम से पूर्णतया स्वीकार कर ली जाती है उसे धर्म में भुला देने की अपेक्षा है। इतना ही नहीं धर्म में जिस श्रद्धा को पवित्र और अनुल्लंघनीय माना जाता है, उसे राजनैतिक कार्यों से अलग रखने और उनमें कोई योग प्रदान न कर देने की अपेक्षा रखी जाती है। इसके लिये हम अनेक प्रकार की आत्म प्रवञ्चना का आश्रय लेते हैं और अपनी सन्तानों के साथ कपट करके उनको भी वही विपरीत बातें समझाते रहते हैं। परस्पर विरोधी विचारों को एक साथ स्वीकार किया जाना—उनको परस्पर मिला देना—कभी कल्याणकारी नहीं हो सकता, चाहे यह कार्य सद्भावना के साथ ही क्यों न किया जाय। असत्य का परिणाम सदैव आध्यात्मिक मृत्यु ही होता है। प्राचीनकाल में इस प्रकार का विरोध भाव इतनी अधिक मात्रा में न था, क्योंकि उस समय विज्ञान की इतनी प्रगति नहीं हुई थी। धर्म और दर्शन के उत्साहपूर्ण अनुसरण से विसंगति (परस्पर विरोधता) उत्पन्न नहीं होती थी, वरन् मनुष्य बड़ी-बड़ी सफलताएँ प्राप्त करते थे। यह इसीलिये हुआ कि उन्होंने परस्पर विरोधी सिद्धान्तों पर विश्वास करने का प्रयत्न नहीं किया। अब विज्ञान का विकास हो गया है और उसे पहले से बहुत बड़े प्रमाण में स्वीकार कर लिया गया है। इसी के फलस्वरूप विसंगति का दोष अधिक गंभीर हो उठा है।”

धर्म का वह रूप जो मतमतान्तर के भेदों और विवादों से मुक्त है तथा लोगों को शुद्ध सत्य और न्याय का व्यवहार करना सिखलाता है “वेदान्त” ही है। इसे कोई सम्प्रदाय मानना भूल है। यह एक और अविच्छेद्य सत्य पर आधार रखता है इसलिये विज्ञान और राजनीति के व्यवहार इसके आधार पर बिना किसी प्रकार की क्षति और त्रुटि के चल सकते हैं। इस मत का प्रतिपादन आधुनिक विचारों के विद्वान ही नहीं करते वरन् शृंगेरी मठ (मद्रास प्राँत) के शंकराचार्य जैसे प्राचीनतावादी ने भी इसका समर्थन करते हुये अपने एक शिष्य को वेदान्त के नीचे लिखे तीन ही मुख्य लक्ष्य बतलाये थे—

(1) वेदान्त भूतमात्र के सुख की साधना करता है (सर्व सत्त्व सुखे हितः)।

(2) वेदान्त कभी किसी दार्शनिक या धार्मिक सम्प्रदाय से विरोध नहीं करता।

(3) वेदान्त-तत्व में दूसरों से विवाद के लिये स्थान ही नहीं है। संसार के किसी भी व्यक्ति या विचार-परम्परा पर विजय प्राप्त करने की यह चेष्टा नहीं करता, क्योंकि समस्त विचारों को यह अपना ही अंग मानता है (यथा स्वहरत पादादिभिः)।

इसलिये वर्तमान विज्ञान और राजनीति की जिन त्रुटियों ने संसार में स्वार्थपरता और अशान्ति की वृद्धि की है और मनुष्य को स्वार्थपरता की ओर प्रेरित कर रखा है, उनके सुधार और सही रास्ते पर आने का उपाय “वेदान्त-धर्म” में ही है। जब मनुष्य विश्व की एकता और हितों की समानता के सिद्धान्त को समझ कर पालन करने लगेगा तो संशय, कलह और संघर्ष का वर्तमान दूषित वातावरण स्वयं ही बदल कर परमार्थ और सहयोगात्मक मनोवृत्ति को जन्म देगा जो सबके लिये कल्याणकारी सिद्ध होगी।


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